बिरसा मुंडा जयंती: आदिवासियों के हक के लिए लड़ी थी लड़ाई, 25 साल से भी कम रहा सफर
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बिरसा मुंडा जयंती: आदिवासियों के हक के लिए लड़ी थी लड़ाई, 25 साल से भी कम रहा सफर

15 नवंबर 1875 को बृहस्पतिवार के दिन शुभना मुंडा के घर में एक किलकारी गूंजी चूंकि बृहस्पतिवार को बिरसावार कहा जाता है इसीलिए बच्चे का नाम रखा गया बिरसा.

फाइल फोटो.

कुलदीप नागेश्वर पवार/नई दिल्ली: आज जिस पुण्य आत्मा के तेज ने पूरे देश में  जन जातीय गौरव दिवस की आलौकिक छठा बिखेरी है, उस हुतात्मा का नाम है भगवान बिरसा मुंडा. आज पूरा देश इनकी जयंती हर्षोल्लास से मना रहा है. भगवान बिरसा मुंडा, जिन्होंने अपने जीवन के 25 वर्ष भी पूरे नहीं किए और इस देश की अखंडता, इसकी गौरवशाली संस्कृति, जनजातीय परंपरा, रीति-रिवाजों के संरक्षण के लिए स्वयं के सर्वस्व जीवन को राष्ट्राय स्वाहा कर दिया. 

एक सामान्य गरीब परिवार में जन्म लेकर, अभावों के बीच रहकर भी किसी का भगवान हो जाना कोई सामान्य बात नहीं है और ना ही सामान्य था वो दुर्लभ संयोग. जिसमें भगवान बिरसा ने एक सामान्य जनजातीय बालक से भगवान तक की इस मानसिक व शारीरिक यातनाओं से भरी इस यात्रा को पूर्ण किया. वैसे देखा जाए तो इंसान के भगवान बनने की जो प्रक्रिया है, वो हमारी संस्कृति में सदियों से एक शाश्वत प्रवाह के साथ बहती हुई आयी है, जिसमें कई दिव्य आत्माओं ने अपना जीवन वंचितों के लिए, अभावग्रस्त लोगों के लिए, धर्म के लिए, संस्कृति के लिए जिया. इसमें भगवान राम, श्रीकृष्ण, भगवान महावीर, भगवान बुद्ध और गुरु नानक देव समेत कई नाम शामिल हैं. इन्होंने धर्म की रक्षार्थ, राष्ट्र और संस्कृति की रक्षार्थ अपने प्राण तक देने में संकोच नहीं किया. भगवान बिरसा मुंडा भी इसी पथ के अनुगामी थे. आइये आज भगवान बिरसा मुंडा की जयंती पर जानते है उनके जीवन के कुछ कालखंडों को...

क्यों नाम पड़ा बिरसा?
साल था 1875 का. 1850 में योजनाबद्ध तरीके से ईसाई मिशनरी का काम जो बहुत तेजी से चलना प्रारंभ हुआ था. अब वह अपने चरम पर था और अपनी यातनाओं और कड़े कानूनों के बूते तेजी से वे जनजातीय क्षेत्रों में धर्मान्तरण करते जा रहे थे. इन्हीं सब परिस्थितियों में 1875 में कुलिहातु गांव (उस समय में रांची जिला था, वर्तमान में ऊटी जिला) में 15 नवंबर 1875 को बृहस्पतिवार के दिन शुभना मुंडा के घर में एक किलकारी गूंजी चूंकि बृहस्पतिवार को बिरसावार कहा जाता है. इसीलिए बच्चे का नाम रखा गया बिरसा. 

बाल्याव्स्था से ही तेजस्वी बिरसा सबके लिए आकर्षण का केंद्र थे. बालक बिरसा की प्राथमिक शिक्षा लूथेरियन मिशन के विद्यालय हुई, जिसके बाद माध्यमिक शिक्षा के लिए जायबासा के एक जर्मन मिशन के होस्टल में दाखिल कराया गया. जहां वे एक जर्मन मिशन के स्कूल में पढ़े. जिसे ईसाई मिशनरी संचालित करते थे. चूंकि अंग्रेजी सरकार में दबाव के चलते बालक बिरसा के माता-पिता को भी ईसाई धर्म स्वीकार करना पड़ा था. इसके चलते उन्हें भी ईसाई धर्म स्वीकारना पड़ा. 

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बालक बिरसा मुंडा के मन में जब उठे क्रांतिकारी विचार
जब बालक बिरसा 12-13 वर्ष  की आयु में थे और माध्यमिक शिक्षा ग्रहण कर रहे थे. उसी दौरान वह देखते थे कि स्कूल के जो प्राध्यापक और पादरी है, जो ईसाई समाज के धर्म प्रचारक है. वह मुंडानी परंपरा, सनातन धर्म और जनजतीय परंपरा और प्रथाओं की लगातार आलोचना करते थे. उनका मजाक उड़ाते थे. जनजतीय समाज के आदिवासी लोगों को वह जाहिल कहते. उनकी परम्पराओं को गंवार परंपरा कहते. उनको विज्ञान से दूर कहते थे, उनको अशिक्षित व पिछड़ा कहते थे. ये सारी चीजें बालक बिरसा के मन पर आघात करती थी और धीरे-धीरे उनके मन में से इनका जवाब निकलना शुरू हुआ.

