डियर जिंदगी के सौ से अधिक लेख के लगभग एक महीने बाद मैं फिर से हाजिर हो रहा हूं. इस छोटे से ब्रेक के दौरान मैंने दो तरह के लोगों से मिलने की कोशिश की. पहले उनसे जो इस कॉलम को निरंतर पढ़ रहे थे. दूसरे वह जो तनाव और आत्‍महत्‍या पर चिंतित हैं. इस विषय पर कुछ न कुछ पढ़ने, संवाद की कोशिश करते रहते हैं.


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इस दौरान अहमदाबाद में छोटे से 'जीवन संवाद' में मुझे एक सुधी पाठक मिले. जो हिंदी, गुजराती और अंग्रेजी भाषा में काम करते हैं. पढ़ने-लिखने के काम से जुड़े हैं. उन्‍होंने मुझे एक दूसरे मित्र के माध्‍यम से खोजा. उन्‍होंने शिकायत करते हुए कहा कि आपने इसे अचानक बंद करने का फैसला कैसे कर लिया. मैंने कुछ तर्क देने का प्रयास किया तो उन्‍होंने जो कहा, उसके बाद मेरी कुछ कहने की हिम्‍मत नहीं हुई.


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उन्‍होंने कहा, 'यह अगर आप अपने लिए लिख रहे थे, तो कोई बात नहीं. लेकिन अगर इसका उद्देश्‍य लोगों से संवाद था. तनाव और आत्‍महत्‍या के नजदीक पहुंच रहे लोगों तक पहुंचना था. जिंदगी को जिंदगी के रास्‍ते पर मुस्‍कान के साथ लाना था, तो इसे बंद कैसे किया जा सकता है. आप समझ नहीं रहे हैं कि भारत में अकेले 2015 में आत्‍महत्‍या के कारण हमने 14 से 29 साल के 50,000 से अधिक युवाओं को खो दिया है. एशियन जर्नल ऑफ साइकाइट्री के अनुसार विश्‍वविद्यालयों में पढ़ने वाले युवाओं में निराशा का स्‍तर 53 प्रतिशत तक पहुंच गया है. वह इतने पर ही नहीं रुके. वह जारी रहे...


'आप इनके लिए लिख रहे हैं, आपको डियर जिंदगी के लाइक, शेयर से फर्क नहीं पड़ना चाहिए. आपको समझना चाहिए कि आप गुलाब की नहीं, आम की खेती कर रहे हैं. जिसमें समय लगता है. लेकिन उसका असर जमाने तक रहता है.' हमारे बीच देर तक बात होती रही. अहमदाबाद के बाद कुछ और शहरों से गुजरा. मुझे लगा 'डियर जिंदगी' को लौटना ही चाहिए.


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जिंदगी में मिट्टी की जगह 'रेत' ले रही है. वही रेत जो सबकुछ सोख लेती है. रूखी, दूसरों को बंजर कर देने की आदत से मजबूर. उसने हमारे जीवन में प्रेम रूपी मिट्टी का अपरहण कर लिया है. मिट्टी में दूसरों को उपजने देने का सरल गुण होता है. अपरिचितों के लिए स्‍नेह होता है. मन में विश्‍वास और स्‍वभाव में आनंद. रेत इनकी जगह जिंदगी में बस हसरतों की अधूरी प्‍यास भर रही है. रेत ने जीवन के सारे प्रेम को सोख लिया है. वह कुछ नहीं लौटाती. रेत के आंगन में प्रेम है ही नहीं, वह तो बस सोखना जानती है. उदारता और दूसरों को सहारा देने का गुण जिस मिट्टी में रहा है, वह दुर्लभ होती जा रही है.


जिंदगी किसके लिए है. जिसके भी लिए है, क्‍या उसके साथ वह मजे में बीत रही है. अगर हां, तो इससे भला क्‍या होगा. लेकिन अगर इस हां में ज़रा भी झिझक है, तो अपनी पूरी विचार, जीवन प्रक्रिया पर सोचने का यह सही समय है. 'डियर जिंदगी' को एक बार फि‍र पढ़ने, इसके लिए स्‍नेह बनाए रखने का शुक्रिया.


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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)


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