बीमार, बीमारी से नहीं, आत्महत्या से मर रहा है!
भारत में इस सदी के पहले 15 सालों में लगभग 3.84 लाख लोगों ने आत्महत्या की, जिसका कारण थीं बीमारियां. अस्थमा, अवसाद, डिमेंशिया, कैंसर, पैरालिसिस और अन्य लंबी असाध्य बीमारियां...
भारत में वर्ष 2001 से 2015 के बीच बीमारियों/स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों से 3,84,768 लोगों ने आत्महत्या की है. बीमारी व्यक्ति को तोड़ती है, दर्द पंहुचाती है. एक सभ्य और जवाबदेह व्यवस्था से हम उम्मीद करते हैं कि वह लोगों को स्वास्थ्य का हक और इलाज़ की सुविधाएं उपलब्ध करवाएगा.. लेकिन अपनी व्यवस्था तो बीमारियों का विकास करवा रही है. बात को थोड़ा साफ़ करता हूं. हम जिस तरह का आर्थिक विकास कर रहे हैं, उससे कैंसर, अस्थमा, अवसाद, हृदय की बीमारियां और संक्रामक बीमारियां बढ़ रही हैं. जलवायु परिवर्तन हो रहा है, जो नई बीमारियों को बढ़ने का रस्ता दे रहा है. ऐसे में स्वास्थ्य पर खर्चा बहुत बढ़ रहा है. ताज़ा स्थिति यह है कि स्वास्थ्य सेवाओं पर जो भी खर्च हो रहा है, उसमें से 80 फीसदी लोगों को अपनी जेब-जमाखर्च से लगाना पड़ता है. सरकार केवल 20 फीसदी खर्च करती है. अपनी सरकार 'स्वास्थ्य-उपचार पर्यटन' को बढ़ावा दी रही है. बात साफ़ है कि अपने स्वस्थ होने से सरकार और बाजार को मुनाफा न होगा; जब अपन बीमार पड़ेंगे तभी तो उन्हें मुनाफा होगा न! भारत एक महान देश है, बहुत तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था है, लेकिन इसके पास महिलाओं, बच्चों, बुजुर्गों के स्वास्थ्य पर खर्च करने के लिए बजट नहीं होता है.
इंडियन ब्रांड इक्विटी फाउंडेशन के मुताबिक, वर्ष 2008 से 2020 के बीच भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का बाजार 16.5 प्रतिशत की शानदार गति से बढ़ेगा. जरा सोचिए कि आर्थिक विकास 7 प्रतिशत की दर से हो रहा है, पर स्वास्थ्य सेवाओं का बाजार उससे कहीं ज्यादा तेज गति से बढ़ रहा है. इन्हीं के मुताबिक वर्ष 2008 में स्वास्थ्य सेवाओं का बाज़ार 45 बिलियन डॉलर था, जो वर्ष 2017 में बढ़कर 160 बिलियन डॉलर और फिर 2020 तक 280 बिलियन डॉलर हो जाएगा. थोड़ी सी भी अक्ल हो तो इस सवाल का जवाब खोजिएगा कि हम आर्थिक विकास किसके लिए कर रहे हैं? भारत में 6.3 करोड़ लोग स्वास्थ्य सेवाओं पर हुए खर्चे के कारण गरीबी की रेखा के नीचे गए हैं.
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बिहार की रामरती देवी को ब्रेन ट्यूमर है. बहुत तकलीफ में है. उनका बेटा खेती करता है. उधार ले-लेकर इलाज़ करवाते-करवाते वे दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) पंहुचे. जनवरी 2017 में बीमारी की वहां पहचान हो गई. वहां बताया गया कि शल्य चिकित्सा ही उनका इलाज़ है. जब उपचार की बारी आई, तब रामरती देवी को ऑपरेशन के लिए 20 फ़रवरी 2020 (तीन साल बाद) की तारीख दी गई; क्योंकि एम्स में मरीजों की संख्या बहुत ज्यादा है. रामरती देवी ने आत्महत्या तो नहीं की, लेकिन उनका जीवन क्या इस स्थिति से कमतर माना जा सकता है?
