बटुकेश्वर दत्त ने अपने क्रांतिकारी जीवन में उग्रवादी(गरम) दल के सभी नेताओं के साथ काम किया. शहीद-ए-आजम भगतसिंह और उनकी गहरी दोस्ती के किस्से उन दिनों खूब चर्चा में थे. बटुकेश्वर दत्त के व्यक्तित्व को पहचान मिली 8 अप्रैल 1929 को भगतसिंह के साथ ब्रिटिश पार्लियामेंट (दिल्ली) में बम फेंकने के बाद हुई गिरफ्तारी से...
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कुलदीप नागेश्वर पवार/नई दिल्ली: स्वाधीनता प्राप्ति के लिए देश के अलग-अलग हिस्सों में क्रांतिकारियों द्वारा उस समय अपने-अपने स्तर पर प्रयोग किए जा रहे थे. एक धड़ा था जो याचना और अहिंसा के मार्ग को अपनाकर स्वाधीनता का स्वप्न देखता था, तो वहीं दूसरी ओर एक मतवालों का टोला था जिसका स्पष्ट लक्ष्य था- "पूर्ण स्वराज". बिना किसी शर्त के अंग्रेज हमारे हिंदुस्तान को छोड़ कर चले जाएं. बस इससे ज्यादा इस पर कोई बात वो किसी से करने को राजी नहीं थे. इन दो विचारधाराओं ने आजादी प्राप्ति के संघर्ष को दो दलों में बांट दिया था- गरम दल और नरम दल.
दोनों ही स्वाधीनता के लिए अपना-अपना काम कर रहे थे, लेकिन जहां नरम दल के नेताओं की गतिविधियों से अंग्रेजों को भयमुक्त कर दिया था, वहीं गरम दल की एक-एक चाल और उनकी अंजाम दी हुई एक-एक घटना अंग्रेजी शासन की नींव को ध्वस्त कर देती थी. नतीजन गरम दल को लेकर गोरों में एक खौफ पैदा हो गया था. और इसी गरम दल के बहादुर सिपाही थे बटुकेश्वर दत्त.
बम, बंदूक, गोली जब बन गए बटुकेश्वर के जीवन का हिस्सा
18 नवम्बर, 1910 को बंगाल के औरी गांव के एक कायस्थ परिवार में जन्में बटुकेश्वर दत्त देश के उन लोकप्रिय क्रांतिकारियों में से रहे है, जिनकी बहादुरी के किस्से आप सुनते आए है लेकिन आज हम भारत माता के इस लाडले के जीवन के उस पहलू को आपके सामने रखेंगे जिससे देश का एक बड़ा हिस्सा अनजान है. बटुकेश्वर दत्त का परिवार मूलत: बंगाल का निवासी था, लेकिन उनके पिता गोष्ठ बिहारी दत्त कानपुर में नौकरी करते थे. विद्या अर्जन के उद्देश्य से कानपुर आए बटुकेश्वर दत्त ने 1924 में मैट्रिक की परीक्षा पास की और कानपुर के पी.पी.एन. कॉलेज से स्नातक पूरी की. इसी दौरान बटुकेश्वर दत्त सरदार भगतसिंह और चन्द्रशेखर आज़ाद के सम्पर्क में आए और क्रान्तिकारी संगठन ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन’के सदस्य बन गए. इसके बाद वे आजादी के रंग में ऐसे रंगे की अंग्रेजों से आंख में चोली और बम,बंदूक,गोली उनके जीवन का हिस्सा हो गए. अब तक बटुकेश्वर दत्त ने बम बनाने में महारथ हासिल कर चुके थे.
भगत सिंह से दोस्ती के बाद किया असेंबली बम कांड
बटुकेश्वर दत्त ने अपने क्रांतिकारी जीवन में उग्रवादी(गरम) दल के सभी नेताओं के साथ काम किया. शहीद-ए-आजम भगतसिंह और उनकी गहरी दोस्ती के किस्से उन दिनों खूब चर्चा में थे. बटुकेश्वर दत्त के व्यक्तित्व को पहचान मिली 8 अप्रैल 1929 को भगतसिंह के साथ ब्रिटिश पार्लियामेंट (दिल्ली) में बम फेंकने के बाद हुई गिरफ्तारी से. उन दिनों ब्रिटिश पार्लियामेंट में पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल लाया गया था जिसका मकसद क्रांतिकारियों पर प्रतिबंध लगाना था. जिसका विरोध भगतसिंह और उनके साथी क्रांतिकारियों ने खुलकर किया. उग्रवादी दल के मतवालों का मानना था कि - "बहरी अंग्रेजी सरकार को सुनाने के लिए धमाका जरूरी है."
