Shukrawar Ke Upay: शुक्रवार को "श्रीमहालक्ष्मीस्तोत्रम् विष्णुपुराणान्तर्गतम्" स्तोत्र का पाठ, कभी नहीं धन-दौलत की नहीं होगी कमी
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Shukrawar Ke Upay: शुक्रवार को "श्रीमहालक्ष्मीस्तोत्रम् विष्णुपुराणान्तर्गतम्" स्तोत्र का पाठ, कभी नहीं धन-दौलत की नहीं होगी कमी

Shukrawar Ke Upay: शुक्रवार का दिन मां लक्ष्मी को समर्पित होता है. जिन लोगों की आर्थिक स्थिति सही नहीं है, वह आज के दिन खास उपाय कर सकते हैं.  

Shukrawar Ke Upay

Shukrawar Ke Upay: आज मार्गशीष (अगहन) मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि है. आज दिन शुक्रवार है. आज के दिन मां लक्ष्मी की पूजा की जाती है. शुक्रवार को लक्ष्मीजी की उपासना करने का विशेष महत्व है. मान्यता है कि अगर मां लक्ष्मी प्रसन्न हो जाएं तो उसके जीवन में कभी भी धन-दौलत की कमी नहीं होती. ऐसे में भक्त उन्हें प्रसन्न करने के लिए पूजा-पाठ, तरह-तरह के टोटके और उपाय करते हैं. मां लक्ष्मी की पूजा के दौरान श्रीमहालक्ष्मीस्तोत्रम् विष्णुपुराणान्तर्गतम् स्तोत्र का पाठ करना चाहिए. 

श्रीगणेशाय नमः।
श्रीपराशर उवाच
सिंहासनगतः शक्रस्सम्प्राप्य त्रिदिवं पुनः।
देवराज्ये स्थितो देवीं तुष्टावाब्जकरां ततः॥ १॥ 

इन्द्र उवाच
नमस्ये सर्वलोकानां जननीमब्जसम्भवाम्।
श्रियमुन्निद्रपद्माक्षीं विष्णुवक्षःस्थलस्थिताम्॥ २॥

पद्मालयां पद्मकरां पद्मपत्रनिभेक्षणाम्
वन्दे पद्ममुखीं देवीं पद्मनाभप्रियाम्यहम्॥ ३॥

त्वं सिद्धिस्त्वं स्वधा स्वाहा सुधा त्वं लोकपावनी।
सन्ध्या रात्रिः प्रभा भूतिर्मेधा श्रद्धा सरस्वती॥ ४॥

यज्ञविद्या महाविद्या गुह्यविद्या च शोभने।
आत्मविद्या च देवि त्वं विमुक्तिफलदायिनी॥ ५॥

आन्वीक्षिकी त्रयीवार्ता दण्डनीतिस्त्वमेव च।
सौम्यासौम्यैर्जगद्रूपैस्त्वयैतद्देवि पूरितम्॥ ६॥

का त्वन्या त्वमृते देवि सर्वयज्ञमयं वपुः।
अध्यास्ते देवदेवस्य योगचिन्त्यं गदाभृतः॥ ७॥

त्वया देवि परित्यक्तं सकलं भुवनत्रयम्।
विनष्टप्रायमभवत्त्वयेदानीं समेधितम्॥ ८॥

दाराः पुत्रास्तथाऽऽगारं सुहृद्धान्यधनादिकम्।
भवत्येतन्महाभागे नित्यं त्वद्वीक्षणान्नृणाम्॥ ९॥

शरीरारोग्यमैश्वर्यमरिपक्षक्षयः सुखम्।
देवि त्वद्दृष्टिदृष्टानां पुरुषाणां न दुर्लभम्॥ १०॥

त्वमम्बा सर्वभूतानां देवदेवो हरिः पिता।
त्वयैतद्विष्णुना चाम्ब जगद्व्याप्तं चराचरम्॥ ११॥

मनःकोशस्तथा गोष्ठं मा गृहं मा परिच्छदम्।
मा शरीरं कलत्रं च त्यजेथाः सर्वपावनि॥ १२॥

मा पुत्रान्मा सुहृद्वर्गान्मा पशून्मा विभूषणम्।
त्यजेथा मम देवस्य विष्णोर्वक्षःस्थलाश्रये॥ १३॥

सत्त्वेन सत्यशौचाभ्यां तथा शीलादिभिर्गुणैः।
त्यज्यन्ते ते नराः सद्यः सन्त्यक्ता ये त्वयाऽमले॥ १४॥

