यूपी चुनाव 2022: ब्राह्मण वोट बैंक पर क्यों है सभी दलों की नजर? क्या कहती है सूबे की सवर्ण पॉलिटिक्स
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यूपी चुनाव 2022: ब्राह्मण वोट बैंक पर क्यों है सभी दलों की नजर? क्या कहती है सूबे की सवर्ण पॉलिटिक्स

INDEPTH: यूपी में सवर्णों की राजनीति किस तरीके से बदल रही है और इसका प्रभाव अगले चुनाव में कैसा होने वाला है? आइए जानते हैं...

यूपी चुनाव 2022: ब्राह्मण वोट बैंक पर क्यों है सभी दलों की नजर? क्या कहती है सूबे की सवर्ण पॉलिटिक्स

निमिषा श्रीवास्तव/सवर्ण वोट बैंक: यूपी में ओबीसी और दलितों के बाद सबसे ज्यादा आबादी सवर्णों की है (करीब 23%). सवर्ण यानी ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ, भूमिहार, कुछ बनिया, आदि. इनमें भी सबसे ज्यादा ब्राह्मण (9-11 फीसदी), फिर राजपूत (7-8%), कायस्थ (करीब 2.25%) और अन्य अगड़ी जातियां (करीब 2.75%) हैं. 

एक समय था जब उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मणों और राजपूतों का वर्चस्व था. साल 1990 के पहले तक यूपी को 8 ब्राह्मण और 3 राजपूत मुख्यमंत्री मिले थे. दोनों जातियों की संख्या भले की कम थी, लेकिन दबदबा हमेशा से बना रहता. माना जाता है कि ब्राह्मण वर्ग हमेशा ही सत्ता के करीब रहना चाहता है और राजपूत की विचारधारा भी राजनीति को लेकर सॉलिड है. लेकिन उत्तर प्रदेश के राजनीतिक गलियारों के आंकड़ों देखें, तो पिछले 3 दशक से इन जातियों का प्रभाव कम दिखा. 

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हालांकि, 2022 विधानसभा चुनाव से पहले एक बार फिर ब्राह्मणों की बात उठी है. ये फिर उभरते नजर आ रहे हैं. सत्ता में आने के लिए पार्टियां फिर ब्राह्मणों को रिझाना शुरू कर रही हैं. लेकिन क्या बदला? ब्राह्मण पहले भी सत्ता बनाते में सबसे बड़े भागीदार थे. फिर सत्ता में इनकी पावर कम होने लगी और अब फिर ये उभर कर आ रहे हैं. बात यह भी गलत नहीं होगी, अगर कहा जाए कि जो ब्राह्मण पहले सत्ता पलट सकते थे अब महज एक वोट बैंक बनकर रह गए हैं.

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बात करें ठाकुरों की तो यूपी में भले ही राजपूतों की संख्या ब्राह्मणों से कम रही हो, लेकिन वर्चस्व बराबर का रहा है. 1990 के पहले यूपी को 3 राजपूत सीएम मिले थे. 1990 के बाद भी 2 राजपूत सीएम ने प्रदेश की कमान संभाली है. हालांकि, बाद में बस भाजपा में ही इनका दबदबा देखने को मिला.

अगर आपने ध्यान दिया हो, तो हमने यूपी की राजनीति को दो भाग में बांटा है- 1990 के पहले और 1990 के बाद. ऐसा क्यों? दरअसल, इस दौरान एक ऐसी रिपोर्ट आई, जिसने सत्ता की कमान ब्राह्मणों और राजपूतों के हाथ से लेकर दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों के हाथ में दे दी. यह थी मंडल कमीशन रिपोर्ट. इसे सामाजिक इतिहास में 'वॉटरशेड मोमेंट' भी कहा जाता है. यह एक अंग्रेजी मुहावरा है, जिसका अर्थ है- वह क्षण जहां से कोई बड़ा परिवर्तन शुरू हुआ हो. 

