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नई दिल्ली: कर्नाटक में हिजाब (Hijab) को लेकर चल रहे विवाद में ट्विस्ट आ गया है. मामले में सुनवाई करते हुए कर्नाटक हाई कोर्ट ने गुरुवार को अहम आदेश पारित किया.
पहली बात- जब तक इस मामले में कोई अंतिम फैसला नहीं आ जाता, तब तक स्कूलों में छात्रों को किसी भी तरह का धार्मिक परिधान पहनने की इजाज़त नहीं होगी. यानी ना तो मुस्लिम छात्राएं हिजाब (Hijab) पहन सकती हैं और ना ही हिन्दू छात्र भगवा गमछा पहन कर स्कूल आ सकते हैं.
दूसरी बात- अदालत इस बात की समीक्षा करेगी कि क्या स्कूल और कॉलेजों में हिजाब पहनना मौलिक अधिकार है या नहीं?
और तीसरी बात- अदालत ने सोमवार से कर्नाटक के सभी स्कूल और कॉलेजों को खोलने के आदेश दिए हैं.
हाल ही में कर्नाटक सरकार ने विरोध प्रदर्शनों की वजह से 11 फरवरी तक राज्य के सभी High Schools और कॉलेज बन्द रखने का फैसला किया था. अब ये स्कूल और कॉलेज खुल जाएंगे. हालांकि आज ही बेंगलूरु में सभी शिक्षण संस्थानों के 200 मीटर के दायरे में लोगों के इकट्ठा होने पर रोक लगा दी गई है. कहा गया है कि ये पाबंदी अगले दो हफ्ते तक जारी रहेगी.
#DNA : स्कूलों को मदरसा बनाने की साज़िश@sudhirchaudhary
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— Zee News (@ZeeNews) February 10, 2022
इस मामले में गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट में भी बहस हुई. कांग्रेस नेता और वकील कपिल सिब्बल ने ये मांग की थी कि इस मामले को कर्नाटक हाईकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट में ट्रांसफर किया जाए. साथ ही सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की बेंच इस पर सुनवाई करे. अदालत ने इस मांग को खारिज कर दिया और कहा कि कर्नाटक हाई कोर्ट पहले से इस केस पर सुनवाई कर रही है. इसलिए सुप्रीम कोर्ट अंतिम फैसला आने तक इसमें कोई दख़ल नहीं देगी.
हालांकि इस मामले में समस्या ये है कि अब हिजाब (Hijab) वाली ये आग देश के दूसरे हिस्सों में भी फैल गई है. और एक खास विचारधारा के लोग देश में बड़े पैमाने पर मुस्लिम छात्राओं का ब्रेन वॉश करने में कामयाब हो गए हैं.
कर्नाटक के बाद अब उत्तर प्रदेश के जौनपुर में स्थित एक कॉलेज में भी हिजाब को लेकर धार्मिक विवाद शुरू हो गया है. आरोप है कि इस कॉलेज में पढ़ने वाली 21 साल की एक मुस्लिम छात्रा को जब हिजाब पहन कर क्लास में प्रवेश नहीं करने दिया गया तो उसने कॉलेज प्रबंधन और टीचर्स के ख़िलाफ़ विरोध शुरू कर दिया और अब ये मामला पुलिस में भी पहुंच चुका है.
जरीना नाम की इस छात्रा का आरोप है कि उसके कॉलेज में पढ़ाने वाले एक शिक्षक ने उसके हिजाब पहनने का विरोध किया और ये कहा कि वो इस तरह के किसी भी धार्मिक परिधान को अपनी क्लास में स्वीकार नहीं करेंगे. इस मुस्लिम छात्रा ने जब इस मामले की जानकारी अपने परिवार को दी तो ये मामला काफी बढ़ गया, जिससे अब इस कॉलेज में पढ़ने वाली दूसरी मुस्लिम छात्राएं भी हिजाब (Hijab) पहन कर ही Classes अटेंड करना चाहती हैं.
