आम चुनावों में असल सियासी खेल ट्वीटर के मैदान में हो रहा है, जिसके बाद समाचारों में तो बासी कढ़ी ही परोसी जाती है. लालू यादव जेल से बैठकर ट्वीट करवा रहे हैं तो मोदी सरकार ने देश की चौकीदारी शुरू कर दी. ट्वीटर के 3 करोड़ योद्धा भारत में 100 करोड़ मोबाइलधारकों और 35 करोड़ सोशल मीडिया यूजर्स पर क्यों भारी पड़ते हैं? चुनाव आयोग द्वारा जारी आचार संहिता की ट्वीटर और सोशल मीडिया में धज्जियां क्यों उड़ रही हैं? ट्वीटर के खेल में कैसे टूट रहे हैं कानून-


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जेल से लालू यादव द्वारा ट्वीट करवाना कितना जायज- बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालूप्रसाद यादव के सजायाफ्ता होने के बावजूद राजद के अध्यक्ष बनने पर अनेक कानूनी और नैतिक सवाल खड़े हुए थे. अब जेल में रहते हुए लालू द्वारा ट्वीटर के अपने वेरिफाइड एकाउंट @laluprasadrjd से नियमित ट्वीट करवाने से नये सवाल खड़े हो गये हैं. 5 वर्ष पूर्व प्रेस क्लब में आयोजित एक कान्फ्रेंस में मैंने यह सवाल किया था कि ट्वीटर की पॉलिसी के तहत अन्य व्यक्तियों को एकाउंट संचालित करने का अधिकार क्यों दिया जा रहा है? तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी के साथ ट्वीटर के उच्चाधिकारी मेरे सवाल को टाल गये. परन्तु इसके बाद ट्वीटर की पॉलिसी में बदलाव करके अन्य व्यक्तियों को भी एकाउंट हैण्डिल करने की अनुमति दे दी गई.


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इसी नाते प्रधानमंत्री, मंत्री, विपक्ष के नेता, सांसद और अधिकारी अपने स्टॉफ के माध्यम से ट्वीटर पर लगातार चहकते रहते हैं. रिट्वीट पर आप नेताओं और अरुण जेटली के बीच विवाद सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा था. जेल में रहकर लालू जी नियमित ट्वीट कैसे करवा सकते हैं और ऐसे ट्वीट्स किसकी कानूनी जवाबदेही होगी?
 
योगी आदित्यनाथ के ट्वीट पर अखिलेश का तंज- देश और दुनिया की राजनीति अब ट्वीट से चलती है, जहाँ सेलिब्रेटी के चेहरे के पीछे बड़ी टीमें काम कर रही हैं. लेकिन जब ट्वीट करने वाले चेहरे से सवाल होने लगें तो मामला दिलचस्प हो जाता है. बुआ और बबुआ के विपक्षी गठबंधन पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अंग्रेजी में तंज कसते हुए cock a snook शब्द का इस्तेमाल किया. इसके जवाब में बबुआ यानी अखिलेश यादव ने योगी से हिंदी में इसका अर्थ समझाने के लिए कहा. प्रधानमंत्री मोदी द्वारा भी विदेशी और भारत की स्थानीय भाषाओं में कई ट्वीट करने पर ऐसे ही सवाल खड़े हुए. तीसरे व्यक्ति द्वारा जब अधिकृत तौर पर ट्वीट करवाये जा रहे हों तो फिर ऐसे सवाल कानूनी तौर पर भले ही बेमानी हो गये हैं पर नैतिकता का प्रश्न तो सदैव बना रहेगा.