इन्हीं परिस्थितियों के बीच में मिशनरियों के कुकृत्यों के विरोध में मुंडानी सरदारों को विरोध भी उत्कर्ष पर था. जिसका सीधा क्रांतिकारी प्रभाव बिरसा पर पड़ रहा था. उन्होंने प्रत्यक्ष देखा कि ये विदेशी गोरे और ईसाई मिशनरी उनकी जो जनजतीय मुंडानी परंपराएं है. इन्हें पूर्णतः समाप्त करने के लिए षड्यंत्र किए जा रहे हैं. उन्हें ईसाई धर्म में ले जाकर धीरे-धीरे सामाजिक, धार्मिक, नैतिक और मानसिक रूप से हमारा परिवर्तन करना चाहते है. इस षड्यंत्र को बालक बिरसा ने महज 14-15 वर्ष की आयु रही होगी, जब पहचाना और इसका प्रतिरोध करना प्रारंभ किया. जिसके बदले में उन्हें वहां के जर्मन विद्यालय के हॉस्टल से उनको निकाल दिया गया. 

युवा धर्मोपदेश बाबा बिरसा का सनातन धर्म में पदार्पण
साल 1890 में 15 वर्ष की आयु में धर्म रक्षार्थ अपनी शिक्षा छोड़ने के बाद बालक बिरसा ने समग्र विचारों को विस्तार से समझने का संकल्प किया. इसके बाद आने वाले 5 साल (1890-95 तक) बालक बिरसा ने धर्म, नीति, दर्शन, वनवासी रीति रिवाज, मुंडानी परंपराओं का गहराई से अध्ययन किया. इसके साथ ही ईसाई धर्म और ब्रिटिश सरकार की नीतियों का भी गहराई से अध्ययन किया. इसके बाद उसके सार रूप में उन्होंने कहा - "साहब-साहब टोपी एक!" अपनी 20 वर्ष की आयु होते-होते 1895 तक वह पूरी तरह से ईसाई मिशनरी के षड्यंत्र को समझ गए थे. इसके बाद उन्होंने हिंदू परम्पराओं, भारतीय सनातन परम्पराओं का अध्ययन किया.

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हिंदू धर्म ग्रंथों के गहन अध्ययन के बाद भगवान बिरसा मुंडा ने ईसाई धर्म को पूर्णतः त्याग करके अपने सनातन हिंदू धर्म को, अपने वनवासीय संस्कृति को आगे बढ़ाने का निर्णय किया.अगले कुछ ही सालों में वह जनजतीय क्षेत्र में एक धर्मोपदेशक के रूप में विख्यात हो गए. जिसके कारण ब्रिटिश सरकार और ईसाई मिशनरियों की आंखों में वह और ज्यादा खटकने लगे. समय के साथ-साथ बाबा बिरसा मुंडा के अनुयायियों के तादाद में वृद्धि होती गई. साल 1886-1887 आते-आते बड़ी संख्या में ऐसे वनवासीय लोग जिन्होंने 1850-1885 तक विभिन्न यातनाओं के चलते जबरिया ईसाई धर्म अपनाया थे वे भी अब भगवान बिरसा मुंडा के अनुयायी बनकर हिंदू धर्म में दीक्षित होने लगे. 

जनजतीय समाज के लिए जब जीवनदाता बन गए भगवान बिरसा
अपनी 20-22 वर्ष की अल्प आयु में मुंडानी, जनजतीय परंपरा के पथप्रदर्शक व सनातन धर्मोपदेश के रूप में विख्यात हो चुके भगवान बिरसा मुंडा ने धर्म के साथ आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति का भी अध्ययन किया था. इसके चलते साल 1899 में पड़े अकाल के दौरान फैले चेचक महामारी के प्रकोप से जनजतीय बंधुओं की रक्षा की. उस समय भीषण महामारी के बीच लोगों में विश्वास हो चला कि चेचक जैसी बीमारी में भी बाबा बिरसा मुंडा के छू लेने भर से ही उनकी बताई कुछ दवाइयों भर से ही हम ठीक हो जाते है.  इसलिए धीरे-धीरे जनमानस में उनके भगवान होने या एक अवतारी पुरुष होने का स्वरूप विस्तारित होता चला गया. 

