कभी-कभी ऐसा भी होता है कि किसी छोटी जगह से की गई एक छोटी-सी पहल आगे चलकर इतनी बड़ी बन जाती है कि उसे देखने के बाद यह यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि 'यही इसकी शुरुआत थी'. इतिहास और प्रकृति ऐसे अनेक उदाहरणों से भरी-पड़ी है. सोचता हूं कि काश! कुछ ऐसा ही उस एक छोटी-सी घटना के साथ हो जाए, जिसकी शुरुआत लोकसभा के कुल 542 सदस्यों में से मात्र पांच सदस्य देने वाले राजनीतिक दृष्टि से कमज़ोर एक छोटे से राज्य उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने की है.


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मुख्यमंत्री ने यह निर्णय किया है कि जो भी व्यक्ति राज्य में अतिथि के रूप में आएगा, और सरकारी कार्यक्रमों में जब भी किसी के स्वागत करने की स्थिति आएगी, तब उसे भेंट एवं सम्मान स्वरूप पुस्तकें दी जाएंगी. उनका यह निर्णय प्रधानमंत्री के “मन की बात” को सुनकर उस पर अमल की दिशा में उठाया गया वर्तमान में एक बेहद जरूरी और उपयोगी कदम है. साथ ही व्यावहारिक भी. फूल मुरझा जाते हैं. लेकिन पुस्तकें? इसका उत्तर अरबी की एक बहुत ही सुन्दर और सुगंधित कहावत देती है कि “किताबें इंसान की जेब में रखा हुआ एक सुंदर बगीचा हैं.” जाहिर है, यह भेंट कभी मुरझाएगी नहीं.


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मुख्यमंत्री रावत का यह निर्णय मूलतः भारतीय परंपरा का ही आधुनिक संस्करण है. आजादी के समय हमारी शिक्षा का प्रतिशत भले ही अठारह रहा हो, लेकिन भारतीय मानस को 'मूर्ख' कतई नहीं कहा जा सकता. इसका कारण था- लोकजीवन में प्रचलित श्रुत एवं वाचिक परंपरा, जिनका संबंध तात्कालीन जीवन-प्रबंधन से जुडे धार्मिक ग्रंथों एवं साहित्य से रहा है. कथाओं के रूप में यह परंपरा आज भी जीवित है, भले ही उसने अब एक लघु एवं वृहद उद्योग का रूप भी ले लिया हो. विदेशों में बसे भारतीयों के बीच भी इस ‘प्रोडक्ट‘ की काफी ‘डिमांड‘ है. खैर....!


हमारे दैनिक जीवन में अध्ययन का कितना अधिक महत्व था, इसे 'स्वाध्याय' शब्द से जाना जा सकता है. कहा गया कि गीता का प्रतिदिन पाठ करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है. 'रामचरितमानस' के पारायण का संदेश उसके कांड के अंत में स्वयं रचनाकार ने दिया है. 'हनुमान चालीसा' के लिए साफतौर पर कहा गया “जो सत बार पाठ कर जोई.” साथ ही अंत में आश्वस्ति की गई “जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा.” “जो यह सुनै” नहीं लिखा गया. कबीरदास भी प्रेम के “ढाई आखर” को पढ़ने की बात कहते हैं, सुनने की नहीं - “ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सौ पंडित होय.” पढ़ने की इसी परंपरा को सिख पंथ ने ग्रंथ को ही ‘साहिब‘ मानकर ईश्वर की सर्वोत्तम ऊंचाई, पवित्रता और महत्ता प्रदान कर दी.


गीता के चौथे अध्याय के 33वें श्लोक में भगवान कृष्ण ने अर्जुन से एक बहुत ही गूढ़ बात कही है, जिसे हम सब अभी तक नज़रअंदाज करते आ रहे हैं. भगवान कृष्ण के शब्द हैं, “हे परंतप अर्जुन! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ अत्यंत श्रेष्ठ है. इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है. (श्लोक 38)”. भेंट के रूप में पुस्तकों को दिया जाना इसी ज्ञानयज्ञ में दी गई एक आहुति है. लेकिन यहां भारत सरकार से एक प्रश्न यह है कि क्या वह सचमुच में पुस्तक संस्कृति के प्रति इतनी ही संवेदनशील है? जीएसटी के लागू होने के बाद पुस्तकों की कीमत में काफी बढ़ोतरी होने की नौबत आ गई है, जो पहले से ही अपनी कीमतों के कारण आमलोगों को अपनी पहुंच से बाहर मालूम पड़ रही थी.


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क्या सरकार को गीता प्रेस, गोरखपुर की तरह लोगों को सस्ते में किताबें उपलब्ध कराने की कोशिश नहीं करनी चाहिए? इस बारे में मैं यहां गुजरात के भुज में स्थिति “रूरल डवलपमेंट ट्रस्ट” का विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगा. यह ट्रस्ट गुजराती भाषा की पुस्तकें पाठकों को आधी कीमत पर देता है. इसमें होने वाले नुकसान की भरपाई ट्रस्ट अनुदान से प्राप्त धन से करता है.


मुझे लगता है कि इस ट्रस्ट का यह काम न केवल सरकार के ही लिए, बल्कि अन्य समाजसेवियों के लिए भी एक आदर्श हो सकता है. सच तो यह है कि ऐसा करके ही हम ‘हिन्दी दिवस‘ जैसे अवसरों केअर्थ को सार्थकता प्रदान कर सकते हैं. भाषा को यदि जीवित रखना है, तो वह साहित्य के माध्यम से ही संभव है.


मैं इस अवसर पर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री से यह अनुरोध करना चाहूंगा कि उन्होंने जिस प्रकार भेंट में पुस्तकें देने की दिशा में नया कदम उठाया है, उसी प्रकार जन-जन तक साहित्य को पहुंचाने की दिशा में भी किसी नए उपक्रम की शुरुआत करें.


(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्‍तंभकार हैं)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)