नई दिल्ली: देश के स्कूलों में मदरसा पद्धति को लागू करने की कोशिश की जा रही है. कर्नाटक के उडुपि से शुरू हुई हिजाब (Hijab) पहनने की ज़िद ने अब आग की तरह दूसरे राज्यों के स्कूलों को भी अपनी चपेट में ले लिया है. 


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अब उत्तर प्रदेश से लेकर राजस्थान के स्कूल और कॉलेजों में भी मुस्लिम छात्राओं द्वारा हिजाब पहन कर Classes अटेंड करने की मांग की जा रही है. ये एक ऐसा सिलसिला है, जो किसी एक राज्य के स्कूल और कॉलेज तक सीमित नहीं रहेगा. क्या इसके जरिए भारत में स्कूलों का इस्लामीकरण करने की कोशिश की जा रही है. 


भारत में 1 लाख मदरसे


अनौपचारिक रूप से भारत में एक लाख से ज्यादा मदरसे हैं, जहां मुस्लिम छात्रों को पढ़ाई के बीच नमाज़ पढ़ने का अधिकार है. मुस्लिम छात्राएं हिजाब और बुर्का पहन कर मदरसों में पढ़ सकती हैं. लेकिन एक खास विचारधारा के लोग अब मदरसों वाले इसी मॉडल को उन स्कूलों में भी लागू कराना चाहते है, जो अब तक धार्मिक कट्टरवाद से बचे हुए थे.


इस समय धार्मिक कट्टरवाद की ये आग देश के कई स्कूलों और कॉलेजों में पहुंच चुकी है. मुस्लिम छात्राओं की हिजाब (Hijab) पहनने की ज़िद ने विस्फोटक रूप ले लिया है. अब तक कर्नाटक, उत्तर प्रदेश और मुम्बई से ऐसी ख़बरें आई थीं, जहां स्कूल और कॉलजों मे मुस्लिम छात्राओं की ओर से हिजाब पहन कर Classes अटेंड करने की मांग की जा रही थी. लेकिन अब ये मामला राजस्थान भी पहुंच चुका है.


जयपुर में भी पहुंचा हिजाब का बवाल


जयपुर के एक प्राइवेट कॉलेज का CCTV वीडियो शुक्रवार को वायरल हुआ, जिसमें 21 वर्षीय एक मुस्लिम छात्रा बुर्का पहन कर अपनी क्लास में प्रवेश करती हुई दिख रही है. कॉलेज प्रबंधन की दलील है कि पिछले 8 वर्षों से यहां छात्र-छात्राओं के लिए विशेष ड्रेस कोड लागू है. अब तक इस पर कभी विवाद नहीं हुआ था. कर्नाटक के घटनाक्रम से पहले तक यहां पढ़ने वाली सभी मुस्लिम छात्राएं बिना बुर्का और हिजाब के कॉलेज आ रही थीं.


हालांकि अब दूसरे राज्यों की तरह इस कॉलेज में भी मुस्लिम छात्राएं हिजाब (Hijab) पहन कर Classes अटेंड करने की मांग रही हैं. इनका कहना है कि ये संवैधानिक अधिकार उनसे कोई नहीं छीन सकता. इस मामले में स्कूल में पढ़ने वाली हिन्दू छात्राओं की ओर से विरोध जताया गया है और ये मामला पुलिस के पास भी पहुंच चुका है. सोचिए, कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिन कॉलेजों में पहले से ड्रेस कोड लागू है, अब वहां भी मुस्लिम छात्राएं इसे मानने से इनकार कर रही हैं.


ये मामला कर्नाटक के उडुपि में एक सरकारी इंटर कॉलेज से शुरू हुआ था, जिसे स्थानीय स्तर पर ही सुलझा लिया जाना चाहिए था. लेकिन एक खास विचारधारा के लोगों ने इसे साम्प्रदायिक रूप देने की कोशिश की. इस समय स्थिति ये है कि महाराष्ट्र, हैदराबाद, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में हिजाब (Hijab) की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं.



इस्लामिक संस्थाएं महिलाओं से करवा रहीं प्रदर्शन


हैरानी की बात ये है कि इन विरोध प्रदर्शनों का स्कूल में पढ़ने वाले छात्रों से कोई लेना देना नहीं है. बल्कि इस्लामिक संस्थाओं और मुस्लिम नेताओं की ओर से अलग अलग राज्यों में स्थानीय स्तर पर बड़े प्रदर्शनों का आयोजन किया जा रहा है. ऐसा ही एक प्रदर्शन महाराष्ट्र के मालेगांव में हुआ, जिसमें पुलिस की अनुमति के बिना हज़ारों की संख्या में बुर्का पहनी महिलाएं शामिल हुईं. 


इस मामले में पुलिस ने शिकायत दर्ज करके जांच शुरू कर दी है. लेकिन हमारा सवाल यहां विरोध प्रदर्शनों को लेकर नहीं है. हमारा सवाल उन 15 लाख स्कूलों में पढ़ने वाले 25 करोड़ बच्चों के भविष्य को लेकर है, जिन्हें धर्म की आग में धकेला जा रहा है.


इस मामले में कल कर्नाटक हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण आदेश दिया था. जिसमें ये बताया गया था कि जब तक अदालत हिजाब (Hijab) मामले में अपना अंतिम फैसला नहीं सुना देती, तब तक राज्य के सभी स्कूलों और कॉलेजों में छात्र और छात्राएं हिजाब और भगवा गमछा नहीं पहन सकते.  हाईकोर्ट अपने इस आदेश के आठवें और नौवें पाइंट में लिखा कि उसे इस बात का बेहद दुख है कि जब इस मामले की सुनवाई लम्बित है. उसके बाद भी कर्नाटक के स्कूल और कॉलेजों में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं और छात्राएं अपने धार्मिक परिधान में Classes अटेंड करने की ज़िद पर अड़ी हुई हैं.


'लोगों को मिले मौलिक अधिकार असीमित नहीं'


अदालत ने आगे कहा है कि भारत में अलग अलग धर्म के लोग और भाषाएं मौजूद हैं. इन विविधताओं के साथ भी भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, जो अपने नागरिकों को समान रूप से अपना धर्म चुनने और उसका पालन करने का अधिकार देता है. हालांकि ये संवैधानिक अधिकार असीमित नहीं है और इन पर ज़रूरत के मुताबिक़ कुछ प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं.


यानी संविधान ने देश के नागरिकों को समान मौलिक अधिकार तो दिए हैं लेकिन ये अधिकार असीमित नहीं है. देश की न्यायपालिका और सरकारें चाहें तो इस पर ज़रूरत के हिसाब से आंशिक प्रतिबंध लगा कर संविधान को व्यवाहरिक बनाए रखने का काम कर सकती हैं. यहां जो Point आपको समझना है वो ये कि हिजाब पहनने की ज़िद को संवैधानिक अधिकारों से जोड़ना पूर्ण रूप से सही नहीं है.


हाई कोर्ट ने अपने आदेश में लिखा कि क्लासरूम में मुस्लिम छात्राओं की ओर से हिजाब (Hijab) पहनना, इस्लाम धर्म में अनिवार्य है कि नहीं, इसका गम्भीरता से अध्ययन करने की ज़रूरत है.


इसके अलावा अदालत ने ये भी कहा है कि भारत एक सभ्य समाज है. यहां किसी भी व्यक्ति को ये आज़ादी नहीं है कि वो समाज में मौजूद शांति और सौहार्द को बिगाड़ने की कोशिश करे. मुस्लिम छात्राओं की ओर से किए जा रहे विरोध प्रदर्शन और इसकी वजह से स्कूलों को बन्द करना खुशी की बात नहीं है. इस पर सभी को सोचने की ज़रूरत है.