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उलगुलान की घोषणा, डोम्बारी की पहाड़ियों का भीषण नरसंहार
ब्रिटिश आततायियों और ईसाई मिशनरियों की यातनाओं को सहते हुए साल 1900 के आते हुए जनजतीय क्षेत्रों के लोगों की हिम्मत जवाब दे गई. 8 जनवरी 1900 का जब डोम्बारी की पहाड़ी पर भगवान बिरसा मुंडा ने ब्रिटिश साम्राज्य व ईसाई मिशनरियों के खिलाफ उलगुलान (सम्पूर्ण क्रांति) की घोषणा कर दी. डोम्बारी की पहाड़ी पर अपने हजारों अनुयायियों के साथ एकत्रित होने की खबर ब्रिटिश सरकार के कानों तक पहुंच चुकी थी. नतीजतन डोम्बारी की पहाड़ी पर भगवान बिरसा मुंडा और उनके अनुयायियों को घेर लिया गया. भीषण नरसंहार शुरू हुआ. गोरे सिपाहियों ने गोद में दुधमुंहे बच्चे को लिए आयी माताओं तक को नहीं छोड़ा. इतिहास के पन्नों पर इस भीषण नरसंहार को अंग्रेजी हुकूमत के इसमें बताए मौत के आंकड़ों (251मौत) की तरह एकदम छोटा सा बना दिया गया, लेकिन हकीकत तो ये है कि हजारों निहत्थे जनजतीय बच्चों, युवाओं, माताओं-बहनों और वृद्धजनों ने अपनी संस्कृति, परम्पराओं और रीति रिवाजों के संरक्षण के लिए अपने प्राणों का बलिदान इस नरसंहार में कर दिया था.

राष्ट्रपिता गांधी ने अपनाया था भगवान बिरसा का नारा
डोम्बारी की पहाड़ियों पर हुई उलगुलान की घोषणा के बाद जब भगवान बिरसा मुंडा को उनके हजारों अनुयायियों के साथ ब्रिटिश सेना ने चारों ओर से घेरकर उद्घोषणा की- 'आप अभी भी अंग्रेजों की, ब्रिटेन सरकार की परतंत्रता को स्वीकार करते हैं. अगर आप अभी भी ईसाई मिशनरियों के साथ मिलकर ईसाई धर्म को स्वीकार करते हैं, तो आपको छोड़ दिया जायेगा.' उसके जवाब में बाबा बिरसा और उनकी अनुयायियों की ओर से कहा गया-  'गोरे अंग्रेजों वापस अपने देश चले जाओ, हमारा स्थान छोड़ करके चले जाओ.' ये बाबा बिरसा का नारा था. जिसे बाद में 'अंग्रेजों भारत छोड़ो'  के रूप में गांधी ने 1940 दशक में दोहराया.

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जेल में हुई शहादत
डोम्बारी की पहाड़ियों से ब्रिटिश सेना की गोलियों के बीच से भगवान बिरसा मुंडा सकुशल निकल गए. इसके बाद उनकी तलाश में उनके अनुयायियों के ऊपर अंग्रेजों ने यातनाओं की पराकाष्ठा कर दी. अंग्रेजी हुकूमत ने बाबा बिरसा पर 500 रुपये का नगद व कई दूसरे प्रलोभन उन्हें पकड़वाने में बतौर इनाम देने की घोषणा की. परिणामस्वरूप रात्रि विश्राम के समय उनकी कुटिया को घेर करके 3 फरवरी 1900 को भगवान बिरसा मुंडा को गिरफ्तार कर लिया गया. भगवान बिरसा समेत उनके 842 साथियों पर मामले में कड़ी कार्यवाही हुई. इसमें बाबा बिरसा के कई साथियों को फांसी पर चढ़ा दिया गया.

अंग्रेजी सरकार भगवान बिरसा मुंडा को किसी भी हालत में जीवित नहीं रखना चाहती . लिहाजा फरवरी से ही जेल में उन पर यातनाओं का दौर चला. षड्यंत्र पूर्वक उन्हें धीमा जहर दिया जाने लगा. 20 मई 1900 से जेल में बाबा बिरसा से जेल में मिलने से सभी को रोक दिया गया और उनके स्वास्थ्य की खबरें भी आना बंद हो गईं. अचानक 1 जून को अंदर के कुछ माध्यमों से ये खबर आयी कि बाबा बिरसा की तबीयत बहुत ज्यादा खराब है. चूंकि उनको लगातार धीमा जहर दिया जा रहा था. अचानक 9 जून को ब्रिटिश सरकार के जेल में लगातार उनको दिए गए धीमे जहर के परिमाण स्वरूप उनकी मृत्यु हो गई.

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ब्रिटिश सरकार ने घोषणा करते हुए बताया कि बाबा भगवान बिरसा मुंडा अब अपना शरीर त्याग चुके हैं. वो आज ही का दिन था 9 जून 1900. बाबा बिरसा बलिदान देकर और मातृभूमि, अपने वनवासियों के स्वाभिमान, संस्कृति और राष्ट्र की स्वतंत्रता की अलख जगाते हुए अपना सर्वस्व न्योछावर कर गए. आज के परिपेक्ष्य में भगवान बिरसा मुंडा के विचारों को जीवित रखते हुए जनजतीय संस्कृति, परम्पराओं और रीति रिवाजों को संरक्षित करते हुए, वनवासीय बंधुओं को ईसाई मिशनरियों से सुरक्षित रखना ही भारत माता के इस सच्चे सपूत के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी. 

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