लाहौर षड्यंत्र में बटुकेश्वर को मिली काले पानी की सजा, भगतसिंह झूले फांसी पर
बम धमाके में गिरफ्तारी हुए बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह को 12 जून 1929 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई. जिसके बाद इन्हें लाहौर फोर्ट जेल में डाल दिया गया. 30 अक्टूबर, 1928 को साइमन कमीशन के विरोध में अंग्रेजों की लाठियों से घायल होने के बाद 17 नवंबर,1928 को वीरगति को प्राप्त हुए लाला लाजपत राय की मौत के बदले के रुप में 17 दिसंबर,1928 को भगतसिंह,राजगुरु और सहदेव ने ब्रिटिश पुलिस के अफसर सांडर्स को गोली से उड़ा दिया. नतीजन जेल में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त पर लाहौर षडयंत्र केस चलाया गया. जिसमें भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा दी गई और बटुकेश्वर दत्त को आजीवन यातनाओं को झेलने के लिए कारावास के लिए कालापानी की सजा दी गई. जहां बटुकेश्वर दत्त के जेल में भूख हड़ताल करने के चलते 1937 में वे बांकीपुर सेंट्रल जेल, पटना शिफ्ट कर दिया.
आजादी के बाद भी करते रहे संघर्ष, ना काम मिला ना इलाज
1938 में बटुकेश्वर दत्त रिहा तो हो गए लेकिन बिना स्वाधीनता चैन कहा, वे गांधी के चलाए असहयोग आंदोलन का हिस्सा बन गए. जिसके चलते फिर चार की जेल यात्रा करनी पड़ी. बटुकेश्वर दत्त का पूरा जीवन आजादी के संघर्ष के लिए समर्पित हो चुका था. 1945 में वह जेल से रिहा हुए और 1947 में देश को आजादी मिल गई. लेकिन बटुकेश्वर दत्त का संघर्ष अब भी खत्म नहीं हुआ. स्वाधीनता के लिए अपना संपूर्ण जीवन काल कोठरी में खपाने वाले इस योद्धा के त्याग और समर्पण का कर्ज आजाद भारत के लोग नहीं चुका सकें और बटुकेश्वर दत्त आजादी के बाद गुमनामी का जिंदगी बसर करने को मजबूर हो गए. पहले तो किसी काम की तलाश में शहर-शहर सड़कों की धूल छानी और जब 1964 में जेल की यातनाओं से बदहाल सेहत और शरीर ने जवाब दे दिया तो इलाज के लिए भी लाचार हो गए. बाद में पटना के सरकारी अस्पताल में उनकी दयनीय स्थिती को देखते हुए उनके मित्र चमनलाल आजाद ने एक कटाक्ष भरा पत्र सत्ता में बैठे नेताओं को लिखा जिसके बाद कहीं उन्हें उपचार के लिए 22 नवंबर 1964 में दिल्ली लाया गया लेकिन तब तक उनका स्वास्थ्य काफी गिर चुका था.
आखिरी वक़्त तक बटुकेश्वर को रहा देश के लिए शहीद न होने का मलाल
बटुकेश्वर दत्त को उम्र भर इस बात का मलाल था कि वे अपने दोस्त भगतसिंह के साथ फांसी पर नहीं चढ़ सके. जब दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में बटुकेश्वर दत्त को भर्ती किया गया तो उनके शब्द थे -"मुझे स्वप्न में भी ख्याल न था कि मैं उस दिल्ली में जहां मैने बम डाला था, एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लाया जाउंगा." दत्त अब कैंसर के असहनीय दर्द से जूंझ रहे थे. लगातार उनकी गिरती सेहत को देखते हुए 11 दिसंबर को उन्हें एम्स में भर्ती कर दिया गया. भगतसिंह की मां विद्यावती से बटुकेश्वर दत्त का विशेष लगाव था. भगतसिंह के फांसी के बाद मां विद्यावती भी उन्हें अपने बेटे भगतसिंह सा ही स्नेह रखती थी. अपने जीवन के अंतिम दिनों में बटुकेश्वर दत्त ने इच्छा जाहिर कि - "मेरा दाह संस्कार मेरे मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में किया जाए." 17 जुलाई 1965 को बटुकेश्वर दत्त कोमा में चले गये और 20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर 50 मिनट पर मां भारती के इस लाल ने इस दुनिया से विदाई ले ली. उनकी इच्छानुसार ही भारत-पाक सीमा के करीब हुसैनीवाला में भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव की समाधि के निकट बटुकेश्वर दत्त का दाह संस्कार किया गया.
राष्ट्राय स्वाहा का जज्बा रखने वाले क्रांतिकारी मतवालों का इतिहास पूरे विश्व में सिर्फ केवल पुण्य भारत भूमि में ही है, लेकिन दुखद है कि आज भी हम उनकी शहादत और राष्ट्र के लिए उनके त्याग को वो सर्वोच्च सम्मान नहीं दे सकें है जिसके वो हकदार है. आजादी के इस मतवाले को कोटि-कोटि प्रणाम.
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