अब हमारा सवाल यहां उन मुस्लिम छात्राओं और संगठनों से है, जो संविधान और लोकतंत्र की बात करते हैं. क्या वो कर्नाटक हाई कोर्ट की इस बात को मानेंगे?


मदरसों और स्कूलों में क्या रह जाएगा अंतर


आज हम यहां एक और बड़ा मुद्दा ये उठाना चाहते हैं कि अगर देशभर के स्कूलों में धार्मिक कट्टरवाद को बढ़ावा दिया गया तो स्कूलों और मदरसों में क्या अंतर रह जाएगा?


केन्द्रीय अल्पसंख्यक मंत्रालय के अनुसार वर्ष 2018-2019 में देश में कुल मदरसों की संख्या लगभग 24 हज़ार थी. इनमें तब लगभग 5 हज़ार मदरसे ऐसे थे, जो सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं थे.


हालांकि ये संख्या सिर्फ़ उन मदरसों की है, जिन्होंने सरकारी मान्यता हासिल करने के लिए आवेदन किया. वैसे अनौपचारिक रूप से तो देश में लगभग एक लाख मदरसे हो सकते हैं. इनमें भी 30 से 40 हज़ार मदरसे केवल उत्तर प्रदेश में हैं. अगर पूरे देश की बात करें तो यहां पर तीन तरह के मदरसे हैं.


देश में चल रहे 3 तरह के मदरसे


पहले वो जो सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त हैं और जिन्हें केन्द्र और राज्य सरकारों से फंडिंग मिलती हैं.


दूसरे वो जो सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त हैं लेकिन उन्हें फंडिंग इस्लामिक संस्थाओं और मुस्लिम समुदाय के लोगों से मिलती है.


और तीसरे मदरसे वो हैं, जो ना तो सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त हैं और ना ही इन्हें सरकार से फंडिंग मिलती हैं.


अब मुद्दा ये है कि सरकार जिन मदरसों पर करोड़ों रुपये ख़र्च कर रही है, उनका मुख्य उद्देश्य मुस्लिम बच्चों को इस्लामिक शिक्षा देना है. इन मदरसों में 12वीं कक्षा तक पढ़ाई होती है और सरकार से फंडिंग लेने के लिए इन मदरसों को गणित, विज्ञान, भूगोल और अंग्रेज़ी के विषय की पढ़ाई भी बच्चों को करानी पढ़ती है लेकिन इसके साथ ही बच्चों की धार्मिक शिक्षा पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाता है. 


कुरान और इस्लाम तक सीमित रह जाते बच्चे


मदरसों में बच्चों को छोटी उम्र से ही कुरान में कही गई बातें, इस्लामिक कानूनों और इस्लाम से जुड़े दूसरे विषयों के बारे में पढ़ाया जाने लगता है. इससे कहीं ना कहीं बहुत से बच्चे एक धर्म की शिक्षा तक ही सीमित रहते हैं. अब सोचिए, अगर स्कूलों में भी मदरसों का ये मॉडल लागू हो गया तो फिर स्कूलों और मदरसों में क्या अंतर रह जाएगा?


भारत का संविधान, अल्पसंख्यकों को अपने खुद के शिक्षण संस्थान स्थापित करने और उनका प्रबंधन करने की पूरी आज़ादी देता है. संविधान के आर्टिकल 30 में इसका विस्तार से उल्लेख किया गया है. यही नहीं भारत का संविधान ये भी सुनिश्चित करता है कि अल्पसंख्यकों द्वारा चलाए जाने वाले मदरसों और दूसरे शिक्षण संस्थानों को सरकार से आर्थिक मदद मिले.


अब समझने वाली बात ये है कि जिन मुस्लिम छात्राओं को लगता है कि स्कूलों में उनके धर्म के अनुरूप नियम कानून और सिलेबस नहीं है, वो मदरसों में शिक्षा हासिल क्यों नहीं करती, जिन्हें भारत के इसी संविधान ने तमाम अधिकार दिए हैं.