पहले जान लेते हैं क्या थी मंडल रिपोर्ट
माना जाता है कि लोकतंत्र संख्याबल का खेल है. मंडल कमीशन की रिपोर्ट ने भी यह बात साबित कर दी थी. 1980 में आई यह रिपोर्ट, 1990 के करीब लागू हुई थी. प्रदेश में ओबीसी की संख्या 40%, तो दलितों की लगभग 24% है. ऐसे में इस रिपोर्ट के आने के बाद यूपी की राजनीति पलट गई.

आइए जानते हैं क्या अभी भी राजनीति में सवर्णों का वर्चस्व कायम है? क्या अभी भी ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ, भूमिहार, आदि राजनीति पलटने की ताकत रखते हैं?

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आंकड़ों की बात करें तो लोकसभा और राज्यसभा दोनों में ही ओबीसी का प्रतिनिधित्व बढ़ा है और ब्राह्मणओं के प्रभाव में कमी दिखी है. साल 1984 में लोकसभा के करीब 20% सांसद ब्राह्मण थे. 20 साल के अंदर, साल 2014 में ये घटकर 8.27 फीसदी रह गए. वहीं, यूपी में आज तक 5 राजपूत सीएम बने, लेकिन (अभी तक योगी आदित्यनाथ के अलावा) कोई भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया. हालांकि, जनमत बनाने के लिए दोनों ही पार्टियों का बड़ा रोल रहा है. 

लखनऊ यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता विभाग के प्रमुख डॉ. मुकुल श्रीवास्तव कहते हैं कि मौजूदा समय में भारत में जाति आधारित जनगणना की बड़ी मांग चल रही है. जातियों के जो आंकड़ें हैं हमारे पास वह 1930 के आसपास की जनगणना के हिसाब से हैं. हम उसी में जोड़ घटा के अमूमन आंकड़े निकाले जा रहे हैं. वहीं अगर हम ब्राह्मणों की बात करें तो किसी भी राजनीति में विचारवान नेतृत्व (Opinion Leaders) का बड़ा रोल होता है. जाहिर है कि हमारे समाज में ब्राह्मण या अन्य सवर्ण जातियां शीर्ष पर रही हैं, तो ऐसे में ओपिनियन लीडर्स भी इन्हीं जातियों के बने. अब यह इस पावर का इस्तेमाल कर सकते हैं समाज की राय बनाने या बिगाड़ने में. इसके चलते यह ज्यादा मजबूत माने जाते हैं. हालांकि, आंकड़ों में ये कम हैं, लेकिन माइंडसेट क्रिएट करने में बड़ा महत्व रखते हैं. यही कारण है कि सभी पार्टियां इन्हें लुभाने की कोशिश करती हैं. 

वहीं, दूसरा फैक्टर यह है कि सामाजिक तौर पर शीर्ष होने के साथ-साथ यह जातियां आर्थिक रूप से भी मजबूत हैं. ऐसे में समाज इन्हें हर तौर पर अच्छी नजर से देखता है. यह भी कारण है कि सवर्ण जातियां सत्ता बनाने में महत्व रखती हैं. 

कुछ सवालों के माध्यम से जानते हैं यूपी में सवर्ण वोट बैंक की गहराई और महत्व के बारे में

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1. क्या सिर्फ यह कहने की बात है या फिर सच में यूपी में 'ब्राह्मण बनाम राजपूत' राजनीति रही है?
डॉ. मुकुल श्रीवास्तव कहते हैं कि ये सभी टर्म्स को जन्म देने वाले ओपिनियन लीडर्स ही होते हैं. सत्ता बनाने के लिए कैबिनेट में हमेशा विविधता (Diversification) की जरूरत होती है. जनता के मूड के हिसाब से मंत्री भी रखे जाते हैं. जब पार्टी को लगता है कि राजपूत चेहरे को या ब्राह्मण चेहरे को, ओबीसी या अन्य किसी चेहरे को सामने रखने से ज्यादा वोट मिल सकते हैं, तो पार्टियां उस चेहरे का इस्तेमाल करती हैं. इसमें कंपटीशन की बात नहीं आती. इसके अलावा, कैबिनेट में या अधिकारियों को नियुक्त करते समय विविधता होना बहुत जरूरी है. जैसी डायवर्सिटी प्रदेश में है अगर वही शासन या प्रशासन में न दिखे तो पार्टियों को सोचना चाहिए कि यह डायवर्सिटी हम क्यों नहीं ला पाए और उसी हिसाब से काम करना चाहिए. 

