Muzaffarnagar: मुजफ्फरनगर जिले की रहने क्रांतिकारी शालू सैनी लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार करती हैं. उनका दावा है कि तीन सालों में उन्होंने करीब 500 शवों के अंतिम संस्कार किए हैं.
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नीरज त्यागी/मुजफ्फरनगर: लावारिस लाशों के मसीहा कहे जाने वाले अयोध्या के समाजसेवी मोहम्मद शरीफ को हर कोई जानता है. ऐसी ही एक महिला उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में भी है, जिन्होंने कोविड संक्रमण के फर्स्ट वेव से लेकर अब तक 500 से भी ज्यादा लावारिस शवों का अंतिम संस्कार किया है. हम बात कर रहे हैं मुजफ्फरनगर की क्रान्तिकारी शालू सैनी की. शालू साक्षी वेलफेयर ट्रस्ट नाम की एक संस्था भी चलाती हैं. जिसकी वह राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. वे अपनी संस्था के चलते सामाजिक कार्यों से हमेशा जुड़ी रहती हैं.
पूरे विधि-विधान से करती हैं अंतिम संस्कार
शालू सैनी उस समय पहली बार सुर्खियों में आई थीं, जब पहले कोरोना काल में लोगों की मौतें हो रही थीं. हाल कुछ ऐसा था कि अपने ही अपनों का साथ छोड़ते नजर आ रहे थे. उस समय शालू ने अपनी संस्था के अन्य 4 सदस्यों के साथ मिलकर कोरोना से मरने वाले लोगों का पूरे विधि-विधान से अंतिम संस्कार करना शुरू किया. शालू की माने तो कोरोना काल में उन्होंने कोविड संक्रमण से मरने वाले तकरीबन 150 से 200 लावारिस शवों का अंतिम संस्कार किया था. लावारिस शवों के अंतिम संस्कार का यह सिलसिला अभी भी जारी है.
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अब तक करीब 500 लावारिस शवों का कर चुकीं अंतिम संस्कार
शालू का दावा है कि वह अभी तक लगभग 500 लावारिस शवों का अंतिम संस्कार कर चुकी हैं. इसके साथ ही पूरे विधि-विधान से उनकी अस्थियों को जनपद में शुक्रताल स्थित गंगा में अर्पण करती हैं. शालू के इस सराहनीय कदम को देखते हुए अब पुलिस प्रशासन भी उनकी मदद लेता है. जनपद में अब जो भी लावारिस शव मिलता है, उसके अंतिम संस्कार के लिए पुलिस शालू से संपर्क करती है. शालू के इस काम के चलते उनका नाम इण्डिया बुक ऑफ रिकॉर्ड में भी दर्ज हो चुका है.
इसलिए लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार करने की ठानी
एक महिला होकर अंतिम संस्कार करने के सवाल पर शालू ने कहा कि हिंदू धर्म के किसी ग्रंथ में कहीं नहीं लिखा कि महिलाएं श्मशान घाट नहीं जा सकती हैं. ना ही मैं ऐसी बातों को मानती हूं. मेरे हिसाब से जो एक पुरुष कर सकता है, वह एक महिला भी कर सकती है. एक घटना का जिक्र करते हुए कहा कि कोरोना काल में हमने एक वीडियो देखा था, जिसमें मृतकों की अस्थियां भी श्मशान घाट के बाहर रखी थीं. उनको कोई ले जाने वाला नहीं था. तब से यह प्रण लिया कि हम लोग लावारिस शवों का अंतिम संस्कार उनका परिवार बनकर करेंगे.
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शासन-प्रशासन से नहीं मिलती मदद
शालू ने आगे कहा कि वैसे तो हमारी टीम में कई सदस्य हैं, लेकिन इस काम को केवल पांच लोग करते हैं. अंतिम संस्कार में जो भी खर्च आता है वह आपस में बांट लेते हैं. इसके लिए हम लोगों को शासन-प्रशासन की तरफ से कोई मदद नहीं मिलती है.
गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में भी चुना गया नाम
शालू ने बताया, "मेरा नाम इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड में भी दर्ज हुआ है. उसका अवार्ड भी मुझे मिला है. इसके अलावा गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में भी मुझे चुन लिया गया है. लेकिन अभी तक अवार्ड नहीं मिला है. इस काम को करते हुए 3 साल हो चुके हैं. भगवान की अगर इच्छा रही तो अपने अंतिम समय तक मैं इसी काम को करती रहूंगी."
मृतकों के आत्मा की शांति के लिए करती हूं हवन
शालू ने आगे कहा कि लावारिस लोगों का अंतिम संस्कार कर मुझे ऐसा लगता है कि मेरा उनसे कोई पुनर्जन्म में रिश्ता रहा होगा. मैं उनका अंतिम संस्कार अपने परिवार का सदस्य समझकर करती हूं. हमारे हिंदू धर्म में अस्थियों का विसर्जन का बहुत महत्व माना गया है. कहते हैं मृतक को तभी मुक्ति मिलती है, जब अस्थियों का विसर्जन हो जाता है. इसलिए मैं तीसरे दिन श्मशान घाट में आकर सारी अस्थियों को ले जाती हूं. इसके बाद शुक्रताल जाकर अस्थियों का विसर्जन करती हूं. उसके बाद आत्मा की शांति के लिए हवन करती हूं.
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शालू ने बताया कि अभी तक दूसरे धर्म का कोई अंतिम संस्कार नहीं किया है. अगर कोई ऐसा आता है तो जिस तरह पूरे रीति-रिवाज के अनुसार हिंदू का अंतिम संस्कार करते हैं. उसी तरह सिख, इसाई या मुस्लिमों का भी अंतिम संस्कार करेंगे. अगर हमे किसी मुस्लिम का अंतिम संस्कार करना हुआ, तो हम इस्लाम के हिसाब से ही क्रिया करेंगे.
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