छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में बसपा ने कांग्रेस को दिया झटका
कांग्रेस को अब भी मध्य प्रदेश में बसपा से गठबंधन की उम्मीद बनी हुई है, लेकिन बसपा ने इस फैसले से उसके ऊपर अपनी शर्तों को मानने के लिए दबाव तो बना ही दिया है.
जब कर्नाटक के मुख्यमंत्री के रूप में एचडी कुमारस्वामी के शपथ-ग्रहण समारोह के दौरान सोनिया गांधी और मायावती एक दूसरे के गले मिल रही थीं, तब विपक्षी एकता की संभावना प्रकट तौर पर दिखने लगी थी. हालांकि गठबंधन को लेकर उस समय भी आशंका प्रकट की जा रही थी, लेकिन पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों को लेकर 10 सितंबर को कांग्रेस द्वारा आयोजित भारत बंद के दौरान सपा-बसपा द्वारा अलग से कार्यक्रम करने से इस आशंका को और बल मिला था.
अब बसपा द्वारा छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के बागी अजीत जोगी की छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस (जे) के साथ आगामी विधानसभा चुनाव के लिए गठबंधन करने के फैसले ने इस आशंका को हकीकत में तब्दील करना शुरू कर दिया है. वहां बसपा 35 सीटों पर और छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस (जे) 55 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. इतना ही नहीं, बसपा ने मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए 22 सीटों पर अपने प्रत्याशियों के नाम की घोषणा कर दी है.
यह भी देखें : अगड़े और दलितों के झगड़े में कहीं केंद्र को न हो जाए नुकसान
कांग्रेस को अब भी मध्य प्रदेश में बसपा से गठबंधन की उम्मीद बनी हुई है, लेकिन बसपा ने इस फैसले से उसके ऊपर अपनी शर्तों को मानने के लिए दबाव तो बना ही दिया है. जाहिर है कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी गठबंधन खड़ा करने की राजनीति के लिए यह बड़ा झटका है.
हालांकि बसपा का यह फैसला छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के लिए है, लेकिन इसका प्रभाव केवल इन्हीं दो राज्यों तक सीमित नहीं होगा. बसपा ने छत्तीसगढ़ में उस पार्टी के साथ गठबंधन किया है, जिसके कांग्रेस के साथ रिश्तों में खटास आ चुकी है. कांग्रेस से निष्कासित किए जाने के बाद जोगी ने 2016 में अपनी अलग पार्टी बना ली थी. त्रिकोणात्मक संघर्ष की स्थिति में सत्ता विरोधी मतों के विभाजन से भाजपा को फायदा होने की संभावना है.
पिछले तीन विधानसभा चुनावों में छत्तीसगढ़ में भाजपा और कांग्रेस के बीच मतों का अंतर तीन प्रतिशत से कम ही रहा है, जबकि बसपा को चार प्रतिशत से कम मत कभी नहीं मिले हैं. इसी तरह मध्य प्रदेश में भी कांग्रेस को उत्तर प्रदेश से सटे बघेलखंड, बुंदेलखंड और चंबल में नुकसान हो सकता है, जहां बसपा की मौजूदगी है. यहां आगामी विधानसभा चुनाव में परिणाम क्या होगा, अभी कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन इसकी गूंज-अनुगूंज राष्ट्रीय पटल पर अभी से सुनाई देने लगी है.
कांग्रेसी नेताओं के बयानों में बसपा की इस राजनति से उपजी बेचैनी का आभास लगाया जा सकता है. एक कांग्रेसी नेता का कहना था कि छत्तीसगढ़ में बसपा- छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस (जे) के बीच गठबंधन भाजपा के इशारे पर किया गया है. सत्ता के लिए प्रयासरत कांग्रेस द्वारा ऐसा कहा जाना अस्वाभाविक नहीं है, लेकिन बसपा का कदम भी अस्वाभाविक नहीं है.
