लोकभाषा के बड़े कवि कालिका त्रिपाठी ने कभी रिमही में एक लघुकथा सुनाई थी. कथा कुछ ऐसी थी- दशहरे के दिन ननद और भौजाई एक खेत में घसियारी कर रही थी. घास काटते-काटते बात चल पड़ी..
ननद बोली-भौजी ये दशहरा क्या होता है..?
भौजी ने अकबकाते हुए जवाब दिया- ये दशहरा में न.. राजा सजधज के रथ पर सवार होकर शहर में निकलता है.
शहर में क्यों निकलता है..?
ताकि लोग जाने कि वह राजा है.
अच्छा... वह पहने क्या रहता है?
राजा तो राजा है रेशम, मखमल, सोना, चांदी, हीरा, मोती कुछ भी पहन ले.
अच्छा.. तो भौजी ये बताओ कि राजा खाता क्या होगा..?
बेसहूर कहीं की..राजा है चाहे गुड़इ गुड़ खाए.


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

जो गुड़ और चने राजा के घोड़े की खुराक हैं वही गुड़ उस गरीबन के स्वाद की चरम वस्तु, उसके तृप्ति की आकांक्षा की आखिरी सीमा. यह लघुकथा तब के जमाने में अमीरी और गरीबी के बीच का पैमाना तय करती है. इधर जब से झारखंड के उस अभागन बच्ची के बारे में सुना जिसने भात-भात रटते हुए भूख से दम तोड़ दिया तो लगता है कि इस तरक्की-ए-वक्त में गरीबी का पैमाना तय करना और भी दुश्कर हो गया है.


अर्थशास्त्री अपने देश काल के हिसाब से गरीबी को परिभाषित करते रहे हैं. उच्च न्यायालयों में गरीबी की परिभाषा दिलचस्प है. मैंने कुछेक साल जबलपुर हाईकोर्ट में वकालत का भी आनंद लिया. यहां भूखे गरीब मुव्वकिलों को भी देखा और हर साल बदल दी जाने वाली नई चमचमाती कारों वाले वकीलों को भी. भाषा की गरीबी से भी वास्ता पड़ा. यहां आकर जाना कि अंग्रेजी लैटिन के आगे कितनी गरीब है, भले ही चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुई हो.


पेट भरने के लिए दोना-पत्तल तक का संघर्ष करते हुए हिन्दी की भी दशा देखी. वकालत की भाषा में यहां गरीबी की अलग परिभाषा देखने को मिली जो अंग्रेजी में एप्लीकेशन व रिट पिटीशन की प्रेयर में लिखी जाती है. ..माई लार्ड प्रार्थी पर इसलिए कृपा करें क्योंकि यह परिवार का एक मात्र...ब्रेड बटर अर्नर... है. उच्च न्यायालयों में अभी भी अंग्रेजी या यों कहें अंग्रेजों सा चलन है. जहां वे छोड़ गए थे वहीं से हम आगे बढ़े, अंग्रेजियत को और पुख्ता करते हुए. हमने जाना कि अंग्रेजों का गरीब मख्खन चुपरी डबलरोटी खाता है.  


एक अपनी गरीबी जिसके लिए गुड़ ही स्वाद की चरम परिणति है, एक उनकी गरीबी जो ब्रेड-बटर से शुरू होती है. इस विरोधाभास को लेकर मैंने अपने सीनियर एनएस काले जो संवैधानिक मामलों के ख्यात वकील थे का ध्यान खींचा और कहा कि ब्रेड-बटर तो अपने गरीबों पर तंज है. अंग्रेजी में ही सही ब्रेड-बटर की जगह दाल रोटी तो लिखा ही जा सकता है. वे मुसकाते हुए बोले- गुलामी गहरे तक धंसी है क्या-क्या बदलोगे?