कॉलेज प्रबंधन ने इस मामले की जांच कराने की बात कही है और ये भी बताया है कि इस मुस्लिम छात्रा को पहले भी क्लास में हिजाब पहनने से मना किया गया था. लेकिन कर्नाटक के स्कूलों में हिजाब (Hijab) पर छिड़ी बहस के बाद जौनपुर के इस कॉलेज में भी मुस्लिम छात्राओं ने इसे एक बड़ा मुद्दा बना लिया है. ये एक ऐसी शुरुआत है, जो सिर्फ़ एक स्कूल या कॉलेज तक सीमित नहीं रहने वाली. ये एक आग की तरह है, जो देश के करोड़ों बच्चों का भविष्य बर्बाद कर सकती है.
Albert Einstein ने एक बार कहा था कि जो कुछ भी हमने स्कूल में सीखा है, वो भूल जाने के बाद भी जो हमें याद रहता है तो वही हमारी असली शिक्षा है. लेकिन सोचिए, इन मुस्लिम छात्राओं को शिक्षा के नाम पर क्या याद रहेगा? जब इनकी परीक्षाएं नज़दीक हैं, कोविड की वजह से कॉलेजों में सभी बच्चे और टीचर्स नहीं आ पा रहे हैं, तब इन मुस्लिम छात्राओं का पूरा ध्यान किताब की बजाय हिजाब (Hijab) पर केन्द्रित है.
इसे आप भोपाल के इस वीडियो से भी समझ सकते हैं. आरोप है कि भोपाल में हिजाब और बुर्के की मांग को लेकर कुछ मुस्लिम छात्राओं द्वारा एक बाइक रैली निकाली गई, जिसमें इन छात्राओं द्वारा आपत्तिजनक इशारे किए गए और इनके द्वारा ट्रैफिक के नियमों का भी उल्लंघन किया गया.
गुरुवार को उत्तर प्रदेश की अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में भी मुस्लिम छात्राओं ने विरोध प्रदर्शन किया गया और अल्लाह-हू-अकबर और आज़ादी के नारे लगाए गए. सोचिए, इन छात्राओं को किससे आज़ादी चाहिए? और दूसरी बात, जब विवाद स्कूलों में यूनिफॉर्म का है तो फिर इसमें अल्लाह-हू-अकबर के धार्मिक नारे क्यों लगाए जा रहे हैं.
भारत में लगभग 15 लाख स्कूल हैं, जिनमें 25 करोड़ बच्चे पढ़ते हैं. अगर ये सभी 25 करोड़ बच्चे अपने स्कूलों में हिजाब, भगवा गमछा और दूसरे धार्मिक चिन्ह और पोशाक पहन कर आने लगे तो देश में कितनी ख़तरनाक स्थिति पैदा हो जाएगी.
स्कूलों में फैल रहा साम्प्रदायिकता का ये संक्रमण कोरोना वायरस से भी ख़तरनाक है. कोरोना की वैक्सीन तो आ गई लेकिन इसकी वैक्सीन कब आएगी?. इस वायरस की वैक्सीन का नाम है, Uniform Civil Code. देश में अगर Uniform Civil Code लागू हो गया तो हमारे देश के 15 लाख स्कूलों में पढ़ने वाले 25 करोड़ छात्र इस वायरस से बच जाएंगे.
Uniform Civil Code एक Secular यानी पंथनिरपेक्ष कानून है, जो किसी भी धर्म या जाति के सभी निजी कानूनों से ऊपर होता है. लेकिन भारत में अभी इस तरह के क़ानून की व्यवस्था नहीं है. फिलहाल देश में हर धर्म के लोग शादी, तलाक़ और ज़मीन ज़ायदाद के मामलों का निपटारा अपने पर्सनल लॉ के मुताबिक़ करते हैं.
मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदाय के अपने पर्सनल लॉ हैं, जबकि Hindu Personal Law के तहत हिन्दू, सिख, जैन और बौद्ध धर्म के सिविल मामलों का निपटारा होता है. कहने का मतलब ये है कि अभी एक देश, एक क़ानून की व्यवस्था भारत में नहीं है.
