पिथौरागढ़ जिले से लगे भारत की सीमा के सबसे करीब चीन अधिकृत तिब्बत की तकलाकोट बाजार है. ये बड़ी व्यावसायिक मंडी बन चुकी है. यहां तक चीन की फोरलेन सड़क है. यह भारत के लिए खतरनाक है.
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कोमल मेहता, पिथौरागढ़: उत्तराखंड के सीमावर्ती गांवों में नागरिकों को बिना हथियार का सैनिक माना जाता है. उनकी मौजूदगी में सीमा पर कोई भी गतिविधि किसी से छिपी नहीं रह सकती है, लेकिन अब भारतीय गांवों में सन्नाटा पसरा है. लोग पुस्तैनी गांव से पलायन कर चुके हैं. इसके ठीक उलट ड्रैगन (चीन) का फोकस भारतीय सीमा से लगे गांवों में आधारभूत सुविधा बढ़ाने के साथ ही आबादी बसाने पर केंद्रित है. सैनिक छावनी भी सीमा के कस्बों में आबाद हो गई है. पिथौरागढ़ जिले से लगे भारत की सीमा के सबसे करीब चीन अधिकृत तिब्बत की तकलाकोट बाजार है. ये बड़ी व्यावसायिक मंडी बन चुकी है. यहां तक चीन की फोरलेन सड़क है. सैनिक छावनी और एयरबेस तक बन चुके हैं. जबकि भारतीय सीमावर्ती क्षेत्र आज भी सड़क से नहीं जुड़ पाए.
भारतीय खुफिया एजेंसियों ने इस चिंता से भारत सरकार को अवगत कराया है. गांव छोड़ पलायन कर गए लोगों को फिर से गांवों में बसाने के लिए कई कारगर योजना की वकालत भी की है. खुफिया एजेंसियों की रिपोर्ट बताती हैं कि उच्च हिमालयी क्षेत्र में 12,600 फीट की ऊंचाई पर भारत के अंतिम गांव कुटी, सीपू, तिदांग, गो, मरछा, गुंजी, नपल्च्यू, नाबी जैसे गांव भोटिया जनजाति बाहुल्य हैं. इनमें से आधे गांवों में अब आबादी नहीं रह गई है. मिलम गांव जो 12000 फुट की ऊंचाई पर बसा है, यहां की आबादी लगभग शून्य पर पहुंच चुकी है. 1962 में भारत चीन युद्ध से पूर्व यहां करीब पांच सौ परिवार रहते थे.
एक दशक पहले तक इन आठ गांवों में ही 15 से 20 हजार की आबादी थी. मूलभूत सुविधाओं तक से वंचित इस इलाकों में अब ढाई सौ की आबादी भी नहीं है. गांव के गांव उजाड़ हो चुके हैं. इन इलाकों में दुनिया के सबसे खूबसूरत ग्लेशियरों में से एक मिलम के गांव भी उजड़ चुके हैं. इसकी बड़ी वजह सड़क, शिक्षा, चिकित्सा की सुविधा का यहां तक न पहुंच पाना है.
चीन इसका भरपूर फायदा उठा रहा है. पिछले दिनों चीनी सैनिक चमोली जिले से लगी सीमा में भारतीय गांवों तक पहुंच गए थे. चीन यहां आबादी बसाने के लिए लगातार सुविधाओं का विस्तार करता जा रहा है. तिब्बत के दो सीमावर्ती गांव दारचिल और कुफू पिछले पांच वर्ष में कस्बा बन गए. अब बड़े शहर के रूप में सजने-संवरने लगे हैं. भारतीय खुफिया एजेंसियों ने सामरिक दृष्टि से इसे बड़ी चिंता माना है. जानकार और सामाजिक सरोकारों से जुड़े लोगों का कहना है कि सरकार की उदासीनता इसका प्रमुख कारण है. यहां के लोगों को जरूरी सुविधाएं नहीं मिलना लोगों के पलायन करने की सबसे बड़ी वजह है.
सरकार भले ही सीमान्त क्षेत्रों में पलायन रोकने का दावा करती है, लेकिन हकीकत कुछ और है. भारत सरकार ने एक दशक पहले चीन सीमा से लगे गांवों को आबाद करने करने के उद्देश्य से बॉर्डर एरिया डेवलपमेंट प्रोग्राम (BADP) शुरू किया. शुरुआती दौर में इसमें उत्तराखंड, कश्मीर, हिमाचल और अरुणाचल प्रदेश के सिर्फ नौ ब्लॉक के गांव शामिल किए गए, लेकिन बाद में इस योजना में नेपाल बॉर्डर के गांव शामिल कर योजना का क्रियान्वयन ब्लॉक मुख्यालयों से सुपुर्द कर दिया गया. नतीजा यह रहा कि इस योजना के क्रियान्वयन में राजनीति और बंदरबांट के शिकार होने के आरोप भी लगते रहे है. लेकिन प्रशासन का कहना है कि इन इलाकों के विकास के लिये इस प्रोगाम को बेहतर तरीके से साथ संचालित किया जा रहा है ताकि इन इलाकों में रहने वाले लोगों को रोजगार मिल सके साथ ही इन सीमान्त इलाकों के लिये नेशनल रूरल लाइविलीहुड मिशन (एनआरएलएम )योजना के तहत इन इलाकों में रहने वाले लोगों के लिये काम किए जा रहे हैं.
सरकारों को सीमाओं की संवेदना और इन इलाकों में रहने वाले लोगों की जरूरतों को समझना होगा. जिसको समझने में अभी तक हमारी सरकार नाकाम रही है. हमारी इन सीमाओं में रहने वाले लोगों को क्या बेहतर सुविधा देना सरकारों की प्रथामिता नहीं है? सरकार को जरूरत इस दिशा में काम करना चाहिए जिससे यहां से लोगों के पलायन पर लगाम लग सके और जो लोग पहले ही पलायन कर चुके हैं, वे वापस अपनी गांव की ओर लौटे. इससे हमारी सीमा सुरक्षित रहेगी.