प्रधानमंत्री का एक खामोश विस्फोट: डॉ. विजय अग्रवाल
नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के तीन साल पूरे होने जा रहे हैं. दो और बाकी हैं. यदि लोगों के अनुमान पर विश्वास किया जाए, तो उस दो में पांच और जुड़कर कुल सात साल बाकी हैं, जिसे एक लम्बा वक्त माना जाना चाहिए. वैसे भी पीएम मोदी ने इन तीन सालों में लोगों का जो विश्वास प्राप्त किया है, वह अद्भूत है.
नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के तीन साल पूरे होने जा रहे हैं. दो और बाकी हैं. यदि लोगों के अनुमान पर विश्वास किया जाए, तो उस दो में पांच और जुड़कर कुल सात साल बाकी हैं, जिसे एक लम्बा वक्त माना जाना चाहिए. वैसे भी पीएम मोदी ने इन तीन सालों में लोगों का जो विश्वास प्राप्त किया है, वह अद्भूत है. अद्भूत इस मायने में कि उनके पास न तो नेहरू के समान स्वतंत्रता आंदोलन की छाप है और न ही इंदिरा की तरह नेहरू-गांधी परिवार की लिगेसी. यदि कुछ है तो केवल यह कि 'वे करते हैं और आगे भी करेंगे'.
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पीएम मोदी की इमेज बहुत कुछ कबीरदास की तरह है कि 'जो घर जारे आपनो, चले हमारे साथ'. उन्होंने अपने प्रति जिस विश्वास का संचार किया है, उसके लिए उनके द्वारा उठाये गये तीन अत्यंत महत्वपूर्ण कदमों को पहचाना जा सकता है. इसमें पहला कदम है- प्रधानमंत्री जन-धन खाते का, जिसे राजनीतिक विशेषज्ञ उस समय पहचान नहीं पाये. यह एक ऐसी नहर का निर्माण करना था, जिसके जरिये देश का गरीब से गरीब और अनपढ़ से अनपढ़ नागरिक सीधे सरकारी खजाने से जुड़ गया. दूसरा कदम इस सरकारी खजाने तथा लोगों के खाते को दुरुस्त करने का था. दरअसल, यह एक विस्फोट था- महाआर्थिक विस्फोट जिसने पूरे देश को हिलाकर रख दिया. इस विमुद्रीकरण ने मोदी जी को आम लोगों का प्रिय एवं विश्वसनीय बना दिया.
उत्तर प्रदेश चुनाव के तुरंत बाद मोदी जी की कैबिनेट ने एक अन्य विस्फोटक निर्णय लिया है. यह एक ऐसा खामोश विस्फोट है, जिसका अभी लोग अनुमान नहीं लगा पा रहे हैं. इसका पता तब चलेगा, जब 2019 में लोकसभा के चुनाव-परिणाम सामने आएंगे. यह विस्फोटक कदम है- राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति का. आइये देखते है कि इसमें ऐसा है क्या?
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यह कोई रहस्य नहीं है कि यदि आज गरीब एवं मध्यम वर्ग सबसे अधिक त्रस्त है, तो वह है- बीमारियां. सरकारी अस्पतालों की बुरी स्थिति ने उसे निजी अस्पतालों के रहमो-करम पर छोड़ दिया है. भारत जैसे गरीब देश के नागरिकों को बीमारी पर अपनी कुल कमाई का एक तिहाई लगाना पड़ता है. विश्व के हैप्पी इंडेक्स में सर्वोच्च स्थान पर टिके रहने वाले देशों में से डेनमार्क के लोगों को जहां बीमारी का 15 प्रतिशत, ब्रिटेन के लोगों को 18 प्रतिशत अपनी जेब से देना पड़ता है, वहीं भारत के लोगों को 70 प्रतिशत.
यह भी कम बड़ी विडम्बना नहीं है कि जहां स्वास्थ्य सेवाओं में डेनमार्क अपने जीडीपी का 9.2 प्रतिशत, फ्रांस 9 प्रतिशत, अमेरीका 5.3 प्रतिशत तथा यहां तक कि चीन 3.1 प्रतिशत खर्च करता है, वहीं भारत अब तक मात्र 1.3 प्रतिशत खर्च कर रहा है. गणित बिल्कुल साफ है. जैसा कि सरकार की स्वास्थ्य नीति में उल्लेख किया गया है, यदि वह हो सका, तो बिना कुछ किये ही लोगों की आय में उस 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो जाएगी, जिसे वह अभी बीमारियों पर खर्च कर रहा है. यह व्यक्तिगत लाभ होगा, उज्जवला योजना की तरह. राष्ट्रीय लाभ होगा सो अलग.
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राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति का सबसे महत्वपूर्ण भाग है- स्वास्थ्य बीमा योजना. इस नीति पर अमेरीका के पूर्व राष्ट्रपति ओबामा की हेल्थ केयर पॉलिसी का प्रभाव साफ तौर पर दिखाई दे रहा है. यह है- इसके केन्द्र में बीमा योजना का होना. इसके लिए एकाउंट बैंकों में खोले जा चुके हैं. प्रधानमंत्री बीमा योजना के माध्यम से इसका ट्रायल भी हो चुका है. चूंकि इस योजना का सारा दारोमदार न तो सरकारी खजाने से है और न ही उसकी मशीनरी से, इसलिए इसके सफल होने पर संदेह भी कम ही है. फिलहाल इस योजना की फसल तैयार होने के लिए दो साल का वक्त है. क्या इसकी सफलता एक राजनीतिक विस्फोट नहीं करेगी?
(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं)