डियर जिंदगी: ‘छोटा’ होता मन…
परिवार, मित्र ऐसे व्यक्ति को दिन-रात समझाने में जुटे रहते हैं, जो हमेशा सबकी मदद के लिए तैयार रहता हो! उसे ‘करेक्ट’ करने की कोशिश की जाती है कि दूसरों के चक्कर में कहां पड़े रहते हो.
जब हम किसी की मदद के बारे में सोचते हैं, तो सबसे पहला भरोसा, सबसे पहली बाधा जिस जगह से आती है, उसे हम मन के नाम से जानते हैं. वही मन जिसके बारे में यह माना जाता है कि वही हमारी शक्ति का सूत्रधार है. मन से ही हम जीतते, हारते हैं. सारा अंतर जहां से संचालित होता है, उस सेंटर का नाम मन है.
जो यहां कहा गया, उसमें कुछ भी नया नहीं! हम सब इस बारे में जानते हैं. लेकिन क्या हमेशा जानना ही पर्याप्त होता है. अक्सर होता तो यही है कि हम जानते हुए गलती करते हैं. चक्रव्यूह में फंसते वक्त हमें पता होता है, फिर भी हम उसमें दाखिल होते हैं, क्योंकि मन चाहता है.
हमारी शक्ति का पॉवर हाऊस मन ही है. अतीत की फाइल के पन्ने पलटिए आप पाएंगे कि हम पहले संघर्ष के लिए कहीं अधिक तैयार रहते थे. हम जीवन की चुनौतियों के प्रति अधिक उदार थे. हमें मुश्किल दिनों से लोहा लेने का हुनर आता था. हम एक-दूसरे के प्रति कहीं अधिक संवेदनशील थे.
हम साथ-साथ चलने को कमजोर नहीं, बल्कि अघोषित नियम के रूप में स्वीकार करने वाले समाज थे. हम मेजबानी से लेकर, मुश्किल वक्त में साथ देने तक में दुनिया में पहचाने जाते थे. यह पहचान बदलने लगी. हमारा स्वभाव बदलने लगा.
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एक सरल उदाहरण से समझते हैं. पहले किसी परिवार, मित्र के यहां संकट आने पर मदद के लिए पहल करने की आदत एक सहज गुण था. जिसमें यह गुण न होता, उसे ‘ठीक’ नहीं माना जाता. उसके बारे यह धारणा बनती कि वह समाज में अपवाद है.
अब जरा आज पर आइए. परिवार, मित्र ऐसे व्यक्ति को दिन-रात समझाने में जुटे रहते हैं, जो हमेशा सबकी मदद के लिए तैयार रहता हो! उसे ‘करेक्ट’ करने की कोशिश की जाती है कि दूसरों के चक्कर में कहां पड़े रहते हो.
ध्यान से देखिए, हम मनुष्य होने की परिभाषा के उलट जा रहे हैं. हमारी सामाजिकता उदार, समावेशी होने की जगह संकुचित होती जा रही है. हमारा मन उदार, स्नेहिल, आत्मीय और समावेशी होने की जगह संकुचित होता जा रहा है. दूसरे के प्रति बढ़ती कठोरता, अपने भीतर ‘जगह’ की कमी का गहरा भाव ‘बूमरैंग’ की तरह हमारी ओर लौटकर हमें ही नुकसान पहुंचाने वाला है.
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हम एक-दूसरे के लिए समय जितना कम करते जा रहे हैं, उतना ही हमारा एक दूजे के प्रति अनुराग कम होता जा रहा है. बात अकेले समय की नहीं है, मैं बड़ी संख्या में अपने समीप ऐसे बढ़ते लोग देखकर हैरान हूं, जिनके लिए परिवार के मायने ही बदल गए हैं.
अब परिवार का अर्थ हो गया है, पति-पत्नी और बच्चे. अरे! माता-पिता कहां गए. माता-पिता के बारे में धारणा यह बनती जा रही है कि वह जिस भाई के पास हैं, उसके परिवार में हैं. उनके पास अगर बचत है, तो वह स्वतंत्र हैं. अगर नहीं तो समय- समय पर उनकी मदद कर दी जाए, लेकिन वह बेटे के परिवार का हिस्सा नहीं हैं!
यह हमारे छोटे होते मन का एक सरल उदाहरण है. इस समय ऐसे किस्से, उदाहरण हवा में थोक के भाव तैर रहे हैं.
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अखबार आए दिन आत्महत्या से भरे पड़े हैं. वह शहर जिन्हें महानगरों के मुकाबले अधिक स्नेहिल, खुशमिजाज, मिलनसार माना जाता था, अवसाद, तनाव और डिप्रेशन की रेंज में आ गए हैं. लखनऊ, भोपाल, इंदौर, जयपुर, रायपुर, रांची, पटना, भुवनेश्वर जैसे शहर आत्महत्या की खबर से निरंतर चिंता में हैं.
हम उपदेश, व्हाट्सअप फाॅरवर्ड से अपने दायित्व से मुक्त नहीं हो सकते. हमें भीतर से अपने मन को थोड़ा उदार बनाने की जरूरत है. बस ज़रा सा. जितना है, उससे थोड़ा और.
दुनिया को सुंदर बनाने के लिए अधिक नहीं, बस इस थोड़े-थोड़े की ही जरूरत है. इसलिए जैसे ही किसी परिवार, दोस्त को मदद की जरूरत हो, जितना कर सकते हों, उससे बस थोड़ा सा और बढ़ा दीजिए.
इस थोड़े से में इतनी शक्ति है कि यह बहुत गहरे, अवसाद, तनाव और डिप्रेशन का असर कम कर सकता है. यह उस खबर से हमेशा के लिए बचा सकता है जो अचानक एक दिन हमें ताउम्र दुख का 'कैदी' बना सकती है.
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