ये विडम्बना ही है कि भारत का संवैधानिक Status तो Secular यानी धर्मनिरपेक्ष है, जो सभी धर्मों में विश्वास और समानता की बात करता है. वहीं एक धर्मनिरपेक्ष देश में क़ानूनों को लेकर Uniformity यानी समानता नहीं है. जबकि इस्लामिक देशों में इसे लेकर क़ानून है. यानी जो देश धर्मनिरपेक्ष है, वही समान क़ानून के रास्ते पर आज तक नहीं चल पाया है.
भारत में भले एक देश, एक क़ानून की व्यवस्था ना हो, लेकिन कई देशों ने इसे अपनाया है. फ्रांस में Common Civil Code लागू है, जो वहां के सभी धर्मों के लोगों पर समान क़ानून की व्यवस्था को सुनिश्चित करता है. United Kingdom के English Common Law की तरह अमेरिका में Federal Level पर Common law system लागू है.
ऑस्ट्रेलिया में भी English Common Law के जैसा ही Common law system लागू है. इसके अलावा Russia, कनाडा, जर्मनी और उज़बेकिस्तान जैसे देशों में भी Civil Law system लागू हैं, जो एक देश, एक कानून को सुनिश्चित करता है.
लेकिन Kenya, पाकिस्तान, Italy, South Africa, Nigeria और Greece में समान नागरिक संहिता जैसे कानून नहीं है. Kenya, Italy, Greece और South Africa में ईसाई बहुसंख्यक हैं लेकिन यहां मुसलमानों के लिए अलग शरीयत का कानून है.
पाकिस्तान एक इस्लामिक देश है लेकिन यहां कुछ मामलों में हिंदुओं के लिए अलग प्रावधान हैं. हालांकि पाकिस्तान में हिन्दुओं को इतनी आज़ादी नहीं है.
इसके अलावा नाइजीरिया में चार तरह के कानून लागू हैं. English Law, Common Law, Customary Law और शरीयत. यानी यहां भी भारत की तरह सभी धर्मों के लिए समान क़ानून नहीं है.
यहां Point ये है कि जिन देशों में Uniform Civil Code जैसे कानून हैं, उन देशों में धर्मनिरपेक्षता का विचार ज्यादा व्यावहारिक है. उदाहरण के लिए फ्रांस में लगभग 10 प्रतिशत मुसलमान रहते हैं. लेकिन वहां एक देश एक कानून होने की वजह से मुस्लिम समुदाय के लोग तीन तलाक और बाल विवाह जैसी इस्लामिक मान्यताओं का पालन नहीं कर सकते.
इसके अलावा फ्रांस में Common Civil Code होने की वजह से ही वहां पर स्कूलों में बुर्के और हिजाब पर पूरी तरह बैन लगाना सम्भव हुआ है. कुल मिलाकर कहें तो Uniform Civil Code एक ऐसी वैक्सीन है, जो धार्मिक कट्टरवाद के संक्रमण से भारत को बचा सकती है. इसे आप भारत के ही एक राज्य गोवा के उदाहरण से समझ सकते हैं.
वर्ष 1961 में जब गोवा का भारत में विलय हुआ था, तभी से वहां Uniform Civil Code लागू है. यानी वहां इस्लाम धर्म को मानने वाले पुरुष एक से ज्यादा शादी नहीं कर सकते, सभी धर्मों की लड़कियों के लिए शादी की उम्र एक जैसी है और तलाक और सम्पत्ति के बंटवारे में भी महिलाओं को एक जैसे अधिकार हासिल हैं. यानी वहां कानूनों को अलग अलग धर्मों के हिसाब से तय नहीं किया गया है.
गोवा में लगभग साढ़े 8 प्रतिशत मुसलमान, 25 प्रतिशत ईसाई और 66 प्रतिशत हिन्दू आबादी रहती है. लेकिन क्या आपने कभी सुना है कि गोवा में किसी मुस्लिम समुदाय के व्यक्ति ने इसका विरोध किया हो? या एक समान कानून से वहां इस्लाम धर्म खतरे में आ गया हो?