मदरसों में क्यों नहीं पढ़ना चाहती मुस्लिम लड़कियां


मदरसों में मुस्लिम छात्राओं को इस्लाम धर्म का पालन करने की पूरी इजाज़त है. अपनी भाषा में शिक्षा हासिल करने का अधिकार है. वो मदरसों में हिजाब और बुर्का पहन कर पढ़ सकती हैं. 


मदरसों में बाकी विषयों की पढ़ाई के साथ, कुरान और उसकी मान्यताओं की भी शिक्षा दी जाती है. इसके अलावा मदरसों में क्लास के दौरान पांच वक्त की नमाज़ भी पढ़ी जा सकती है और इस दौरान पढ़ाई भी रोक दी जाती है.


ये सारे नियम मदरसों में पहले से लागू हैं. फिर स्कूलों में भी यही व्यवस्था लागू करने की मांग क्यों की जा रही है? आज हमारा बड़ा सवाल यही है.


अभी हो ये रहा है कि कुछ मुस्लिम छात्राओं को मदरसों में तो शिक्षा हासिल नहीं करनी है. लेकिन वो मदरसा पद्धति को स्कूलों में ही लागू कराना चाहती हैं और इसी मूल सवाल की जड़ को आज आपको समझना है.


स्कूल में बुर्का पहनना और अल्लाहू अकबर के नारे लगाना कौन सी बहादुरी?


पिछले दिनों कर्नाटक के मांड्या ज़िले में स्थित एक प्राइवेट कॉलेज की मुस्लिम छात्रा ने विरोध प्रदर्शन कर रहे हिन्दू छात्रों के ख़िलाफ़ अल्लाह-हू-अकबर के नारे लगाए थे. तब से ये मुस्लिम छात्रा, हमारे देश में इस्लाम धर्म के ठेकेदारों के लिए प्रेरणा बन गई है. इस मुस्लिम छात्रा का नाम है मुस्कान और इसे कई संस्थाओं और मुस्लिम नेताओं द्वारा कैश प्राइज़ और दूसरे पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है. 


हर कोई इस छात्रा की हिम्मत की तारीफ़ कर रहा है.  सोचिए, शिक्षा की बजाय अल्लाह-हू-अकबर का नारा लगाना और कॉलेज में हिजाब पहन कर आना क्या बहादुरी है? क्या आप इसे बहादुरी की एक मिसाल मानेंगे? 


यहां आज इस बात को भी समझना ज़रूरी है कि भारत में किसी मुस्लिम महिला और छात्रा को हिजाब पहनने से नहीं रोका गया है. बल्कि ये मामला तो केवल स्कूलों में सभी छात्रों द्वारा एक जैसी यूनिफॉर्म पहनने का है. इस विवाद को हिजाब तक सीमित कर दिया गया है. सोचिए, बच्चे स्कूल क्यों जाते हैं. वो शिक्षा हासिल करने के लिए जाते हैं. क्लास में पढ़ते समय उनके लिए ये मायने नहीं रखता कि वो किस धर्म से हैं. क्या हमारे देश के स्कूलों में जब छह से सात घंटे बच्चे क्लास में पढ़ते हैं, तब वो अपने धर्म को क्लास के बाहर नहीं छोड़ सकते? भारत की शिक्षा व्यवस्था में कई तरह की खामियां हैं.


देश के एजुकेशन सिस्टम में बहुत सी खामियां


आदर्श स्थिति में भारत के स्कूलों में एक कक्षा में 30 बच्चों को एक साथ पढ़ाया जाना चाहिए लेकिन पढ़ाया जाता है औसतन 60 बच्चों को. यानी कक्षा में एक शिक्षक एक समय में 60 बच्चों को किसी एक विषय की पढ़ाई कराता है. सितम्बर 2020 में लोक सभा में ये जानकारी दी गई थी कि भारत के सरकारी स्कूलों में इस समय 17 प्रतिशत शिक्षकों के पद ख़ाली पड़े हैं. ये संख्या 10 लाख 6 हज़ार होती है. सोचिए शिक्षकों की इतनी नौकरियां खाली पड़ी हैं.


