नई दिल्‍ली: लोकसभा चुनाव 2019 (Lok sabha elections 2019) में जीत हासिल करने के लिए देश में त्रिकोणीय मुकाबला चल रहा है. एक तरफ, सत्‍ता में दोबारा वापसी के लिए बीजेपी ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है. वहीं दूसरी तरफ, कांग्रेस और महागठबंधन वोटों के समीकरण अपने पक्ष में करने का प्रयास कर रहे हैं. वोटों के बनते बिगड़ते समीकरण के बीच, हम आपको 1969 के दौर में ले चलते हैं, जब कांग्रेस के कुछ दिग्‍गज नेताओं ने इंदिरा गांधी के विरुद्ध बगावत कर दी थी. चुनावनामा में आज हम आपको बताते हैं कि वे कौन सी परिस्थितियां थी, जिसके चलते कांग्रेस के दिग्‍गज नेता बागी हुए और इंदिरा गांधी ने खुद को इस मुश्किल से किस तरह बचाया.


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दरअसल, इंदिरा गांधी और कांग्रेस के दिग्‍गज नेताओं के बीच लालबहादुर शास्‍त्री की मृत्‍यु के बाद से मनमुटाव शुरू हो गया था. लालबहादुर शास्‍त्री की मृत्‍यु के बाद इंदिरा गांधी को देश का प्रधानमंत्री बनाया गया था. यह बात कांग्रेस के वरिष्‍ठ नेता मोरारजी देसाई को नागवार गुजरी थी. चूंकि यह घटनाक्रम 1967 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले हुआ था, लिहाजा पार्टी का यह विद्रोह अंदर ही दबा रहा. 1967 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को न केवल केंद्र में, बल्कि राज्‍यों में भी भारी नुकसान हुआ. केंद्र में 283 सीटों के साथ इंदिरा गांधी के नेतृत्‍व में कांग्रेस ने सरकार बनाई, वहीं छह राज्‍यों से कांग्रेस की सत्‍ता चली गई.



विरोध शांत करने के लिए इंदिरा ने मोरारजी को बनाया उपप्रधानमंत्री
केंद्र में बहुमत के साथ सरकार बनने के बाद इंदिरा गांधी के फैसले कांग्रेस के कुछ नेताओं को नापसंद आने लगे. पार्टी के भीतर बढ़ते विद्रोह को काबू करने के लिए इंदिरा गांधी ने अपने मंत्रिमंडल में मोरारजी देसाई को बतौर उपप्रधानमंत्री जगह दी. बावजूद इसके घमासान रुका नहीं. मोरारजी देसाई सहित दूसरे नेता बार-बार इंदिरा के फैसलों में रोड़े अटकाते रहे. आखिर में, कांग्रेस में चल रहा आंतरिक घमासान 1969 के राष्‍ट्रपति चुनाव के समय खुलकर सामने आ गया. इंदिरा गांधी कांग्रेस पार्टी की तरफ से बाबू जगजीवन राम को राष्‍ट्रपति पद का उम्‍मीदवार बनाना चाहती थीं, लेकिन कांग्रेस संसदीय बोर्ड की बैठक में उनके प्रस्‍ताव को नकार दिया गया. 



राष्‍ट्रपति चुनाव में कांग्रेस के फैसले को इंदिरा ने मानने से किया इंकार
मोरारजी देसाई, कामराज, एसके पाटिल और निजलिंगप्‍पा जैसे कांग्रेस के दिग्‍गज नेताओं ने नीलम संजीव रेड्डी को पार्टी का आधिकारिक उम्‍मीदवार घोषित कर दिया. इसी बीच, पूर्व राष्‍ट्रपति वीवी गिरि को विपक्ष ने राष्‍ट्रपति पद का उम्‍मीदवार बना दिया. इंदिरा गांधी किसी भी कीमत पर नीलम संजीव रेड्डी को राष्‍ट्रपति नहीं बनाना चाहती थी. लिहाजा, उन्‍होंने मतदान से ठीक पहले अपने समर्थक सांसदों और विधायकों को वीवी गिरि के पक्ष में वोट करने को कह दिया. इंदिरा गांधी के इस फैसले से कांग्रेस में हड़कंप मच गया. आखिर में, इंदिरा के समर्थन से वीवी गिरि की जीत हुई और इस जीत को सीधे तौर पर इंदिरा गांधी की जीत मानी गई. 



अनुशासनहीनता के चलते इंदिरा गांधी कांग्रेस से हुईं निष्‍कासित 
इंदिरा गांधी के इस कदम से मोरारजी देसाई सहित कई दिग्‍गज नेता बौखला गए. उन्‍होंने 12 नवंबर 1969 को पार्टी का अनुशासन भंग करने के आरोप में इंदिरा गांधी को कांग्रेस से निष्‍कासित कर दिया. इसी निष्‍कासन के साथ कांग्रेस का दो भागों में बंटवारा हो गया. कांग्रेस का एक हिस्‍सा कांग्रेस (आई) कहलाया और दूसरा हिस्‍सा कांग्रेस (ओ) कहलाया. कांग्रेस (आई) इंदिरा के नेतृत्‍व वाली कांग्रेस थी, वहीं कांग्रेस (ओ) बागी नेताओं का नया संगठन था. कांग्रेस (ओ) में शामिल होने वाले नेताओं में कामराज, मोरारजी देसाई, निजलिंगप्पा, नीलम संजीव रेड्डी, अतुल्य घोष, सदाशिव कानोजी पाटिल सहित अन्‍य वरिष्‍ठ कांग्रेसी नेता शामिल थे. 


कम्‍युनिस्‍ट पार्टी की मदद से इंदिरा गांधी ने बचाई अपनी सरकार 
कांग्रेस के बंटवारे के बाद इंदिरा को भविष्‍य में आने वाली मुश्किलों का अंदाजा हो चुका था.‍ लिहाजा, इंदिरा ने बैंकों के राष्‍ट्रीयकरण और राजाओं के प्रिवीपर्स को खत्‍म करने का साहसिक कदम उठाकर अपनी अलग छवि पेश करने की कोशिश की. इंदिरा के इन फैसलों से कम्‍युनिस्‍ट पार्टी भी काफी प्रभावित थी. इसी बीच, कांग्रेस (ओ) के नेता संसद में इंदिरा के खिलाफ अविश्‍वास प्रस्‍ताव ले आए. इंदिरा कम्‍युनिस्‍ट पार्टी की मदद से अविश्‍वास प्रस्‍ताव को गिराने में कामयाब रहीं. अब तक इंदिरा गांधी को समझ में आ गया कि बहुमत के बिना सरकार चलाना संभव नहीं होगा. लिहाजा, इंदिरा ने 1970 में लोकसभा भंग कर निर्धारित समय से एक साल पहले चुनाव कराने की सिफारिश कर दी. जिसके बाद लोकसभा भंग हुई और 1972 की जगह 1971 में देश के अगले लोकसभा चुनाव कराए गए.