कम से कम एक दोस्त, हमख्याल बनाइए, जिससे सबकुछ कहा जा सके. जो हर हाल में आपके साथ रहे. भले दुनिया मुंह फेर ले. भले कोई आवाज न दे. लेकिन उसके पास आपकी आवाज सुनने का वक्त रहे और आप तक उसकी आवाज आती रहे!
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'डियर जिंदगी' में हम उदासी, डिप्रेशन और निराशा के खतरनाक मोड़ आत्महत्या पर निरंतर संवाद कर रहे हैं. पाठकों की हिस्सेदारी इस संवाद को जीवंत बनाने में खास भूमिका निभाती आई है. अब तक मिले ई-मेल, एसएमएस, व्हाट्सअप का सारांश है कि हमें मन की ओर आती भावनाओं को फिल्टर करने की सबसे अधिक जरूरत है.
दो मिनट ठहरकर सोचिए. आपके मोबाइल, कंप्यूटर से पानी तक साफ करने के लिए प्यूरीफायर, एंटी वायरस हैं, लेकिन चेतन, अवचेतन मन की ओर दौड़ती भावना के लिए कोई फिल्टर नहीं. कहीं कोई सिस्टम ऐसा नहीं, जिससे इस बात को समझा जा सके कि मन की ओर जो फेंका जा रहा है, उसमें कितना 'कचरा' है.
हमें अपने मन, आत्मा की ओर आ रहे विचार पर फिल्टर लगाना होगा. इससे ऐसे विचारों की स्कैनिंग संभव होगी जो दूषित हैं. हमारी प्रकृति, विचार, मनुष्यता के विरुद्ध हैं. आत्महत्या इनमें सबसे घातक है.
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अच्छी भली जिंदगी चल रही है. मौज है. जीवन पर प्रसन्नता की छाया है. तभी कुछ विचार पड़ोसी की 'खिड़की' से ड्राइंग रूम में दाखिल होते हैं- 'तुम्हारा बेटा पढ़ने में कमजोर है! कार पुरानी. कमाते तो इतना हो, पर रहते कैसे हो. बच्चों की शक्लें देखो, लगता है, खाने-पहनने का सलीका नहीं. बच्चों को कुछ नहीं आता.'
'खिड़की' से आए यह विचार सीधे दाखिल तो दिमाग के रास्ते होते हैं, लेकिन असर मन, आत्मा तक करते हैं. पड़ोसी की तुलना रूपी 'बम' से हम बैठे-बिठाए अपना चेतन-अवचेतन मन जला बैठते हैं. ईर्ष्या, तुलना और इनसे उलझने का अहंकार जीवन की शांति, अमन को खत्म ही नहीं करता, बल्कि निराशा के बीज भी घर के बगीचे में बिखेर देता है.
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थोड़ी देर के लिए, अतीत के आंगन की सैर पर चलिए. क्या दिन थे, जब माता-पिता बच्चों की तारीफ उनके सामने नहीं करते थे. लेकिन बच्चे के पीठ पीछे किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि बच्चे की बुराई कर दे. हां, बच्चे की आलोचना अगर सही है तो ठीक, लेकिन अगर उसमें जरा भी ईर्ष्या, तुलना का भाव होता, तो उसे वहीं पकड़कर 'ठीक' कर दिया जाता. बच्चे के मन में दूसरे की छाया कम से कम पड़े ऐसी कोशिश की जाती थी.
हमारे बचपन के दिनों में घर पर बच्चे को अक्सर डांट, कभी-कभी पिटाई का सामना करना होता था, लेकिन मानसिक रूप से उसकी दुनिया में किसी का दखल नहीं होता था. तब और अब की परवरिश में यह बड़ा अंतर था.
बच्चा जैसा है, हमारा है. दोस्त जैसा है, सबसे प्यारा है. रिश्ते में 'कुछ' करने का महत्व तो हमेशा से था, लेकिन उस कुछ का वजन नियंत्रित था. रिश्तों में धन, हैसियत का असर था, लेकिन वह रिश्ते पर भारी नहीं था. रिश्ते अपनी जगह रहते थे. अंतिम सांस तक उनके प्रति स्नेह, आत्मीयता तमाम मतभेद के बाद भी निभाई जाती थी. विश्वास भी इतना लापता नहीं था. वह आज की तरह इतना 'अस्थिर' नहीं था.
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दोस्तों के साथ अनियमित गप्पें थीं. गप्प में कल्पना, जीवन का रस इतना गहरा था कि तनाव कहीं नहीं ठहरता. हर पल जीवन में 'तरक्की' की चिंता नहीं थी, बल्कि जीवन के स्वाद के प्रति गहरा सरोकार था. छुट्टी के दिन का अर्थ था, दिमाग को ऐसे काम से मुक्ति जिसमें चिंता का पुट हो. बतकही, बतरस जीवन के रक्षा कवच थे.
अब यह सब छूटता जा रहा है. इसलिए वेतन, 'सीटीसी' और पैकेज के साथ जीवन में संवाद, गप्प और बेमतलब की बातों का ख्याल करिए. कम से कम एक दोस्त, हमख्याल बनाइए, जिससे सबकुछ कहा जा सके. जो हर हाल में आपके साथ रहे. भले दुनिया मुंह फेर ले. भले कोई आवाज न दे. लेकिन उसके पास आपकी आवाज सुनने का वक्त रहे और आप तक उसकी आवाज आती रहे!
(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)
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