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सोशल मीडिया पर चुनावी आचार संहिता- हमारे प्रतिवेदन के बाद तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त वीएस सम्पत ने चुनावी आचार संहिता के तहत सोशल मीडिया को भी लाने हेतु अक्टूबर 2013 में आदेश जारी किये थे. उसके बाद 2014 के आम चुनावों में सभी पार्टियों में सोशल मीडिया के माध्यम से चुनाव प्रचार पर लगभग दस हजार करोड़ रुपये खर्च किये परन्तु चुनाव आयोग प्रभावी भूमिका निभाने में विफल रहा. थिंक टैंक सीएएससी द्वारा बनाई गई रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ पांच सांसदों ने ही सोशल मीडिया के खर्चों का विवरण चुनाव आयोग को दिया था. पांच साल बाद 2019 के आम चुनावों के लिए चुनाव आयोग ने फिर से लम्बी चौड़ी आचार-संहिता जारी की है. इन सबके बीच दिल्ली में सिर्फ 17 मामलों में सोशल मीडिया में विज्ञापन के अनुमोदन हेतु अर्जियाँ आचार संहिता को मुँह चिढ़ा रही हैं. ट्वीटर में बड़े पैमाने पर फर्जी फॉलोवर बढ़ाने, ट्वीट वायरल कराने और विज्ञापन का गोरखधंधा होता है. सभी दल और नेताओं द्वारा बड़े पैमाने पर साइबर वॉर रुम चलाने के साथ पीआर एजेंसियों की भी मदद ली जा रही है. 20वीं सदी के चुनाव आयोग का 21वीं सदी के डिजिटल इंडिया में आचार-संहिता के खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन पर मौन संवैधानिक त्रासदी है.


चुनावी दौर में चौकीदार का शोर- मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित करने पर चीन के अड़ंगे पर राहुल गांधी ने तंज कसते हुए प्रधानमंत्री मोदी से बयान देने की मांग की. इसके जवाब में केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि विदेश नीति के बारे में ट्वीटर पर वक्तव्य नहीं जारी किये जाते. दूसरी ओर चुनावी दौर में मोदी मन्त्रिमण्डल और समर्थकों ने अपने ट्वीटर को चौकीदार के रंग में रंग दिया. इस पूरे प्रहसन के दौरान यह समझ में नहीं आ रहा कि मंत्रियों के ट्वीटर एकाउंट निजी हैं या सरकारी.


केन्द्र और राज्यों के मंत्रियों द्वारा चुनावों के पहले निजी एकाउंट से आधिकारिक घोषणायें कैसे की जा रही थीं. चुनाव आयोग द्वारा हाथी और कमल के प्रतीकों को ढंकने के साथ सरकारी वेबसाइटों से मंत्रियों के फोटो हटाने के निर्देश जारी किये गये हैं. सवाल यह है कि फेसबुक और ट्वीटर के सरकारी एकाउंट में सभी मंत्रियों और सांसदों की फोटो पर बैन क्यों नहीं लगाया जाता?


ट्वीटर के खिलाफ सरकार की सख्ती क्यों- फेसबुक और ट्वीटर जैसी कम्पनियाँ खुद को इंटरमीडियरी ही मानती है, इसके बावजूद इनके द्वारा कंटेन्ट को प्रभावित करने से अजीब स्थिति बन रही है. शिकायतों के बाद आईटी मंत्रालय की संसदीय समिति ने ट्वीटर के उच्चाधिकारियों को सम्मन करके भारत तलब कर लिया. चुनाव आयोग भी सोशल मीडिया कम्पनियों के अधिकारियों के साथ मीटिंग कर रहा है. इन सबसे जब काम नहीं चला तो सरकारी सूत्रों से यह खबर आई कि कानून नहीं मानने पर ट्वीटर के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही की जा सकती है,जिसके तहत सात साल तक की जेल का प्रावधान है. देश के चुनावी माहौल में चुनाव आयोग सर्वशक्तिमान है. चुनाव आयोग द्वारा जारी आचार-संहिता और अनेक आदेशों के अनुपालन के लिए यह जरूरी है कि ट्वीटर समेत अन्य कम्पनियाँ भारत में अपने शिकायत अधिकारी नियुक्त करें. डिजिटल इण्डिया के चुनावी दौर में परम्परागत चुनाव आयोग कितना सफल होगा, इसका फैसला मतदान के पहले ही हो जायेगा.


(लेखक विराग गुप्‍ता सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं. Election on the Roads पुस्‍तक के लेखक हैं.)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)