आज 15 सितंबर है, हिन्दी दिवस नहीं है!
यह स्पष्ट करते हुए कि मैं न तो हिंदी का बहुत बड़ा पैरोकार हूं, न ही अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं की खिलाफत करता हूं. भाषाएं मुझे भाती हैं, क्योंकि भाषाओं के जरिए ही दूसरे समाज और संस्कृति को समझ पाते हैं.
आज 15 सितंबर है. हिन्दी दिवस भी नहीं है. भूला नहीं, जानबूझकर यह ब्लॉग हिन्दी दिवस के एक दिन बाद लिख रहा हूं. अक्सर हिन्दी के पैरोकारों पर यह आरोप होता है कि वे एक दिन तो हिन्दी की बात करते हैं, 364 दिन भूल जाते हैं. हिन्दी को दबा-कुचला और पिछड़ों की भाषा बताने वालों की भी कमी कहां हैं.
यह स्पष्ट करते हुए कि मैं न तो हिंदी का बहुत बड़ा पैरोकार हूं, न ही अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं की खिलाफत करता हूं. भाषाएं मुझे भाती हैं, क्योंकि भाषाओं के जरिए ही दूसरे समाज और संस्कृति को समझ पाते हैं, भाषाओं से ही बहकर भाव मेरे करीब आता है इसलिए कि मैं सब जगह नहीं पहुंच सकता. जाहिर है हिन्दी का विस्तार, इसका भाषायी सौंदर्य, इसकी कलात्मता, शिल्प का विस्तार अद्भुत है, इसलिए यही मुझे भाती है, इसके बावजूद कि मैं इसके एक छोटे से ही हिस्से को छू पाया हूं.
हिन्दी मेरे लिए इसलिए भी जरूरी है क्योंकि यही मेरी दालरोटी भी चलाती है, इसलिए यह वैसे ही जरूरी हो जाती है, जैसे कि मेरे गांव की हवा, मिट्टी, पानी और ऐसी ही अन्य जरूरी चीजें, यह जरूरी है मेरी मां के प्यार की तरह. इसलिए जैसे मैं इन तत्वों को अपने श्रेष्ठ स्वरूप में पाना चाहता हूं, वैसे ही मुझे अपनी भाषा क्यों न मिले. शिशु को मां से जैसे दूध की खुराक मिलती है, एकदम शुद्ध, बिना किसी मिलावट की, निश्छल, बिना किसी स्वार्थ, राग-द्वेष के. पर इसके लिए मुझे भी तो कोशिश करनी ही होगी, एक बहुतअच्छे बेटे की तरह.
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दिक्कत यही है. मैं पाना तो चाहता हूं, लेकिन उसके लिए करना नहीं चाहता. इसलिए बाजार, समाज,नीति और नीयत के गठजोड़ ने जिस अशुद्धता के संसार को रचा उससे मुझे चिढ़ होती है. वह विज्ञापनों की भाषा हो, समाचारों की भाषा हो, बोलचाल की भाषा हो, हमारे समाज की भाषा हो, कहीं की भी भाषा हो. संसार की कोई भाषा किसी से कमतर नहीं और न ही श्रेष्ठ है, कमतर या श्रेष्ठता उसकी शुद्धता औरअशुद्धता के पैमाने से ही तौली जानी चाहिए. पिछले समय में हमने यह जो खिचड़ी पकते देखी है, वह सबसे बड़ा भाषायी संकट है, संचार माध्यम जिसकी बदौलत अपना उद्देश्य तय कर पा रहे हैं, सबसे बड़ेदुश्मन तो वहीं हैं, गौर करें.
भाषा का खिचड़ीपना, भाषा की संप्रेषणनीयता और भाषा का चुनाव यही वह सवाल हैं, जिसने स्थितियों को प्रतिकूल बनाने का काम किया. भाषाओं की मान्यताओं और वर्चस्व के द्वंद्व ने हजारों-लाखों सालों में विकसित हुई इस विविधता के लिए भी नया खतरा रच दिया. यह खतरा अत्यंत तीव्र गति से सामने आया, इतना कि लोकभाषाएं दम तोड़ने लगीं, संभवतः यह बढ़ते-बढ़ते हमारी मातृभाषा पर भी न आसन्न हो उठे.
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क्या इसके पीछे कोई बहुत बड़ा विज्ञान लगाने की जरूरत है, या किसी बड़े शोध की जरूरत है कि स्थानीयता की शक्ति सहजता के साथ काम करती है, वह खानपान का विषय हो, पठन-पाठन का विषय हो, पहनावे का विषय हो. सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि हमने अपने देशजपन का सम्मान नहीं किया, इसलिए जो हिन्दी का खतरा हमें दिखता है, वह दरअसल केवल हिन्दी भर का तो नहीं है, उसके आसपास के बहुत से खतरे हैं, जिन्हें देखने के लिए हमें अपनी आंखों को थोड़ा और बड़ा करके दाएं-बाएं घुमाना भी होगा.
बात केवल हिन्दी भर को अपनाने या बचाने की नहीं है, बात वहां से थोड़ा और आगे जाती है, और उसी रास्ते से तो हमारे जीवनमूल्य भी चलकर आते हैं. जाहिर है वह जीवनमूल्य भाषाओं के रास्ते से ही आते हैं, यह रास्ते जितने कमजोर होते चले जाएंगे, जीवनमूल्य भी उतने ही खतरे में होंगे ओर इसका सीधा-सीधा असर हमें दिखाई देने लगा है, हमारी लोकभाषा खतरे में है, तो जीवनमूल्य भी कहां बचे रहने वाले हैं. मूल्यों की बात छोड़ दीजिए, संकट यह है कि हम एक-दूसरे की बात भी सुन समझ नहीं पाएंगे.
यह संकट समाज का नहीं, परिवार का, पति-पत्नी का, बाप-बेटों का, भाई-भाई के रिश्तों पर होने वाला है, क्योंकि हम अपनी भाषा को ही तो छोड़ रहे हैं, जो सीधे दिल से निकलकर दिल तक पहुंचती है. कहने की अतिनाटकीयता में सुनने का संकट तो विकराल हो ही जाता है, उसका परायापन बरकरार रहता है, जो समाज अपनी अस्मिता को खो देता है, उसकी बुनियाद हिलना स्वाभाविक है. यदि आप मानते हैं किभारतीय समाज को एकसूत्र में पिरोने की जरूरत है तो हिन्दी को अपना तो समझना ही होगा, इसका मतलब अपनी स्थानीयता को दोयम समझना बिल्कुल भी नहीं है. समाज का सबसे नजदीक का सबसे प्रभावी और सबसे व्यापक रिश्ता यदि किसी से हो सकता है, तो वह हिन्दी ही है, हिन्दी से ही हमारा समाज समृद्ध हो सकता है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)