भारत में इस सदी के पहले 15 सालों में लगभग 3.84 लाख लोगों ने आत्महत्या की, जिसका कारण थीं बीमारियां. अस्थमा, अवसाद, डिमेंशिया, कैंसर, पैरालिसिस और अन्य लंबी असाध्य बीमारियां. बीमारी के कारण हुई आत्महत्याओं के संदर्भ में हमें यह जानना होगा, इनमें से 1.18 लाख व्यक्तियों ने मानसिक रोगों के प्रभाव में और 2.37 लाख लोगों ने लंबी बीमारियों से प्रभावित होकर आत्महत्या कर ली. अपने आप में अवसाद, बायपोलर डिसऑर्डर, डिमेंशिया और स्कीजोफ्रीनियां का सबसे ज्यादा असर दिखाई दिया. ये ऐसे रोग हैं, जिनमें व्यक्ति अपने आपको और अपने व्यवहार को ही नियंत्रित नहीं कर पाता है.
संसद में यह बताया गया है कि पिछले पांच सालों में नक्सल प्रभावित इलाकों में 870 जवान तनाव के कारण मरे. 642 की मृत्यु हृदयाघात से हुई और 228 ने अवसाद के कारण आत्महत्या कर ली. नक्सली हिंसा में केंद्रीय सुरक्षा बल के 323 जवानों की मृत्यु हुई. सच बात तो यह है कि हिंसा, युद्ध और टकराव कभी भी बेहतर समाज के निर्माण की नींव में नहीं हो सकते हैं. हमें अपने विकास की परिभाषा को बदलना होगा, ताकि गैर-बराबरी, शोषण और संसाधनों पर एकाधिकार की व्यवस्था को खत्म किया जा सके. इससे ही समाज और व्यवस्था में पनप रहा अवसाद खत्म हो सकेगा. वास्तव में अवसाद-निराशा को आर्थिक विकास की परिभाषा से अलग करके नहीं देखा जा सकता है.
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भारत में इन 15 सालों में बीमारी के कारण सबसे ज्यादा आत्महत्याएं महाराष्ट्र (63,013), आंध्रप्रदेश (48,376), तमिलनाडु (50,178), कर्नाटक (48,053) और केरल (37,465) में हुईं. इन पांच राज्यों में इस कारण हुई कुल आत्महत्याओं में से 2,47,085 यानी 64 फीसद मामले दर्ज हुए. हमें इस पहलू पर भी नज़र डालनी होगी कि देश में पैरालिसिस (9,036), कैंसर (11,099), एचआईवी (9,415) के कारण भी आत्महत्याएं हुईं. ये तथ्य दर्शाते हैं को लोक स्वास्थ्य सेवाओं को जिस तरह से कमज़ोर बनाकर रखा गया है, उनका समाज पर बहुत गहरा असर पड़ता है. बीमारियों के सन्दर्भ में लोग तभी आत्महत्याएं करते हैं, जब उन्हें यह महसूस होने लगता है कि उनकी बीमारी पर बहुत आर्थिक व्यय हो रहा है और इससे परिवार कर्ज़दार हो गया है. साथ ही कई मामलों में परिवार और समाज में उन्हें कटु व्यवहार का सामना करना पड़ता और जब वे एकाकी होते जाते हैं. भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के लिए 70 प्रतिशत लोग सार्वजनिक यानी सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का उपयोग करते हैं, किन्तु इसके बावजूद भी उन्हें कुल स्वास्थ्य व्यय का 80 फीसदी हिस्सा खुद वहां करना पड़ता है. यानी जांचें, दवाएं सरीखे खर्चे लोगों पर ही डाले जाते हैं. नियमित अंतराल पर राज्य और केंद्र सरकारें स्वास्थ्य योजनाएं लागू करती रहती हैं, किन्तु स्वास्थ्य के हक को कानूनी और मूलभूत अधिकार का जामा नहीं पहनाती है.
आमतौर पर भारतीय नागरिक स्वास्थ्य योजनाओं के तहत हितग्राही होता है, स्वास्थ्य सेवा का हकदार नहीं! जरा विचार कीजिये कि बीमारियों के आर्थिक, शारीरिक और भावनात्मक आघात से हम सभी वाकिफ हैं, किन्तु हमारी स्वास्थ्य सेवाओं में 'मरीज़ नागरिकों' के लिए परामर्श और सलाह की व्यवस्था ही नहीं होती है. इस व्यवस्था से मरीज़ नागरिकों से संवाद करके उनकी मनःस्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है और आत्महत्या जैसा कदम उठाने से रोका जा सकता है. इसके उलट हमारी स्वास्थ्य संस्थाएं मरीजों और उनके परिजनों से दुर्व्यवहार करने के लिए कुख्यात हो गई हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक मुद्दों पर शोधार्थी हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)