वहीं, यूपी राजनीति की अच्छी जानकारी रखने वाले और संघ से जुड़े संतोष दुबे जी बताते हैं कि ब्राह्मण बनाम राजपूत की राजनीति कभी चुनावी क्षेत्र में देखने को नहीं मिली है. ये सामाजिक व्यवस्था में देखने को जरूर मिला है, लेकिन राजनीति में इसका खास असर नहीं दिखता. उन्होंने यह भी बताया कि ये जातियां ज्यादातर एक साथ ही चलती हैं. यानी देखा जाता है कि बहुमत में एक पारिटी को ही वोट करती हैं. ऐसे में वोट पर्सेंट में दोनों एक ही तरफ जाती हैं. मतदान में ब्राह्मण ज्यादा प्रभावी हैं और इंफ्ल्यूएंस करने में ब्राह्मण और राजपूत बराबर हैं.

2. मंडल कमीशन रिपोर्ट के बाद ऐसा क्या हुआ कि ठाकुरों और ब्राह्मणों का वर्चस्व थोड़ा कम होने लगा?
संतोष दुबे का कहना है कि क्षेत्रीय पार्टियां पहले होती नहीं थीं न ही इनका ज्यादा वर्चस्व देखा जाता था. तो ब्राह्मण अपने आप को सत्ता के करीब रखता था और राजपूत सत्ता के अंदर रहता था. इस नाते कांग्रेस के साथ ब्राह्मणों का अच्छा वर्चस्व था. सम्मान के साथ महसूस करता था. यूपी में जब कांग्रेस की स्थिति खराब हुई तो सपा बसपा आईं. भाजपा भी उस दौरान एकदम से ऊपर आई. ऐसे में ब्राह्मण भाजपा के बैक एंड में आ गए. यानी कांग्रेस में सबसे आगे रहने वाले ब्राह्मण भाजपा में जुड़ते समय पीछे होते गए. ठाकुर सपा में जाने लगे. इसके बाद बसपा का उदय हुआ तो ब्राह्मण और खासतौर से भाजपा के नेता बसपा में चले गए. उनकी संख्या बहुतायत थी. 55 फीसद बसपा की लीडरशिप भाजपा से शिफ्ट होकर गई थी. 

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वहीं, इस सवाल पर डॉक्टर मुकुल श्रीवास्तव बताते हैं कि रिपोर्ट के बात डेमोक्रेसी की जो ऑल्टरनेटिव वॉइस थीं, उन्हें मजबूत किया जाने लगा. जब वह लोग नौकरी में आने लगे, खुद निर्णय लेने के दायरे में आने लगे, तो उन्हें अपनी पावर का एहसास हुआ. इसी हिसाब से पोलराइजेशन भी शुरू हो गया. जैसे हम कहते हैं कि करप्शन ऊपर से नीचे की ओर आता है. वैसे ही जातिवाद भी ऊपर से नीचे फ्लो करता है. 

जब आरक्षण की बात आई और दलितों और ओबीसी को आरक्षण मिलने लगा, तो अगड़ी जातियों के अंदर भी पोलराइजेशन होने लगा. वह नाखुश थे और ऐसे में कई पार्टियों में बंट गए. एकता खत्म होने की वजह से उनकी पावर भी कम होने लगी. 