यहां एक और महत्वपूर्ण Point ये भी है कि भारत में Criminal Law सभी धर्मों के लिए समान है. यानी चोरी, हत्या और लूट की वारदात चाहे कोई मुसलमान करे या कोई हिन्दू धर्म का व्यक्ति करे, सब पर एक जैसी धाराएं और सज़ा लागू होती हैं.
हमारा सवाल है कि एक समान Criminal Law होने से किसका धर्म खतरे में पड़ा है? लेकिन Uniform Civil Code को लेकर ये धारणा पैदा कर दी गई है कि इससे एक खास धर्म खतरे में आ जाएगा. इसी वजह से भारत के लिए इस कानून को लागू करने में कई चुनौतियां नज़र आती हैं.
भारत के संविधान का आर्टिकल 44 ये निर्देश देता है कि उचित समय पर सभी धर्मों के लिए पूरे देश में 'समान नागरिक संहिता' लागू की जाए. लेकिन कभी वोट बैंक की राजनीति की वजह से, कभी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की वजह से और कभी सरकार को बचाए रखने के लिए इस विषय को छेड़ा तक नहीं जाता. यही वजह है कि भारतीय संविधान दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है, लेकिन ये आज भी प्रासंगिक नहीं है.
वर्ष 1985 में शाह बानो केस के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि Uniform Civil Code देश को एक रखने में मदद करेगा. तब कोर्ट ने ये भी कहा था कि देश में अलग-अलग क़ानूनों से होने वाले विचारधाराओं के टकराव ख़त्म होंगे. वर्ष 1995 में भी सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार को ये निर्देश दिये थे कि संविधान के Article 44 को देश में लागू किया जाए.
कर्नाटक में हिजाब को लेकर ये पूरा विवाद एक महीने पहले ही शुरु हुआ है. लेकिन एक कड़वा सच ये है कि इस समस्या के बीज आज से 74 वर्ष पहले ही इस देश की व्यवस्था में डाल दिए गए थे और ये सबकुछ मुस्लिम वोट बैंक के लिए हुआ था.
23 नवम्बर 1948 को संविधान में Uniform Civil Code पर ज़ोरदार बहस हुई थी, जिसमें ये प्रस्ताव रखा गया था कि सिविल मामलों में निपटारे के लिए देश में समान क़ानून होना चाहिए या नहीं. संविधान सभा के सदस्य मोहम्मद इस्माइल साहिब, नज़ीरुद्दीन अहमद, महबूब अली बेग साहिब बहादुर, पोकर साहिब बहादुर और हुसैन इमाम ने एक मत से इसका विरोध किया. उस समय संविधान सभा के सभापति डॉ राजेन्द्र प्रसाद और तमाम बड़े कांग्रेसी नेता भी इसके ख़िलाफ़ थे.
इन सभी सदस्यों की तब दलील थी कि समान कानून होने से मुस्लिम पर्सनल लॉ ख़त्म हो जाएगा और इसमें मुस्लिमों के लिए जो चार शादियां, तीन तलाक और निकाह हलाला की व्यवस्था की गई है, वो भी समाप्त हो जाएगी. भारी विरोध की वजह से उस समय संविधान की मूल भावना में समान अधिकारों का तो ज़िक्र आया लेकिन समान क़ानून की बात ठंडे बस्ते में चली गई.
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उस समय संविधान निर्माता डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर ने कई महत्वपूर्ण बातें कहीं थी. उन्होंने कहा था कि 'रूढ़िवादी समाज में धर्म भले ही जीवन के हर पहलू को संचालित करता हो, लेकिन आधुनिक लोकतंत्र में धार्मिक क्षेत्र अधिकार को घटाये बग़ैर असमानता और भेदभाव को दूर नहीं किया जा सकता है.
सोचिए डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर कितने दूरदर्शी थे. उन्होंने 74 वर्ष पहले ही कह दिया था कि अगर देश को एक समान क़ानून नहीं मिला, तो देश के सामने ऐसी खतरनाक स्थिति पैदा होगी, जैसी आज आप सब देख रहे हैं.