हार तो कोई भी कभी भी सकता है लेकिन ऑस्ट्रेलिया से दूसरा टेस्ट हारने के बाद एक सबक बहुत ही साफ साफ मिला है. वह यह कि हमें टिक कर खेलना सीखना पड़ेगा. हम 147 रन से हारे. जितने रन की जरूरत थी उसके आधे भी नही बना पाए. 287 रन तब भी नहीं बना पाए जब कोई डेढ़ दिन का समय हमारे पास था. यानी तेजी से रन बनाने का कोई दबाव नहीं था. लेकिन इस सुविधाजनक परिस्थिति का लाभ उठाते हमारे बल्लेबाज नहीं दिखे. यह तो रक्षात्मक खेल का अभ्यास करने के लिए भी एक सुनहरा अवसर था. जीत तो बोनस में मिल जाती. खैर जो हो चुका उसका अफसोस क्या करना. फिर इस मैच का विश्लेषण एक सबक तैयार करने के लिए जरूर होना चाहिए.


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आजकल पिच और गेंद के आकार प्रकार को गौर से समझना पड़ता है
क्रिकेट अब सिर्फ गेंदबाजों और बल्लेबाजों के बीच का ही खेल नहीं रह गया. दूसरे टेस्ट मैच में गेंद भी उसी शिद्दत से खेली और पिच भी. मसलन स्कोर के लिहाज़ से चैथे दिन का खेल शुरू होने के पहले मुकाबला लगभग बराबरी पर था. इच्छापूर्ण सोच के हिसाब से भारत बेहतर स्थिति में था. लेकिन विशेषज्ञता के लिहाज़ से यह पता चल चुका था कि चपटी कूकाबूरा गेंद अब गोल हो चुकी है और सिलाई के उभरेपन के कारण जो फायदा गेंदबाज तीसरे दिन के आखिरी स़त्र में उठा रहे थे वह चैथे दिन के शुरू में नहीं मिलेगा. वही हुआ.


टिम पेन और ख्वाज़ा ने 72 रन की साझेदारी कर डाली
तीसरे दिन का खेले खत्म होने तक ऑस्ट्रेलिया का स्कोर चार विकेट पर 132 रन था. पहली पारी की 43 रन की बढ़त मिलाकर आस्टेªलिया 175 रन की बढ़त लिए हुए थी. विशेषज्ञ अपने अनुभव से बता रहे थे कि ढाई सौ रन का लक्ष्य देकर ऑस्ट्रेलिया का आउट होना दोनों टीमों के लिए बराबरी पर होना माना गया. यानी तात्कालिक लक्ष्य यह बना कि चैथे दिन किसी तरह ऑस्ट्रेलिया को दूसरी पारी में 230 रन के आसपास समेट दिया जाए. लेकिन सीधे प्रसारण के दौरान यह विशेषज्ञ चर्चा नहीं हो रही थी कि गेंद गोल हो चुकी है. जबकि सब जानते हैं कि तेज गेंदबाजों का सबसे बड़ा हुनर यानी स्विंग के लिए गेंद की सिलाई का उभरा होना एक वरदान होता है. लेकिन 40 ओवर पुरानी कूकाबूरा गेंद में यह सिलाई बैठ चुकी थी. 


हमारे तेज गेंदबाजों ने हरचंद कोशिश कर ली लेकिन वे गोल हो चुकी गेंद को पटकने के बाद इधर-उधर ज्यादा हिला नहीं पाए. वहां हमें स्पिनर की कमी खली. आखिर पेन और ख्वाजा़ ने 72 रन की साझेदारी कर डाली और भारत के सामने एक प्रत्याशित मुश्किल खड़ी हो गई. इस समय तक भी ऑस्ट्रेलिया की कुल बढ़त 235 रन ही थी. यानी मैच हाथ से निकला नहीं था. और भारत को सबसे ज्यादा आसरा इस बात का था कि दो ओवर बाद ही नई गेंद आने वाली है. तब तो बाकी पांच विकेट आसानी से निकाल ही लेंगे.