देश में गरीबी पर बात करना आसान नहीं है. बड़े संपादक लोग पहली नजर में ही रिजेक्ट कर देते हैं. गरीब-गुरबे बड़े मीडिया घरों का टारगेट ग्रुप (टीजी) नहीं है. इन पर स्टोरी छपेगी तो मार्सडीज वाले विज्ञापन नहीं देंगे. हम दुनिया को मार्सडीज वाला इंडिया दिखाना चाहते हैं. जहां जहां लकदक मॉल हैं, सिक्स लेन एक्सप्रेस हाई-वे है. हर आदमी मस्त है, खुश है. पर ये मस्ती और खुशी कित्ते परसेंट है, अमीर देशों ने इसे भी नापने का पैमाना बना रखा है.


भारत में निजी क्षेत्रों में 90 फीसदी की मिल्कियत सिर्फ 10 प्रतिशत लोगों के पास है. इधर भुखमरी सूचकांक में हम पाकिस्तान से भी पीछे 100वें क्रम पर आ गए हैं. देश में एक तिहाई लोगों के पास छत नहीं. इतने ही लोग एक बखत का खाना खाकर सो जाते हैं. लोहिया को गोबर से खाने के लिए अन्न छानते हुए वो महिला दिख गई थी. आंखों में पानी बचा हो तो आपको भी दिखेगा यह सब. अपने-अपने शहरों की सब्जी मंडियों की रोज शाम सैर करें. दिखेगा कि सड़ी हुई सब्जियों में से वो थोड़ा सा साबुत हिस्सा कैसे निकाला जाता है, जो झोपड़ियों के 'डिनर'का हिस्सा बनता है. दावतों के जूठन को सहेजते हुए बच्चे भी दिख जाएंगे. आपकी तमाम राशनपानी देने की सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के बावजूद.


तरक्की हो रही है पर इकतरफा. आज ही प्राइसवाटरहाउस कूपर्स और स्विस बैंक यूबीएस की एक रिपोर्ट पढ़ने को मिली. रिपोर्ट बताती है कि अमेरिका, यूरोप के मुकाबले एशिया में अरबपति तेजी से बढ़ रहे हैं. 2016 में एशिया में 637 अरबपति थे जबकि अमेरिका में 563. एशिया में एक साल में 117 के मान से अरबपति बढ़े हैं. दुनिया की 87 फीसद संपत्ति 500 अरबपतियों की तिजोरियों में है. एशिया में कुल जितने अरबपति हैं उनमें से आधे चीन और भारत के हैं.


इधर भुखमरी और बीमारियों से मरने की होड़ में भी एशिया अफ्रीका के साथ खड़ा है. धन और धरती तेजी से चंद मुट्ठीभर लोगों के पास जा रही है. भारत में इस प्रक्रिया ने रफ्तार पकड़ी है. वह दिन दूर नहीं जब देश के 10 अग्रणी पूंजीपतियों के पास उतनी पूंजी जमा हो जाएगी जितनी कि भारत सरकार के कोष में है. तब क्या होगा? आज भी नीतियां इनके हिसाब से बनती हैं. कल असली बागडोर इनके हाथ में होगी. विधान संस्थानों में इनके पपेट बैठेंगे. और तब उस गरीब की बात कौन करेगा जिसका बच्चा भात-भात चिल्लाते हुए दम तोड़ देता है.


पूंजीवाद का पुरखा अमेरिका है. यह तमगा अब ड्रैगन और लायनवाला एशिया छीनने जा रहा है. पूंजीवाद का रोड रोलर सबकुछ कुचलता, रौंदता हुआ चलता है, इच्छाएं, संवेदनाएं, आवाज़, अंदाज, समरसता, मनुष्यता. नोट कर लीजिए इसकी जद में अटलजी का गांधीवादी समाजवाद भी आएगा और दीनदयालजी का एकात्ममानव वाद भी.


दुष्यंतजी के शेर ने इन गरीबों की नियति तो सत्तर के दशक में ही बयान कर दी थी...


न हो कमीज  तो पांवों से पेट ढंक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए

 


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं)


(डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)