मंडल आंदोलन के बाद यूपी की सियासत पिछड़े, दलित और मुस्लिम केंद्रित हो गई. नतीजतन, यूपी को कोई ब्राह्मण सीएम नहीं मिल सका. ब्राह्मण एक दौर में पारंपरिक रूप से कांग्रेस के साथ था, लेकिन जैसे-जैसे कांग्रेस कमजोर हुई यह वर्ग दूसरे ठिकाने खोजने लगा. मौजूदा समय में वो बीजेपी के साथ खड़ा नजर आता है. कांग्रेस उन्हें दोबारा अपने पाले में लाने की जद्दोजहद कर रही है.

3. यूपी में फिर जरूरी हुए ब्राह्मण ?
बताया जाता है कि मंडल रिपोर्ट के बाद ब्राह्मण बैक एंड में जरूर आ गए थे लेकिन 1995 का गेस्ट हाउस कांड के बाद दलित-ओबीसी राजनीतिक पावर एक दूसरे की दुश्मन हो गईं. यानी सपा और बसपा अब सीधी आंख एक दूसरे को नहीं देखते थे. इसी दुश्मनी का फायदा मिला ब्राह्मण वोट बैंक को. कांग्रेस के कमजोर पड़ते समय ब्राह्मण बीजेपी में जगह तलाशने लगा, लेकिन यूपी बीजेपी में भी ठाकुर-बनिया राजनीति चल रही थी. लेकिन, ब्राह्मण कभी भी पीछे रहना नहीं चाहता था. साल 2007 का चुनाव आया तो केवल 17% ब्राह्मणों ने मायावती को वोट दिया. इसमें भी ज्यादातर वोट वहीं मिले, जहां बसपा के पास ब्राह्मण प्रतियाशी थे.

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4. ब्राह्मण और ठाकुरों के अलावा, सवर्ण में आने वाली और जातियों (कायस्थ, भूमिहार, बनिया) का क्या रोल है?
डॉ. मुकुल ने बताया कि क्योंकि सत्ता संख्याबल के हिसाब से भी बनती है. इसलिए जाहिर है कि कम संख्या वाली जातियों पर पार्टियों का ध्यान नहीं जाता. इसके अलावा, बाकी जातियां किसी भी क्षेत्र में निर्णायक कारक नहीं हैं. ऐसा नहीं है कि इनमें से एक जाति भी मिलकर किसी एक पार्टी को वोट करेगी तो इससे किसी का फायदा या नुकसान होगा. 

राजनीति में संख्याबल हमेशा से मायने रखता है. बनिया वर्ग ज्यादातर भाजपा के साथ रहा है. कायस्थ तो पूरी तरह से भाजपा के साथ है. भूमिहार भी हमेशा सत्ता के करीब रहता है. भूमिहार नेता हर पार्टी में आपको मिल जाएंगे. भाजपा में मनोज सिन्हा, सूर्य प्रताप शाही, एके शर्मा, उपेंद्र तिवारी, अश्विनी त्यागी.

वहीं, डॉ. मुकुल का मानना है कि जिन जातियों में शिक्षा का स्तर ज्यादा है, वहां इस तरीके की चीजें कम हो जाती हैं. इनका वोट भी कम है और यह शायद जाति के हिसाब से सोचते भी नहीं. ये जातियां इस चीज पर वोट करती हैं कि कौन सी पार्टी उनका, उनके परिवार का, क्षेत्र का या देश का फायदा करा सकती हैं. इसलिए इन जातियों को लुभाने की कोशिश कम होती है. इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि यह जातियां किसी एक पार्टी के साथ रहती हैं. इनका वोट विकास की उम्मीद जगाने वाले प्रत्याशियों को या नीतियों को जाता है. समय-समय पर यह स्विंग करती रहती हैं. 

वहीं, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. हिमांशु कहते हैं कि अब लोग जातियां देखकर वोट कम करने लगे हैं. अब जनता को मत

संतोष दुबे बताते हैं कि कायस्थ पूरी तरीके से बीजेपी के साथ हैं. राजपूत इलेक्शन के पहले और बाद में सत्ता की तरफ जाता है. ब्राह्मण धीरे-धीरे एडजस्ट होता है. ब्राह्मण सत्ता लेना कम चाहता है, बनाना ज्यादा चाहता है. इसलिए जब बसपा दोबारा आई तो ब्राह्मणों का मेजर रोल था.