घायल फिंच का आना
ऑस्ट्रेलियाई खेमे की चिंता इस बात से समझी जा सकती है कि उंगली पर चोट से बुरी तरह घायल फिंच को पांचवां विकेट गिरते ही मैदान पर उतार दिया गया. तीसरे दिन उगली टूटने से रिटायर्ड हर्ट हुए फिंच के दोबारा मैदान पर उतरने की संभावना कम ही थी. लेकिन ऑस्ट्रेलिया ने मुश्किल हालात में उन्हें उतारा. वैसे समय में उतारा जब दो ओवर बाद ही नई चपटी गेंद आने वाली थी. लेकिन सोचा गया होगा कि अगर घायल फिंच को उतारने का कोई फायदा उठाना है तो यही समय है. लेकिन भारत के लिए एक सुखद संयोग बना कि फिंच पुरानी होकर गोल हो चुकी गेंद के दौर में ही आउट हो गए. बाद में तो जो होना था वो हुआ ही. ऑस्ट्रेलिया 243 पर आउट हो गई. भारत को लक्ष्य मिला 287 का. यह लक्ष्य चाहत से कोई तीस चालीस रन ही ज्यादा था. यानी इस समय तक भी मुकाबला बराबर का ही था.


अब बारी थी नई कूकाबूरा से भारत के निपटने की
287 रन का लक्ष्य लेकर मैदान पर उतरी अपनी टीम के सामने चुनौती ऑस्ट्रेलियाई तेज गेंदबाजों से निपटने की तो थी ही उससे ज्यादा बड़ी चुनौती ये थी कि 25-30 ओवर तक चपटी रहने वाली कूकाबूरा गेंद को कैसे खेला जाए. अब तक इस पिच पर काफी मैच गुजर चुका था. कोई बहाना नहीं बचा था कि पिच टूट-फूटकर बदल रही है. दरारें पैदा होने का बहाना भी नहीं था. सारा दारोमदार नई कूकाबूरा और उसे इस्तेमाल करने वाले आस्टेलियाई गेंदबाजों पर था. और दोनों ने अपने हुनर दिखाए और 22 ओवर में ही भारत के चार शुरुआती खिलाड़ी पैवेलियन लौट आए. कोहली भी बुरी तरह जूझते हुए वापस हुए. और तभी यह साबित हो गया कि विशेषज्ञों का अनुमान सही था कि चैथी पारी में ढाई सौ रन बनाना भी आसान नहीं होगा. हालांकि यह किसी ने नहीं बताया कि आसान क्यों नहीं होगा.


क्या गेंदबाजों के चयन का फैसला भी खेला इस मैच में
गेंदबाजों के काफिले में हमने कोई नियमित स्पिनर नहीं रखा था. चार तेज गेंदबाजों पर ही भरोसा किया था. यह फैसला भारी पड़ रहा है इसका पता पहली पारी में ही चल गया था. भले ही ऑस्ट्रेलिया को पहली पारी में 326 रन ही बनाने दिए थे लेकिन गौर करने की बात ये है कि पहली पारी में शुरू के पांच विकेट पाने में हमारे तेज गेंदबाजों के काफिले को बड़ी दिक्कत आई.