यह भी देखें : कर्नाटक में कसौटी पर कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन
बसपा से कांग्रेस यह क्यों उम्मीद करती है कि वह उसके लिए अपने हितों को त्याग दे. ऐसा तो नहीं हो सकता कि बसपा, कांग्रेस के हिसाब से गठबंधन करे. यानी जहां कांग्रेस कमजोर है, वहां वह बसपा के साथ गठबंधन कर अपनी जीत सुनिश्चित कर ले और जहां बसपा कमजोर है, वहां वह उससे अपना हाथ छुड़ा ले. अगर गठबंधन धर्म का तकाजा एक-दूसरे के हितों का खयाल रखना है, तो अपने हितों की रक्षा करना भी उसका अंग होता है. गठबंधन राजनीति में हर दल अपना विस्तार चाहता है, कभी-कभी तो अपने साथी की कीमत पर भी. कांग्रेस मध्य प्रदेश में बसपा से गठबंधन करना चाहती है, लेकिन छत्तीसगढ़ और राजस्थान में अकेले लड़ना चाहती है.
दलित संगठनों की यह त्रासदी है कि वे राष्ट्रीय अपील के बावजूद अखिल भारतीय स्वरूप ग्रहण नहीं कर सके, वे क्षेत्रीय ताकत ही बनकर रह गए. बसपा से यह उम्मीद थी कि वह दलित राजनीति का दायरा उत्तर प्रदेश के बाहर बढ़ाएगी. इसके लिए उसने प्रयास किया भी, लेकिन संभावना के मुताबिक वह आगे नहीं बढ़ सकी. अब मोदी विरोध की राजनीति में बसपा के लिए सौदेबाजी की जरिये आगे बढ़ने की उम्मीद एक बार फिर जग गई है. बसपा को लगता है कि विपक्षी गठबंधन में एक बड़ा हिस्सा पा सकती है. अगर विपक्ष ने उसकी आकांक्षा को तुष्ट नहीं किया, तो बसपा का जो होना होगा, वह तो होगा ही, लेकिन कांग्रेस को उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है. बसपा को अपनी ताकत का अच्छी तरह अहसास है.
यह भी देखें : मोदी-शी बैठकः भू-राजनैतिक परिस्थितियों का दबाव
उसे पता है कि 2019 के लोक सभा चुनाव का असली अखाड़ा उत्तर प्रदेश होगा और उसके बिना विपक्षी गठबंधन अधूरा होगा. यहां कांग्रेस के साथ-साथ सपा पर भी बसपा से गठबंधन के लिए दबाव बढ़ेगा, जो शिवपाल यादव द्वारा अलग पार्टी बनाए जाने के बाद पहले से ही दबाव में आ चुकी है. ऐसे में यह भी संभव है कि कांग्रेस के रणनीतिकार भीम आर्मी से तालमेल बढ़ाने की वैकल्पिक रणनीति पर विचार करें.
पहली नजर में यह दिख सकता है कि विपक्षी एकता में बसपा बाधक है, लेकिन असली समस्या यह है कि विपक्ष में कोई एक पार्टी इतनी ताकतवर नहीं है जिसकी सत्ता को हर पार्टी स्वीकार करे. अगर कांग्रेस ताकतवर होती, तो यह नौबत नहीं आती. ऐसे में बसपा यह सोच सकती है कि वह कांग्रेस से कम कैसे है? यह बात न केवल बसपा पर लागू होती है, बल्कि ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस पर भी लागू हो सकती है. अगर मायावती और ममता बनर्जी अपने को प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदार मानें, तो यह अप्रत्याशित नहीं होगा.
बहरहाल, बसपा के इस कदम ने विपक्षी गठबंधन की विश्वसनीयता को लोक सभा चुनाव से पहले ही झटका दे दिया है. मोदी विरोधियों से जनता यह पहले से ही सवाल कर रही है कि मोदी का विकल्प क्या है? इस घटना के बाद ऐसे लोगों की यह धारणा और पुख्ता होगी कि अगर विपक्ष राजग को हराकर 2019 लोक सभा चुनाव जीत गया, तो उसके बाद बनी सरकार के स्थायित्व की कोई गारंटी नहीं होगी. बसपा के इस फैसले ने विपक्षी राजनीति की कमजोरी को उजागर कर दिया है. इसे केवल छत्तीसगढ़ या मध्य प्रदेश की राजनीति तक सीमित करके देखना, इसकी अहमियत को कमतर करना है. छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान विधान सभा चुनाव विपक्षी एकता के लिए एक लिटमस टेस्ट है. इससे भावी राजनीति प्रभावित होगी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)