Akhilesh Yadav Birthday: मुलायम की परछाई से कैसे आगे निकले अखिलेश, इन 5 खूबियों से पार्टी और परिवार में बने पॉवरफुल
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Akhilesh Yadav Birthday: मुलायम की परछाई से कैसे आगे निकले अखिलेश, इन 5 खूबियों से पार्टी और परिवार में बने पॉवरफुल

Akhilesh Yadav Biography: समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव राजनीति में 24 बरस पूरे कर चुके हैं. 2004 में कन्नौज से लोकसभा सांसद बनने के बाद से आज केंद्र में अहम भूमिका निभाने वाले समाजवादी पार्टी प्रमुख ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा

akhilesh yadav birthday photo

यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री और सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव का सोमवार को 51वां जन्मदिन है. अखिलेश यादव का इस बार जन्मदिन बेहद खास है. 2012 में पिता की राजनीतिक विरासत को भुनाते हुए सत्ता संभालने वाले अखिलेश ने पहली बार यूपी में अपने दम पर कोई बड़ी राजनीतिक जीत हासिल की है. मोदी-योगी लहर और भाजपा के महारथियों की पूरी फौज के बावजूद सपा 37 सीटें जीतने में कामयाब रही. ये उनकी काबिलियत पर उठते सवालों के बीच उनकी सियासी संजीवनी से कम नहीं है.

1. अखिलेश यादव राजनीतिक परिपक्वता के साथ अब प्रोफेसर राम गोपाल यादव, शिवपाल या अन्य पार्टी के बड़े नेताओं के कद से काफी आगे निकल चुके हैं और अपने बलबूते कठोर फैसले लेते हैं

2. अखिलेश यादव ने शुरुआती गलतियों से सबक लेते हुए खुद को जमीनी स्तर की राजनीति और जनता के बीच संपर्क बनाने की रणनीति से जोड़े रखा है. 

3. उत्तर प्रदेश के जातिगत समीकरणों की परख उन्हें बखूबी हो चुकी है. सिर्फ मुस्लिम यादव समीकरण से बाहर निकलते हुए उन्होंने दलितों और पिछड़ों के पूरे वोटबैंक पर फोकस किया है

4. सहयोगी दलों की दबाव की रणनीति को खारिज करते हुए पल्लवी पटेल, ओम प्रकाश राजभर, स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेताओं को उन्होंने कभी हावी नहीं होने दिया. इन तीनों के अलग होने के बावजूद सपा ने पूर्वांचल में जबरदस्त जीत हासिल की.

5. परिवार को लेकर भी अखिलेश का रुख नरम पड़ा है. बदायूं से शिवपाल सिंह यादव की जगह उनके बेटे आदित्य यादव को टिकट और फिरोजाबाद से रामगोपाल यादव के बेटे अक्षय यादव को टिकट देना इसका संकेत है. यादव परिवार की अभी भी 15 से 20 सीटों पर राजनीतिक साख है. मैनपुरी के साथ इटावा सीट भी सपा ने इस बार वापस ले ली.

2012 में दिखी थी मेहनत
याद करें 2007 से पांच सालों तक मायावती की सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए 2012 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश ने धुआंधार प्रचार किया. उनका परिवर्तन रथ पूरे प्रदेश में घूमा.नतीजा रहा कि समाजवादी पार्टी पूरे दमखम के साथ सत्ता में आई. सन 2000 में कन्नौज लोकसभा सीट से उपचुनाव जीतने वाले अखिलेश 38 साल की उम्र में वो यूपी के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने. मुलायम ने भी सभी कयासों को विराम देते हुए अपने बेटे को उत्तराधिकारी घोषित करते हुए मुख्यमंत्री पद का इनाम दिया. हालांकि अमर सिंह, आजम खां, राम गोपाल यादव और शिवपाल सिंह यादव जैसे पार्टी के बड़े नेताओं और मुलायम सिंह यादव से उनकी करीबी अखिलेश को भारी पड़ी. पार्टी में गुटबाजी इतनी चरम पर पहुंची.अखिलेश को सीएम और प्रदेश अध्यक्ष पद में से एक छोड़ने को कहा गया. 

चार चुनावों में हार
पार्टी के दो साल के शासनकाल में ही लोकसभा चुनाव आया. यूपीए पर भ्रष्टाचार के आरोपों और मोदी की हिन्दुत्व ब्रांड वाली छवि से आई लहर में सपा-बसपा समेत सभी दल बह गए. भाजपा 71 सीटों पर जीती. अखिलेश पर हमले तेज हो गए. इसी बीच अखिलेश ने मुख्तार अंसारी के कौमी एकता दल के विलय के सवाल पर शिवपाल सिंह यादव और बलराम यादव को मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया. पार्टी में दोफाड़ हो गया. शिवपाल सिंह यादव ने प्रगतिशील समाजवादी पार्टी बना ली और नतीजा रहा कि विधानसभा चुनाव में पार्टी 47 सीटों पर सिमट गई. बीजेपी प्रचंड बहुमत के साथ पहली बार अपने बलबूते उत्तर प्रदेश में सत्ता में आई. 

2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव और 2017-2022 के विधानसभा चुनाव में पार्टी की करारी हार अखिलेश की सियासी समझ और सबको साथ लेकर चलने की साख पर सवाल थी. मायावती और कांग्रेस के साथ गठबंधन का प्रयोग भी उन्हें पहले रास नहीं आया. जिस मुस्लिम-यादव गठजोड़ से मुलायम सिंह यादव यूपी की सियासत में खूंटा गाड़  चुके थे, वो ही हिल चुका था, लेकिन अखिलेश ने गलतियों से तेजी से सबक लिया.

बीजेपी 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर अति आत्मविश्वास में नजर आई. पार्टी की पूरा प्रचार तंत्र रैलियों, जनसभाओं से गर्दा उड़ा रहा था. लेकिन अखिलेश ने पीडीए के फार्मूले को जमीन पर उतारा. मायावती के रवैये से आहत बसपा के कद्दावर नेता जैसे राम अचल राजभर, लालजी वर्मा, इंद्रजीत सरोज को पार्टी में सम्मान दिया. लोकसभा चुनाव में इन नेताओं के बेटे-बेटियों को टिकट देने में भी परहेज नहीं किया. मुस्लिमों के पास विकल्प न देखते हुए सिर्फ चार सीटों पर ही उन्हें टिकट दिया. नतीजा रहा कि हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण का भाजपा का प्रयास नाकाम हो गया. पिछड़ों और दलितों का बड़ा हिस्सा भी सपा के पाले में आया और बीजेपी को जोरदार झटका लगा. 

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