त्वयाऽवलोकिताः सद्यः शीलाद्यैरखिलैर्गुणैः।
कुलैश्वर्यैश्च पूज्यन्ते पुरुषा निर्गुणा अपि॥ १५॥

सश्लाघ्यः सगुणी धन्यः स कुलीनः स बुद्धिमान्।
स शूरः सचविक्रान्तो यस्त्वया देवि वीक्षितः॥ १६॥

सद्योवैगुण्यमायान्ति शीलाद्याः सकला गुणाः।
पराङ्गमुखी जगद्धात्री यस्य त्वं विष्णुवल्लभे॥ १७॥

न ते वर्णयितुं शक्तागुणाञ्जिह्वाऽपि वेधसः।
प्रसीद देवि पद्माक्षि माऽस्मांस्त्याक्षीः कदाचन॥ १८॥

श्रीपराशर उवाच
एवं श्रीः संस्तुता सम्यक् प्राह हृष्टा शतक्रतुम्।
शृण्वतां सर्वदेवानां सर्वभूतस्थिता द्विज॥ १९॥

श्रीरुवाच
परितुष्टास्मि देवेश स्तोत्रेणानेन ते हरेः।
वरं वृणीष्व यस्त्विष्टो वरदाऽहं तवागता॥ २०॥

इन्द्र उवाच
वरदा यदिमेदेवि वरार्हो यदिवाऽप्यहम्।
त्रैलोक्यं न त्वया त्याज्यमेष मेऽस्तु वरः परः॥ २१॥

स्तोत्रेण यस्तवैतेन त्वां स्तोष्यत्यब्धिसम्भवे।
स त्वया न परित्याज्यो द्वितीयोऽस्तुवरो मम॥ २२॥

श्रीरुवाच
त्रैलोक्यं त्रिदशश्रेष्ठ न सन्त्यक्ष्यामि वासव।
दत्तो वरो मयाऽयं ते स्तोत्राराधनतुष्ट्या॥ २३॥

यश्च सायं तथा प्रातः स्तोत्रेणानेन मानवः।
स्तोष्यते चेन्न तस्याहं भविष्यामि पराङ्गमुखी॥ २४॥

श्रीपाराशर उवाच
एवं वरं ददौ देवी देवराजाय वै पुरा।
मैत्रेय श्रीर्महाभागा स्तोत्राराधनतोषिता॥ २५॥

भृगोः ख्यात्यां समुत्पन्ना श्रीः पूर्वमुदधेः पुनः।
देवदानवयत्नेन प्रसूताऽमृतमन्थने॥ २६॥

एवं यदा जगत्स्वामी देवराजो जनार्दनः।
अवतारः करोत्येषा तदा श्रीस्तत्सहायिनी॥ २७॥

पुनश्चपद्मा सम्भूता यदाऽदित्योऽभवद्धरिः।
यदा च भार्गवो रामस्तदाभूद्धरणीत्वियम्॥ २८॥

राघवत्वेऽभवत्सीता रुक्मिणी कृष्णजन्मनि।
अन्येषु चावतारेषु विष्णोरेखाऽनपायिनी॥ २९॥

देवत्वे देवदेहेयं मानुषत्वे च मानुषी।
विष्णोर्देहानुरुपां वै करोत्येषाऽऽत्मनस्तनुम्॥ ३०॥

यश्चैतशृणुयाज्जन्म लक्ष्म्या यश्च पठेन्नरः।
श्रियो न विच्युतिस्तस्य गृहे यावत्कुलत्रयम्॥ ३१॥

पठ्यते येषु चैवर्षे गृहेषु श्रीस्तवं मुने।
अलक्ष्मीः कलहाधारा न तेष्वास्ते कदाचन॥ ३२॥

एतत्ते कथितं ब्रह्मन्यन्मां त्वं परिपृच्छसि।
क्षीराब्धौ श्रीर्यथा जाता पूर्वं भृगुसुता सती॥ ३३॥

इति सकलविभूत्यवाप्तिहेतुः स्तुतिरियमिन्द्रमुखोद्गता हि लक्ष्म्याः।
अनुदिनमिह पठ्यते नृभिर्यैर्वसति न तेषु कदाचिदप्यलक्ष्मीः॥ ३४॥

॥ इति श्रीविष्णुपुराणे महालक्ष्मी स्तोत्रं सम्पूर्णम्॥

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