लेकिन हमारे देश में शिक्षा और शिक्षा के स्तर की बात नहीं होती. बल्कि हिजाब की बात होती है. कड़वा सच ये है कि आज़ादी के बाद लगभग 70 वर्षों तक जिन सरकारों ने मुसलमानों का तुष्टिकरण किया, जिन मुसलमानों के वोटों को सरकारें बनाने के लिए जरूरी समझा, उन्हीं मुसलमानों को शिक्षा, स्वास्थ्य और समृद्धि की कतार में सबसे पीछे धकेल दिया गया. इसी तुष्टिकरण की आड़ में वर्षों तक अल्पसंख्यक महिलाओं को तीन तलाक से मुक्ति नही दिलाई गई, शरिया कानूनों को बढ़ावा दिया गया और मदरसों में शिक्षा और धर्म का गठजोड़ बनाकर अल्पसंख्यकों से आधुनिक शिक्षा के अवसर भी छीन लिए गए.


असली शिक्षा वही, जो सही को सही कह सके


धर्म की असली शिक्षा वो नहीं है, जो आपकी सोचने समझने और तर्क करने की शक्ति को समाप्त कर दे बल्कि धर्म की असली शिक्षा वो है जो आपको सवाल उठाने का सामर्थ्य दे ताकि आप गलत को गलत कह सकें और अपना मार्ग खुद चुन सकें.


धर्म का बचपन पर क्या प्रभाव पढ़ता है, इसे समझने के लिए वर्ष 2015 में एक रिसर्च की गई थी. ये शोध 1200 बच्चों पर किया गया था, जिनमें से 24 प्रतिशत ईसाई, 43 प्रतिशत मुस्लिम और 27 प्रतिशत धर्म को ना मानने वाले थे.


इस शोध में पाया गया कि जिन बच्चों के परिवार वाले बहुत धार्मिक थे, वो बच्चे अपनी चीज़ों को दूसरों के साथ आसानी से बांटने के लिए तैयार नहीं होते थे. ऐसे बच्चे दूसरे बच्चों का आंकलन उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति के आधार पर कर रहे थे.


मजहबी शिक्षा लेने वाले ज्यादा कट्टरपंथी


धार्मिक परिवारों से आने वाले बच्चे शरारत करने वाले दूसरे बच्चों को सख्त सज़ा देने के पक्ष में थे. जबकि जिन बच्चों के परिवार वाले किसी धर्म को नहीं मानते थे, वो ज्यादा मिलनसार, अपनी चीज़ों को बांटने वाले और दूसरे छात्रों को सज़ा ना देने के पक्ष में थे.


ये सर्वे सिर्फ 1200 बच्चों पर किया गय़ा था इसलिए कोई चाहे तो इसे आसानी से खारिज भी कर सकता है. ये जरूरी नहीं है कि इसमें किए गए सारे दावे वाकई सच हों. इस समय दुनिया की आबादी करीब 750 करोड़ है. इनमें से 84 प्रतिशत यानी 630 करोड़ लोग खुद को धार्मिक कहते हैं. फिर भी दुनिया के लगभग हर कोने में इस समय कोई ना कोई हिंसा, कोई ना कोई युद्ध और कोई ना कोई लड़ाई झगड़ा चल रहा है और ज्यादातर जगहों पर ये सब धर्म के नाम पर ही हो रहा है.


इसलिए ये फैसला आपको करना है कि आपको अपने बच्चों को धार्मिक बनाने के नाम पर उन्हें कट्टर बनाना है या फिर उन्हें धर्म के असली मायने समझाते हुए एक बेहतर इंसान बनाना है.


