‘जिंदगी धूप तुम घना साया!...’ जावेद अख्‍तर के रचे और जगजीत सिंह की आवाज से सजे इस गीत में धूप से बचने के लिए छांव नहीं ‘घने’ साए पर जोर दिया गया है. जिन्‍हें संगीत, जगजीत सिंह से प्रेम है, उनके कान, दिल और दिमाग से यह गीत बार-बार गुजरा होगा.


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लेकिन, संभवत: तब ‘घने’ साए की इतनी दरकार नहीं थी, जितनी आज महसूस की जा रही है. तब छांव से भी काम चल जाता था. लेकिन आज नहीं! इसलिए यहां दो पल ठहरकर सोचना होगा कि क्‍यों छांव की जगह ‘घना’ साया कहा गया!


असल में छांव, छाया तो दूसरे की हो सकती है. लेकिन साया तो हमारा होता है. हमसाया, हमसफर, हमख्‍याल. ऐसा हमदम जिसके बाद ‘तीसरे’ की गुंजाइश ही न हो.


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अब जबकि हर कदम जिंदगी में ‘धूप’ कड़ी, गहरी होती जा रही है. ऐसे में हमारे लिए ‘घने’ साए के संकेत को समझना बेहद जरूरी है. ऐसा साया जो इस कदर गहरा, घना हो जाए कि सारा तनाव, उदासी और डिप्रेशन वहां जाकर घुल जाए.


जब यह गीत लिखा गया, उस समय किसी तनाव, चिंता, परेशाानी में डूबे व्‍यक्ति के पास सहारे कहीं ज्‍यादा थे. तब उसके पास आज जैसा समय का अकाल नहीं था. एक आवाज पर हाजिर दोस्‍त थे. भरापूरा परिवार मोटे तौर पर साथ रहता था. परिवार की जिम्‍मेदारी साझा होती थी.


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तनाव तब भी था. नौकरी न होना, छूट जाना, काम की कमी, परिवार में कलह तब भी इसी तरह थी, लेकिन उसके बाद भी कुछ ऐसा था, जिसमें तनाव बह जाया करता था. तनाव कम करने, उसे धीरे-धीरे कम करते जाने की पर्याप्‍त वजहें हमारे पास मौजूद थीं.


ढेर सारे भाई-बहन थे. आज की भाषा में कहें तो ‘कजिन्‍स’ की फौज थी. वहां हर मुश्किल चेहरे से पढ़़ ली जाती थी और अंतर्मन की ओर उसकी अंतर्यात्रा शुरू होने के पहले ही उसका रुख बाहर की ओर मोड़ दिया जाता था.


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पहले एक-दूसरे के लिए किए गए काम का हिसाब रखने की जगह सारा ध्‍यान इस बात पर रहता था कि जरूरत पड़ने पर हमारे पास एक-दूसरे के लिए किंतु-परंतु का उपयोग करने की जगह कितना अधिक से अधिक कष्‍ट सहने का हौसला है.


तो वह लोग, वह समूह जो एक-दूसरे के लिए खतरा उठाने, साथ निभाने को तैयार, तत्‍पर रहते थे. असल में वही हमारा ‘घना’ साया थे.


‘घना’ साया से अर्थ ऐसे लोगों से हैं, जिनके बिना हमारी जिंदगी का अस्तित्‍व खतरे में पड़ जाए. 
हर व्‍यक्‍ति के लिए उसका ‘घना’ साया अलग-अलग लोग हो सकते हैं. जैसे सचिन तेंदुलकर के लिए उनका ‘घना’ साया उनके भाई अजित तेंदुलकर थे. कवि नीरज के लिए एसडी वर्मन थे.


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किसी के लिए उसका घना साया, भाई हो सकता है तो किसी के लिए दोस्‍त, बहन, मां, पिता या कोई ऐसा मेंटोर जिससे सबकुछ कहना, शेयर करना आसान हो. जिससे कुछ कहने में इस बात का डर न हो कि आपसे तो कह रहा हूं, लेकिन किसी से कहिएगा मत!


जबसे मोबाइल फोन, गैजेट्स आ गए हैं, उसी दिन से विश्‍वास का संकट शुरू हो गया. अब जिस बातचीत को सबसे अधिक निजी कहा जाता है, उसकी रिकॉर्डिंग, टेप उतनी ही जल्‍दी लीक होने का डर बना रहता है. जब निजी कुछ रहा ही नहीं, जो कहा जा रहा है, उसके निरंतर ‘बाहर’ आने का डर बना हुआ है तो दिल की बात कही किससे जाए. जो आप सोच रहे हैं, उस तक भी तकनीक अपनी पहुंच बना चुकी है. यहां असल सवाल तकनीक का नहीं, हमारे भीतर एक-दूसरे के लिए घट गए विश्‍वास का है.


इसलिए कम से कम एक ऐसे ‘घने’ साए की दरकार है, जिससे बिना डर, आशंका के अपने दिल के जज्‍बात, डर, भय शेयर किए जा सकें. यह दिल की तबियत, उसकी सेहत के साथ ही मन, आत्‍मा के लिए भी अमृत का काम करता है.


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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)


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