kabir prakat divas kab hai: कबीरदास जी भले ही अनपढ़ हों, किंतु वह एक पहुंचे हुए संत थे. इस बात को वह खुद ही एक दोहे में कहते हैं, “मसि कागद छुवो नहीं कलम गहो नहीं हाथ”. इसके बाद भी उनके दोहों का बहुत ही गूढ़ अर्थ होता था. वह समाज में फैले पाखंड के घोर विरोधी थे. वह भगवान को मित्र, माता, पिता और पति के रूप में देखते थे. कभी वह कहते “हरि मोर पिउ, मैं राम की बहुरिया” और “हरि जननी मैं बालक तोरा.” 


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उनके जन्म को लेकर कई बातें प्रचलित हैं, लेकिन जिस प्रसंग की सबसे अधिक चर्चा है, उसके अनुसार काशी में जगदगुरु रामानंद स्वामी की कृपा से एक विधवा युवती के गर्भ से एक बालक का जन्म हुआ. लोक-लाज को देखते हुए उसने नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास फेंक दिया. नीरू नामक जुलाहे को वह बालक मिला तो वह उसे अपने घर उठा लाया और पत्नी नीमा को सौंपा तो वह प्यार से उस बालक का पालन करने लगी और नाम रखा “कबीर”.  


कुछ कबीर पंथियों का कहना है कि काशी के लहरतारा तालाब में एक बहुत ही सुंदर कमल के फूल के ऊपर कबीर का जन्म हुआ. एक ग्रंथ के अनुसार, उनका जन्म ज्येष्ठ मास में शुक्ल पक्ष में पूर्णिमा के दिन हुआ था. इस बार यह तिथि 4 जून रविवार को होगी. काशी में जन्म की पुष्टि तो खुद कबीर दास ने इन शब्दों में की है, “हम काशी में प्रगट भये हैं, रामानंद चेताये”. कबीर दास जी हिंदू-मुसलमान में भेद नहीं करते थे और यही कारण था उनके शिष्यों में दोनों ही धर्मों के लोग थे. 


वह पुरानी रूढ़िवादी मान्यताओं के विरोधी थे. माना जाता है कि काशी में मृत्यु होने पर मोक्ष मिलता है और मगहर में मृत्यु से नरक. लगभग 119 वर्ष की अवस्था में वह काशी छोड़ मगहर आ गए. इस बारे में उन्होंने कहा, “हृदय का क्रूर यदि काशी में मरे तो भी उसे मुक्ति नहीं मिल सकती है और यदि हरिभक्त मगहर में मरे तो भी यम के दूत उसके पास फटक नहीं सकते. काशी में शरीर त्यागने से लोगों को भ्रम होगा कि काशीवास से ही कबीर की मुक्ति हुई है. मैं नरक में भले ही चला जाऊं, किंतु भगवान के चरणों का यश काशी को नहीं दूंगा”.


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