Uttarkashi: देवडोली की विदाई से 10 साल तक नहीं आती कोई महामारी, जानें उत्तराखंड की इस अनूठी परम्परा के बारे में
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Uttarkashi: देवडोली की विदाई से 10 साल तक नहीं आती कोई महामारी, जानें उत्तराखंड की इस अनूठी परम्परा के बारे में

उत्तरकाशी जनपद में कंडार देवता पर लोगों का बहुत आस्था और विश्वास है. कंडार देवता रे दर्शन मात्र से ही भक्तों की रक्षा होती है. लोग यहां आकर कंडार देवता की देवडोली की पूजा अर्चना करते हैं. उत्तरकाशी बाड़ाहाट क्षेत्र के अंतर्गत संग्राली, पाटा और बग्याल गांव में माता को विदा करने की परंपरा 34 वर्ष बाद...

Uttarkashi (File Photo)

हेमकान्त नौटियाल/ उत्तरकाशी: उत्तरकाशी जनपद में कंडार देवता पर लोगों का बहुत आस्था और विश्वास है. कंडार देवता रे दर्शन मात्र से ही भक्तों की रक्षा होती है. लोग यहां आकर कंडार देवता की देवडोली की पूजा अर्चना करते हैं. उत्तरकाशी बाड़ाहाट क्षेत्र के अंतर्गत संग्राली, पाटा और बग्याल गांव में माता को विदा करने की परंपरा 34 वर्ष बाद एक बार फिर शुरु की गई. क्षेत्र के आराध्य देव कंडार देवता की देवडोली के सानिध्य में माता की एक छोटी सी डोली बनाई जाती है. जिसे विशेष पूजा अर्चना के बाद तीनों गांव के बाहर छोड़ दिया जाता है. जिससे कि गांव में कम से कम दस वर्ष तक मनुष्यों और मवेशियों पर किसी महामारी का प्रकोप नहीं होता है. 

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उत्तराखंड की देवभूमि में देवडोलियों की एक समृद्ध सांस्कृति की विरासत है. यहां आज भी बड़ी-बड़ी समस्याओं का समाधान देवडोलियां करती हैं. संग्राली सहित पाटा, बग्याल गांव में माता को विदा करने की परंपरा को 34 वर्ष बाद ग्रामीणों ने दोबारा शुरु किया.  ग्रामीण बताते है कि पुराने समय में ग्रामीण क्षेत्रों में खसरा, हैजा सहित मवेशियों पर खुरपा जैसी महामारियों का प्रकोप होता था. इन बिमारियों को उस समय माता कहा जाता था.  इससे बचने के लिए कंडार देवता की देवडोली के सानिध्य में माता की एक छोटी सी डोली बनाई जाती थी.  

पंचायती चौके में विशेष पूजा अर्चना के बाद माता की डोली को गांव के बाहर सीमा पार छोड़ दिया जाता था. जिस पंरपरा को दोबारा शुरु किया गया. कंडार देवता की डोली ने गांव के चारों और सीमाओं को बांधा. उसके बाद ग्रामीणों ने माता की डोली को श्रीफल आदि के साथ सीमा के बाहर पूजा पाठ कर छोड़ आए. 
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इन दिनों गांवों में पशुओं में लंपी वायरस सहित अन्य बीमारियों का प्रकोप है. इसलिए इस परंपरा को दोबारा शुरु किया गया. बुजुर्गों का कहना है कि उन्होंने प्रत्यक्ष प्रमाण देखे हैं कि इस पंरपरा को निभाने के बाद गांव में कम से कम दस वर्ष तक किसी महामारी का प्रकोप नहीं होता है. 

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