पूरे मैच में हर समय त्राटक योगध्यान की जरूरत पड़ी
बौद्ध परंपरा के योगध्यान में त्राटक सुई की नोंक पर ध्यान लगाने की पद्धति है. पूरा मैच ऐसा चला कि कोई भी बल्लेबाज ज़रा के लिए भी खुलकर खेलने का मौका तलाशता ही रह गया. सिर्फ एक मौका ऐसा दिखा जब दूसरी पारी में ऑस्ट्रेलिया के नौ विकेट गिर गए थे और स्कोर था सिर्फ 207 रन, तब जरूर लगा कि अब 250 रन का इच्छित लक्ष्य भारत को मिल जाएगा. लेकिन दसवें विकेट की साझेदारी में स्टार्क और हैजलवुड ने 34 रन बना डाले. वे शुरू में खुलकर तेज भी खेले और जब सहज हो गए तो उन्होने भी ध्यान लगाकर खेला. क्या कोई भी विशेषज्ञ यह विश्लेषण कर पाएगा कि तीसरी पारी के आखिरी विकेट की साझेदारी अगर 34 रन की हो सकती है तो भारत के लिए तीन सौ से भी कम का लक्ष्य बड़ा क्यों कहा जाए? इससे ज्यादा का लक्ष्य भारतीय टीम दो बार हासिल भी कर चुकी थी और मैच जीत चुकी थी. इस बार नहीं जीत पाई. इस बार एकाग्रता के लिए ध्यान के अभ्यास में हम कमजोर पड़ गए.


क्या दबाव नही झेल पाए
दबाव में पूरा ध्यान लगाकर खेलना आसान नहीं होता. अब खिलाड़ियों में दो तीन दशक पहले वाला धैर्य और ध्यान तो बचा नहीं है. अतिसतर्कता के पक्ष में सलाह देने वाले भी कम होते जा रहे हैं. अगर सुरक्षित खेलने और प्रति ओवर रन रेट के बीच कोई सहसंबंध मानकर चलें तो भारतीय खिलाड़ी शून्य जोखिम वाला खेल खेलते नहीं दिखे. नतीजा यह हुआ कि अच्छा खासा समय हाथ में रहते हुए भी रन बनाने की चाहत में विकेट जाते रहे. केएल राहुल भले ही बिना रन बनाए पहले ओवर में आउट हो गए और चैथे ओवर में पुजारा भी अतिसतर्कता बरतते हुए अपना विकेट नहीं बचा पाए, लेकिन उसके बाद कोहली और मुरली के बीच जैसे ही 30 रन की साझेदारी हुई कोहली धैर्य खोते दिखे. और आखिर यह साझेदारी 35 रन को पार नहीं कर पाई. फौरन बाद ही मुरली भी लौट आए. 22वें ओवर में ही 55 रन के स्कोर पर चार खिलाड़ियों का वापस आ जाना अपने लिए एक भारी संकट पैदा हो जाना था. 


पांचवे विकेट के लिए रहाणे और हनुमा ने एक साझेदारी की जरूर लेकिन वह वक्त स्वाभाविक खेल खेलने का समय था नहीं. जरूरत अभूतपूर्व सुरक्षा और अतिसतर्कता के साथ विकेट पर सिर्फ अड़े रहने की थी. चाहे पांच दस ओवर मेडेन भी जाते. लेकिन तेजी पकड़ने के चक्कर में रहाणे भी अपना विकेट दे बैठे. भले ही यह साझेदारी 43 रन की हुई लेकिन जरूरत आउट न होने की थी चाहे रन आधे भी क्यों न बनते. 98 रन पर पांचवे विकेट के गिरने का मतलब था कि संकट का गहरा जाना. अभी दिन का खेल खत्म होने में छह ओवर बाकी थे. मुश्किल में आई अपनी टीम का इमरजेंसी लक्ष्य था कि किसी तरह अब कोई विकेट न गिरे. हनुमा और पंत ने दिन के आखिरी छह ओवर गुजार दिए. फिर भी देखने की बात यह रही कि पंत अपने स्वभाव के हिसाब से तेज खेलते दिखे. उसके बाद पांचवे दिन तो पंत और हनुमा भी नहीं टिक पाए और हम 140 पर ही सिमट गए.


हो सकता है कि खिलाड़ियों के स्वाभाव को बदलना कठिन काम होता हो. लेकिन यह टेस्ट मैच वाला प्रारूप है. इसमें खिलाड़ी की वक़त राहुल द्रविड़ जैसे ठहराव के हिसाब से ही बनती है. अगर किसी का वैसा स्वभाव नहीं है तो कोच और दूसरे सहायकों को सबसे पहले विकेट पर टिकने के गुर सिखाने के काम पर लगना चाहिए.