हिजाब पर बवाल भड़काने में PFI का हाथ!


इस समय Zee News की टीम कर्नाटक के उन स्कूलों में मौजूद है, जहां से ये हिजाब विवाद शुरू हुआ था. वहां पर इस पूरे मामले को धार्मिक कट्टरवाद का रूप देकर बड़े आंदोलन में बदला जा रहा है. इसके पीछे उसी Popular Front of India यानी PFI का एक राजनीतिक संगठन है, जिस पर शाहीन बाग में नागरिकता संशोधन कानून के ख़िलाफ़ कई महीनों तक चले आन्दोलन को फंडिंग करने का आरोप है. 


इस पुरे विवाद के पीछे सवाल खड़ा होता है कि आखिर ऐसी क्या वजह है कि कोर्ट के आदेश और सुनवाई पुरी होने तक भी इस मुद्दे को लेकर माहौल गर्मा रहा है. आखिर वो कौन लोग है जो इस पूरे मामले को सुर्खियों में बनाये रखना चाहते है और विवाद खड़ा रखना चाहते है.


इस समय Zee News की टीम लगातार उडुपि में रह कर इन सवालों के जवाब ढूंढ रही है. हम जब उड्पी के विधायक रघुपति भट्ट से मिले तो उन्होंने बताया कि इस पुरे मामले के पीछे गहरी साजिश है और PFI, SDPI और उसकी स्टूडेंट विंग CFI इसके पीछे है.


इस पूरे विवाद की शुरुआत दिसंबर 2021 से हुई लेकिन इसकी नींव उससे भी दो महीने पहले अक्टूबर में रख दी गयी थी. हमें पड़ताल के दौरान पता चला कि यहां उडुपी में ABVP ने एक लड़की के साथ हुई बलात्कार की घटना के बाद विरोध प्रदर्शन किया था, जिसमें दो मुस्लिम लड़कियां भी शामिल थी. बस यहीं से Campus Front of India ने यहां की मुस्लिम छात्राओं और उनके परिवार को भ्रमित करना शुरू कर दिया.


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हिजाब आंदोलन में केवल 11वीं- 12वीं की लड़कियां ही क्यों शामिल


इस पुरे मामले को लेकर स्थानीय विधायक सरकार से जांच की मांग भी कर रहे है ताकि ये पता लगाया जा सके कि इसके पीछे किस तरह की साजिश है. इस मामले में जिस तरह से सिर्फ 11वीं और 12वीं कक्षा में पढ़ने वाली लड़कियों को शामिल किया गया है, उससे ऐसा लगता है कि आने वालों चुनावों को लेकर ये साजिश रची जा रही है.


कर्नाटक में 2023 में विधान सभा चुनाव होने है. पिछले दिनों कर्नाटक के Municipality चुनावों में SDPI को अच्छे वोट मिले थे और उडुपी से लगने वाले कापू में तो तीन सीटे भी जीती थीं. कापू मंगलुरू की तरफ है, जहां पर पहले से ही SDPI की अच्छी पकड़ है. माना जा रहा है कि इसी मुद्दे के बहाने SDPI मुस्लिम वोट बैंक को मजबूती से अपनी तरफ खींच लेना चाहती है.


इस पुरे मामले पर CFI और हिजाब पहनने की मांग कर रही लड़कियों से भी बात करने की कोशिश की गई लेकिन कोई भी बात करने को तैयार नहीं हुआ. हालांकि हमारी टीम लगातार इस मामले को ग्राउंड ज़ीरो पर रहकर Investigate कर रही है.


इस मामले में राजनीति भी हो रही है और असदुद्दीन ओवैसी जैसे नेता मुस्लिम छात्राओं को उनकी हिजाब पहनने की ज़िद के लिए भड़काने का काम कर रहे हैं. ये पूरा मामला अब सांप्रदायिक होने के साथ राजनीतिक भी हो गया है.