कुछ शब्‍द जो निरंतर अपने अर्थ से मुक्‍त होते जा रहे हैं, उनमें से एक है- 'मैं आपके साथ हूं'. किसी को संबल देते समय, किसी को साहस देते समय अक्‍सर हम कितने भोलेपन से यह कहते हैं कि मेरे लायक कुछ हो तो बताइएगा.


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लेकिन क्‍या हमें खुद इस बात का एहसास होता है कि जब हम यह कह रहे हैं, तब भी यह जानते हैं कि हम ऐसा नहीं कर पाएंगे. यह भी हो सकता है कि ऐसा करना हमारे लिए संभव ही न हो. लेकिन फिर भी सांत्‍वना के रूप में ही सही, लेकिन हम यह कहते जरूर हैं!


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हम असल में समझते ही नहीं कि यह झूठे वायदे का सवाल भर नहीं है. यह तो उससे कहीं गहरे जाकर किसी के साथ छल करने जैसी चीज है. जो कर नहीं सकते, उसके बारे में हम कैसे हामी भर देते हैं.


आहिस्‍ता-आहिस्‍ता यह हमारी आदत होती जा रही है. सच मत कहो. भले टाल दो. लेकिन असली बात 'गोल' कर जाओ. यह 'गोल' कर जाने की आदत आखिर लौटकर जाएगी कहां, यह आएगी तो हमारे पास ही. आज जिससे बचने के लिए कोई भी वायदा करके 'टाल' रहे हैं, उस 'बूमरैंग' का आपके पास लौटना तय ही है. उससे बचना संभव नहीं.


'डियर जिंदगी' को ऐसा ही एक सहज, स्‍नेहिल  प्रसंग छत्‍तीसगढ़ रायपुर से विपिन दुबे ने भेजा है. उन्होंने लिखा है, 'मैं अपने करियर की शुरुआत इंश्‍योरेंस मैनेजर के रूप में एक कंपनी से की. जिन्‍होंने मुझे अवसर दिया. आगे चलकर उनका करियर किसी वजह से पीछे छूट गया. जब‍कि मैं एक बड़ी कंपनी में प्रोजेक्‍ट मैनेजर बन गया. इस बीच संयोग से उनके और हमारे परिवार के रिश्‍ते भी बिगड़ गए. लेकिन इसके बाद भी जब उन्‍होंने मुझसे मदद के लिए कहा, तो मैंने अपने संपर्क से उनका करियर पटरी पर लाने में पूरी ताकत झोंक दी.'


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अभी कहानी खत्‍म नहीं हुई. कुछ बरस बाद संयोग देखिए कि विपिन उसी जगह आकर खड़े हो गए, जहां उनके पूर्व बॉस थे. लेकिन विपिन का साथ इस बार उनके इसी बॉस के बेटे ने दिया, जो रायपुर में एक बड़ी मल्‍टीनेशनल कंपनी में मैनेजर हैं.


यह जिंदगी के प्रति प्रेम, स्‍नेह और आदर रखने वालों की कहानी है. यह कहानी हमें बताती है कि अगर हम अपने कहे पर कायम हैं, तो यह बात अंतत: हमारे पक्ष में ही जाती है, क्‍योंकि ऐसा करके हम अपने समीप एक ऐसी दुनिया रच रहे हैं, तो एक-दूसरे के प्रति कृतज्ञ  है.


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हम असल में कृतज्ञता से भरी दुनिया रचने में अपनी भूमिका निभा रहे हैं. इसलिए जितना संभव हो अपने 'कहे' पर कायम रहने का हुनर विकसित करें.


प्रकृति  के नियमों को समझें. समंदर का ख्‍वाब देखने वालों को उसके जैसा मिजाज चाहिए, जबकि 'मौसमी' नदी की आरजू वालों को उसका स्‍वभाव. दूसरों को कॉपी मत करिए. अपनी गति, मिजाज, खूबी को 'कॉपीराइट' की तरह प्‍यार करिए!   


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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं


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