पारंपरिक रीति-रिवाजों के साथ इस दिन हरेला को अपने घर से गाँव के मंदिर में लाया जाता है. जहाँ पर सभी ग्रामीण अपने हरेला को लाकर मंदिर में चढ़ाते है. इस दौरान गाँव के बुजुर्ग सभी को आशीर्वाद देते हैं.
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उत्तराखंड: पहाड़ी संस्कृति और वहां के त्यौहारों की बात ही निराली होती है. उत्तराखंड में सुख समृद्धि, पर्यावरण संरक्षण और प्रेम का प्रतीक हरेला लोक पर्व कुमाऊं क्षेत्र में बड़े ही उत्साह के साथ मनाया गया. सावन महीने के पहले दिन इस लोक पर्व में उत्तराखंड के गांवों में खूबसूरत पारंपरिक झांकी दिखाई दी.
बुजुर्गों के सम्मान और प्रकृति पूजा से जुड़ा है हरेला
पारंपरिक रीति-रिवाजों के साथ इस दिन हरेला को अपने घर से गाँव के मंदिर में लाया जाता है. जहाँ पर सभी ग्रामीण अपने हरेला को लाकर मंदिर में चढ़ाते है. इस दौरान गाँव के बुजुर्ग सभी को आशीर्वाद देते हैं. हरेला को मंदिर में लाने के बाद काट दिया जाता है और फिर उसे अपने सर पर रखते हैं. स्थानीय लोग बताते हैं कि इस पर्व में बुजुर्ग सभी की सुख-समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं.
हरेला का वैज्ञानिक महत्व
कुमाऊं में हर साल सावन माह से पहले हरेला पर्व शुरू हो जाता है. जब किसी बर्तन या टोकरी में मिट्टी में अपने पारंपरिक अनाजों को बो देते हैं. ये अनाज आषाढ़ माह में हरेला पर्व से ठीक 10 दिन पहले बोया जाता है फिर हरेला पर्व से पहले इसकी गुड़ाई की जाती है. इस समय गेँहू, जौ,मक्का, धान, तिल के अनाजों को बोया जाता है. कहीं जगह 7 और 9 अनाज भी बोए जाते हैं. इस तरह बीजों की उत्पादक क्षमता का भी पता चल जाता है. हरेला पर्व में लोग अपने आस-पास पौधारोपण भी करते हैं.
सामाजिक समरसता का प्रतीक हरेला पर्व
हरेला पर्व के दिन घर-घर में पहाड़ी पकवान बनाए जाते हैं. सभी गांव के मंदिर में एकत्रित होकर इस पर्व को सामाजिक सद्भाव के साथ मानते हैं. कुमाऊं क्षेत्र के अल्मोड़ा, नैनीताल, बागेश्वर, चम्पावत और पिथौरागढ़ जिलों में ऋतु परिवर्तन और धन्य-धान्य की समृद्धि के लिए हरेला लोक पर्व मनाया जाता है.
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