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5. परशुराम पर होने वाली राजनीति क्या है? क्या इसे 'परशुराम पॉलिटिक्स' कहना सही होगा? 
डॉ. मुकुल श्रीवास्तव बताते हैं कि प्रदेश में मूर्तियों की राजनीति तो हमेशा से रही है. पहले वह नेताओं तक थी, फिर जातियों की बात शुरू हुई तो अपनी-अपनी जातियों के महापुरुष खोजे जाने लग गए. जिससे जातिगत अहं संतुष्ट किया जा सके. जनता में इस भाव को बल मिल सके कि हमारी जो जाति है उसका भी देश बनाने में, समाज बनाने में पूरा योगदान रहा है. 

उदाहरण के तौर पर देखिए तो जब बसपा की सरकार बनी तो लोगों को पता चला कि शहीद ऊदा देवी, बिजली पासी भी थे जिन्होंने अपना जीवन देश सेवा में लगाया. दूसरी पार्टियों ने भी इसे देखा और सोचा अच्छा विचार है. इसी के साथ महापुरुषों के जन्मदिवस या पुण्यतिथि पर छुट्टियों का मामला शुरू हुआ, मूर्तियों का मामला शुरू हुआ. ब्राह्मणों को लुभाने के लिए श्री परशुराम की मूर्तियां लगाने का काम भी ऐसे ही शुरू हुआ.

मोटे तौर पर कहा जाए तो यह मामला जुड़ा हुआ है हमारे शैक्षिक विकास से. शिक्षा का स्तर बढ़ रहा है. जैसे ही यह और बढ़ेगा, और लोगों को समझ में आएगा कि हमारे लिए जरूरी क्या है. यह मूर्तियां जरूरी हैं या अस्पताल, स्कूल, यूनिवर्सिटी (व्यक्तिगत और सामाजिक विकास) आदि. जब तक बहुमत में यह क्लैरिटी नहीं आएगी, तब तक ऐसा ही चलता रहेगा. अगर हम पार्टियों को यह समझा दें कि हमें मूर्तियों से फर्क नहीं पड़ता तो शायद वह असली एजेंडे पर काम करना शुरू करें, जिसमें रोटी-कपड़ा-मकान की बात हो.

संतोष दुबे बताते गहैं कि परशुराम भगवान हैं. भगवान के नाम पर सेंटिमेंट डेवलप करना सबसे सरल होता है. माना जाता है कि परशुराम भगवान 'प्रो ब्राह्मणवादी' रहे हैं. जो पार्टी परशुराम को सपोर्ट करेगी, ब्राह्मण उस पार्टी को सपोर्ट कर सकता है. हालांकि, यह मूर्तियों की राजनीति चुनाव के 6 महीने पहले और बाद तक ही देखने को मिलती है. 

6. यूपी के किन क्षेत्रों में किस सवर्ण जाति का ज्यादा प्रभाव है?
2014 में और 2017 में जिस तादाद में भाजपा को वोट मिले, उस हिसाब से तो जातियों को डिवाइड करना व्यर्थ हो गया था. जातियों का प्रभाव कितना भी हो कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए. अगर कोई पार्टी उस पावर के साथ प्रदेश में कदम रखे तो वोट उन्हें ही मिलेंगे. क्या भाजपा का जादू बरकरार रहेगा? यह देखने वाली बात होगी. हालांकि, कोई क्षेत्रीय दल या जाति आधारित दल सेंध लगा पाए तो बात अलग है.

