क्या देश के किसी भी बड़े राज्य में होने वाले चुनाव को आने वाले लोकसभा चुनाव का संकेत माना जाए? भले ही हर राज्य की जमीनी सच्चाई अलग हो, लेकिन राजनीतिक विश्लेषक आमतौर पर बड़े, और राजनीतिक तौर पर प्रभाव डालने वाले राज्यों में विधानसभा चुनाव के नतीजों को इसी परिप्रेक्ष्य में देखते हैं. इस हिसाब से गुजरात और हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव के परिणाम भारतीय जनता पार्टी के लिए जश्न मनाने से ज्यादा एक चेतावनी के तौर पर लिए जाने चाहिए. जहां गुजरात में भाजपा की जीत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का प्रश्न था और उन्होंने अपनी पूरी ताकत झोंक दी, वहीं हिमाचल प्रदेश में महज एक चुनावी परंपरा का पालन हुआ जिसके अंतर्गत वहां कांग्रेस और भाजपा बारी-बारी से सत्ता में आती हैं. यदि इन नतीजों में कुछ संकेत देखना ही है, तो उन्हें बारीकियों के बजाए यहां के मतदाताओं की सोच में आए अंतर में ढूंढना चाहिए.


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गुजरात में भाजपा पिछले 22 वर्षों से सत्ता में है, और यहां के निवासी आमतौर पर राजनीतिक प्रयोगों से दूर रहते हैं. गठबंधन की सरकारें और राजनीतिक अस्थिरता यहां के मिजाज में नहीं हैं. वर्ष 1995 से भाजपा का गढ़ रहे इस प्रदेश में पीएम नरेंद्र मोदी ने जिस तरह का संवाद यहां के लोगों से बनाया हुआ है, उसका मुकाबला करना अभी भी कांग्रेस के लिए मुश्किल है. यह पारंपरिक तौर पर व्यापार और उद्योग का राज्य है और इसी वजह से यथास्थिति बनाए रखना यहां के मतदाताओं की सोच का हिस्सा है.


यह उत्तरप्रदेश नहीं है जहां लोगों ने पूर्ववर्ती सरकारों से ऊबकर एक नए माहौल की तलाश में पिछले चुनाव में इस कदर एकतरफा मतदान किया था कि खुद भाजपा भी नतीजे देखकर चकित रह गई थी. उसके विपरीत, सोमवार सवेरे टीवी पर गुजरात के नतीजों के रुझान दिखाए जाते समय एक क्षण को कांग्रेस भाजपा से आगे निकल गई थी. अंतिम परिणाम आने तक कांग्रेस ने भाजपा को कड़ी टक्कर दी और भाजपा की जीत कहीं से भी एकतरफा नहीं है. बहुमत मिल जाने के बाद भाजपा और मोदी ने जरूर चैन की सांस ली होगी, लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में पार्टी की सीटों की संख्या में जो कमी आई है, वह पार्टी के लिए सतर्क हो जाने का संकेत है. कांग्रेस की ओर से राहुल गांधी ने अपने नए अंदाज से लोगों का ध्यान आकर्षित किया है. युवा आक्रोश के प्रतीक के रूप में हार्दिक पटेल, युवा नेता अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मवानी की मेहनत को भी कांग्रेस का साथ मिला.


भले ही कांग्रेस को सत्ता न मिली हो, लेकिन भाजपा के परंपरागत किलों में सेंध लगाकर कांग्रेस ने यहां तो साबित कर ही दिया है, कि यदि सावधानी हटी, तो 2019 में दुर्घटना घट सकती है. नोटबंदी और जीएसटी अब मुद्दे नहीं रहे. अलबत्ता, गुजरात की अस्मिता, पाकिस्तान का 'हाथ' और ऊंच-नीच का खेल जरूर रंग दिखा गया. यदि मोदी की मेहनत और भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह के मैनेजमेंट में थोड़ी भी कमी रह जाती, तो सरकार भी हाथ से निकल सकती थी. फिर केवल हिमाचल की जीत का कोई मायने भी नहीं रह जाता.


चूंकि अगले लोकसभा चुनाव में अभी करीब डेढ़ साल बाकी है, इसलिए पूरी संभावना है कि उसके पहले ही गुजरात में नई सरकार द्वारा पाटीदार समाज और किसानों के असंतोष को दूर करने के लिए, और दलित उत्पीड़न पर नियंत्रण करने के लिए कदम उठाए जाएं. अगले साल (2018 में) आठ राज्यों में चुनाव होने हैं, इनमे मेघालय, नागालैंड, त्रिपुरा (मार्च), कर्नाटक (मई), मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मिजोरम (नवंबर-दिसंबर) शामिल हैं. यदि राज्यों के चुनाव वास्तव में आने वाले लोकसभा के चुनावों के संकेत देते हैं, तो इन आठ राज्यों के नतीजे ज्यादा मायने रखेंगे. तब तक यह मानकर चलना चाहिए कि मोदी के व्यक्तित्व, कार्यशैली, भाषा, वादों और दावों की कमियों और मजबूती के बावजूद, लोगों का उन पर भरोसा कायम है.


(रतनमणि लाल वरिष्ठ लेखक और स्‍तंभकार है)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)