डियर जिंदगी : जिंदगी, जोखिम और तीन बहाने…
बहाने हमें ‘जस का तस’ बने रहने में बड़ी मदद करते हैं. असल में बहाने हमें एक प्रकार का कवच प्रदान करते हैं. हम खुद को हमेशा इस कवच में रखते हैं, ताकि कहीं से भी हमारी जड़ता पर चेतना का कोई प्रहार न हो जाए.
अगर दुनिया में कोई ऐसा देश होता, जिसे सबसे अधिक बहाने बनाने का अवॉर्ड दिया जाना होता तो शायद हमारा देश गोल्ड मेडल से कम का हकदार नहीं होता. हमें बात-बात में बहाने बनाने में विशेष योग्यता हासिल है. हमारे पास हर चीज के लिए इतने बहाने तैयार हैं कि हम बहानों का निर्यात भी कर सकते हैं. सरकार और समाज दोनों ने ही खुद को बहानों के हिसाब से तैयार कर लिया है.
बहाने हमें ‘जस का तस’ बने रहने में बड़ी मदद करते हैं. असल में बहाने हमें एक प्रकार का कवच प्रदान करते हैं. हम खुद को हमेशा इस कवच में रखते हैं, ताकि कहीं से भी हमारी जड़ता पर चेतना का कोई प्रहार न हो जाए. परंपरागत रूप से एक प्रकार के पेशे में कैद रहने वाले समाज में जोखिम लेने की क्षमता वैसे भी निरंतर कम होती जाती है. हम हर चीज के लिए कुछ न कुछ तर्क गढ़ते ही रहते हैं.
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मेरे विचार में आम भारतीय तीन चीजों में सबसे अधिक बहाने बनाते हैं. पहला, न पढ़ने का. लोगों से पूछिए कि क्या पढ़ा, आखिरी किताब कौन-सी थी. तो वह पहले आश्चर्य से आपकी ओर देखते हैं कि आप भला कैसे पढ़ लेते हैं. फिर किताबों के महंगा होने पर सवाल करेंगे और उसके बाद बहानों का सैलाब आ जाता है. हमारे देश में पढ़ाई-लिखाई का अर्थ केवल स्कूल और कॉलेज की शिक्षा से लगाया जाता है. जबकि असल पढ़ाई तो उसके बाद शुरू होती है. अपनी लगन की तलाश में हमें पंछियों की उड़ान और हौसले की जरूरत होती है, दुर्भाग्य से हमारे समाज में ऐसे उदाहरण बहुत कम हैं. हम बच्चों को नया, उनके मन का करने के लिए जरूरी किताबें, समय और हौसला देने में अभी भी बहुत पीछे चल रहे हैं.
दूसरा, विरोध न करने का. हम मोटे तौर पर चली आ रही चीजों के पक्ष में होते हैं. जो हो रहा है, जैसा चल रहा है, वैसा चलने दीजिए. यही कारण है कि हमारे यहां सामाजिक कुरीतियों पर विरोध के स्वर बेहद धीमे होते हैं. शताब्दी लग जाती है, एक कुप्रथा के विरोध में. उसके बाद भी उसके बीच मौजूद रहते हैं. क्योंकि हम मोटे तौर परयथास्थितिवादी हैं. हम फैशन (सभ्यता) को अपनाते हैं, उसे बदलते रहते हैं, लेकिन संस्कृति (कल्चर) के परिवर्तन का नाम हमारी नींद उड़ा देता है. सती प्रथा, बाल विवाह और ट्रिपल तलाक (Triple Talaq) इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं.
इसका सबसे बड़ा खराब असर यह हुआ कि हमारे समाज का बहुत बड़ा हिस्सा लगभग ‘अचेतन’ है. उसकी अपनी कोई समझ नहीं है. उसका अपना कोई चिंतन नहीं है. हर बार वह उन भ्रष्ट, लुटेरे नायकों की ओर देखता रहता है, जो उसे कुप्रथाओं, अशिक्षा और कुरीतियों के जंजाल में उलझाए रहते हैं.
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तीसरा, एक ही चीज से चिपके रहना. जैसे एक खानदान वकीलों का है. तो दूसरा डॉक्टरों का. यह भारत में बड़ी समस्या है. इसका सबसे खराब असर हमारी सोचने-समझने और तर्क करने की क्षमता पर पड़ता है. लोग वही चुने जा रहे हैं, क्योंकि उसमें उनके लिए सुविधाओं का अंबार है. इसलिए हम एक उपभोक्ता देश तो बन गए हैं, लेकिन अभी भी हम आविष्कारक नहीं है. हम अनुसंधान में बेहद पीछे रहने वाले देश हैं. क्योंकि जिनके पास भी साधन, सुविधाएं हैं, वह उसे बनाए रखने में ही पूरी ऊर्जा झोक देते हैं. तो नया आएगा कहां से.
हम शायद भूल रहे हैं कि जिंदगी अपने आपमें सबसे बड़ा जोखिम है. बच्चा तब तक सबसे अधिक सुरक्षित है, जब तक वह गर्भ में है. लेकिन उसे वहां से बाहर आकर सबसे असुरक्षित दुनिया का सामना करना होता है. यहां हर कदम पर जीवन को खतरा है.
असल में ध्यान से देखें तो जिंदगी और जोखिम दोनों एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं. करोड़ों लोग इसलिए मंजिलों की तलाश में निकलते ही नहीं कि न जाने आगे का 'मौसम' कैसा होगा. जबकि 'मौसम' उनके इंतजार में बैठा रहता है कि कहीं उसके कारण सफर पर निकलने वालों पर मुसीबत न आ जाए.
इसलिए, आइए जीवन के बारे में कुछ नया सोचें. इस एक छोटी-सी जिंदगी में करने को कितने काम पड़े हैं. एक जिंदगी में न जाने कितना जी लेना बाकी है. खुद को बदलिए, क्योंकि बदलाव ही खुद को जिंदा रखने की इकलौती कोशिश है, जो हमारे बस में है.
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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