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7. सवर्णों को लुभाने के लिए पार्टियां क्या करती हैं?
संतोष बताते हैं कि सवर्ण जाति के लोगों को टिकट देना, नेताओं को मंच पर स्थान देना, यह सब जरूरी है किसी भी जाति को अपने पक्ष में करने के लिए. वहीं, मोदी ने सवर्णों के लिए जो निर्णय लिया वह एक बेंचमार्क साबित हुआ. उन्हें 10% आरक्षण दिया गया. आरक्षण का मूल मानक गरीब रहा है. पहले ऐसा होता था कि पूरी-पूरी जाति ही गरीब श्रेणी में आती थी, इसलिए उस पूरी जाती को आरक्षण दिया जाता था. लेकिन अब ऐसा नहीं है. ऐसे में यह 10 फीसदी आरक्षण बड़ी बात है. 

8. चारों पार्टियों के पास सवर्ण जातियों के बड़े नेता कौन हैं?
कांग्रेस में गांधी परिवार के अलावा, वाराणसी के त्रिपाठी परिवार का अच्छा वर्चस्व रहा है. इनमें रमापति त्रिपाठी आते हैं. हालांकि, 2022 की दृष्टि से कांग्रेस के पास कोई बड़ा चेहरा नहीं है. प्रमोद तिवारी भी दिग्गज नेताओं में आते हैं, लेकिन कांग्रेस ने कभी उन्हें प्रमोट नहीं किया, आगे नहीं बढ़ाया. 

भाजपा में योगी आदित्यनाथ, राजनाथ सिंह, रीता बहुगुणा जोशी, कलराज मिश्र, आदि नेता हैं. हालांकि, कलराज मिश्र अब एक्टिव नहीं हैं. लेकिन उनका प्रभाव आज भी कायम है. 

बसपा के पास अभी सतीश चंद्र मिश्र हैं. साथ ही पार्टी उनके ब्राह्मण सम्मेलन कर भी उन्हें लुभाने की कोशिश कर रही है.

सपा के पास ठाकुर नेताओं में पहले अमर सिंह का बड़ा कद हुआ करता था. बुंदेलखंड के भी कुछ ठाकुर नेता जो शुरुआत से मुलायम सिंह से जुड़े थे. राजा भैया भी सैद्धांतिक रूप से सपा के साथ थे, लेकिन वैचारिक रूप से नहीं. ऐसे में सपा के पास भी कोई बड़ा कैंडिडेट नहीं दिखता है.

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9. सभी पार्टियां एक दूसरे के साथ मुकाबला कैसे करती हैं?
उदाहरण के तौर पर मानिए 2017 में भाजपा यूपी में आने के पूरे प्लान में थी. इसके लिए उसने ओबीसी अध्यक्ष दिए. ओबीसी को पूरी तरह अपने पक्ष में रखने की कोशिश की. इसका फायदा यह हुआ कि भारी मात्रा में गैर यादव वोट भाजपा को मिले. 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान भी समाज में मोदी की स्वीकार्यता थी. ऐसे में भाजपा उभर कर आ रही थी. इसका फायदा भाजपा ने उठाया भी. और सबसे पहले बसपा को खत्म करने का काम किया. हर विधानसभा और लोकसभा में बसपा के बड़े नेताओं को तोड़कर भाजपा में लाया गया. इनमें कई ब्राह्मण थे. वहीं 80% गैर जाटव वोट भी भाजपा के पास आया. ऐसे में बसपा की ताकत खत्म कर दी गई. सभी पार्टियां ऐसे जीतने के लिए ऐसे काम करती हैं. 

10. सवर्ण जातियों में बाहुबलियों का क्या महत्व रहा है? क्या इनका रोल अभी भी है?
श्यामा प्रसाद मुखर्जी, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. हिमांशु बताते हैं कि पहले चुनाव आर्थिक मजबूती पर लड़ा जाता था. जो जितना मजबूत होता था, वैसे चुनाव लड़ता था. ऐसे में बाहुबलियों का वर्चस्व ज्यादा था. लेकिन पिछले 5 सालों में यह सिस्टम पूरी तरह खत्म होता दिख रहा है. कहने को तो हरिशंकर तिवारी, शिवकांत शुक्ला, राजा भैया जैसे बहुत बाहुबली हैं, जिनकी पहुंच भी बहुत है. लेकिन आमतौर पर अब यह सिस्टम खत्म हो गया है. 

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