डियर जिंदगी : तुम समझ रहे हो मेरी बात!
बच्चों के मन की बात बड़े नहीं समझ रहे, बड़ों के मन की बात `दूसरे` बड़े नहीं समझ रहे. इस तरह हम सब एक-दूसरे के साथ जीते हुए भी एक-दूसरे को नहीं समझ रहे.
कैसे हो! बहुत अच्छा! हर कोई ऐसे ही पूछता है, कैसे हो और अधिकांश उत्तर ऐसे ही मिलते हैं, बहुत अच्छा. जैसा सवाल, वैसा जवाब. यह बाहरी दुनिया के लिए ठीक है, लेकिन अंदरूनी सर्किल भी ऐसा ही हो जाए तो कैसे चलेगा. बिना कहे भी समझने का दौर बहुत पुराना नहीं है. तब आंखों से मन की बात पढ़ लेने का हुनर कोई खास चीज़ नहीं थी, लेकिन अब दुर्लभ हो चली. अब कहां, कोई बिना कहे समझता है. वह दिन हवा हुए, जब लोग लिफाफा देखकर खत का मजमून भांप लिया करते थे.
समाज को इस हुनर के बड़े फायदे थे. एक इंसान के भीतर हो रही घुटन को अक्सर दूसरे सहजता से भांप लिया करते थे. हर कोई दूसरे के लिए जैसे ही अपने को खोलता है, उसकी सीमा का विस्तार स्वत: हो जाता है. खुद को अपने में समेटे रहने का संकोच, लोभ हमारे भीतर इतना बढ़ रहा है कि कई बार यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि हम इसी ग्रह के लोग हैं.
भीतर कुछ ऐसा है, जो एक-दूसरे को आसानी से जोड़ता है. जो एक-दूसरे के लिए है. हम दूसरे की परिभाषा से जिंदगी चलाना चाहते हैं. इसी फेर में 'मेरे-तुम्हारे' की लकीर बहुत लंबी हो गई. यह ख्वाहिश धरती की आसमां से दूसरा चांद मांगने जैसी है.
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एक-दूसरे के मन की बात को समझना उनके लिए भले मुश्किल हो, जो तनिक दूर हैं. लेकिन वह जिनके हम मन में बैठे होने का दावा करते हैं, वह क्यों 'इत्ती' सी बात नहीं समझ पा रहे हैं, जिनसे जिंदगी तबाह हो रही है. बच्चों के मन की बात बड़े नहीं समझ रहे, बड़ों के मन की बात 'दूसरे' बड़े नहीं समझ रहे. इस तरह हम सब एक-दूसरे के साथ जीते हुए भी एक-दूसरे को नहीं समझ रहे.
कैसे लोग उस जमाने में बिना 'चिट्ठी और तार' सब समझ जाया करते थे. कैसे दूर गांव से पिता कभी भी शहर में इस आशंका से निकल पड़ते थे कि बेटा शहर में बीमार है.. दुखी है. बिटिया के मायके में कुछ ठीक नहीं. इसकी सूचना भला कैसे माता-पिता, प्रियजनों को बिना भेजे मिल जाती थी. अब दिन-रात मोबाइल साथ में रहने के बाद भी यह जानकारी नहीं मिल रही!
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क्यों? यह क्यों लाखों जीवन को उदासी, अवसाद और दुख की ओर धकेल रहा है. साथ रहने की उदासी, अकेले रहने के कष्ट से कहीं अधिक गहरी होती है. ऐसा क्यों, यह जानना कोई रॉकेट साइंस नहीं है. पहले मन के तार आसानी से जुड़ते थे. मन-वाया-मन! पहले हम एक-दूसरे को समझने के लिए सुनते और समय देते थे. समय देना छोटा काम नहीं था. अकेले समय देने से ही रिश्तों के बीच के जाले साफ हो जाया करते थे. रिश्तों पर अगर कहीं से कुछ धूल आ भी जाती तो उसे समय आसानी से उड़ा देता. लेकिन अब कहां!
अब सारे मामले फोन, फेसबुक और सोशल मीडिया पर सुलझाए जा रहे हैं. रिश्ते तकनीक का दबाव नहीं संभाल पा रहे हैं. हम उन चीजों, रिश्तों को महत्व दे रहे हैं, जो सहायक हैं लेकिन जीवन का आधार नहीं. हम उन रिश्तों से मुंह चुरा रहे हैं, उनके लिए समय की कमी का बहाना बना रहे हैं, जिनके होने से ही हमारा अस्तित्व है.
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कुछ दिन के लिए तकनीक से दूर मन के पास जाइए. दूसरों को अपने प्यार से परिचित कराने की जगह, लाइक की चिंता में दुबले होने की जगह उनके साथ समय बिताइए, जहां से वह स्नेह, प्रेम आता है. जो जिंदगी को हर बला से बचा सकता है.
हम तारों की कीमत पर चांद, सूरज की जगह धूप का टुकड़ा मांग रहे हैं.इन बढ़ती मांगों ने मन को मन से दूर कर दिया है. हम जब से खुद से दूर हुए तभी तो उनसे अलग हुए, जिनके साथ रहने के लिए कसमें खाते हैं. जिनके नाम पर दिन को रात और रात को दिन बनाए हुए हैं.
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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)
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