विश्व महिला दिवस: महिला जब आपको सशक्त करे...
हमारे समाज में आज भी पति के मरने के बाद औरत अक्सर टूट जाती है. अगर, पति की मौत असमय हुई हो तो जीना और भी मुश्किल हो जाता है. समाज तो ये चाहता है कि वह मुस्कुराना भी छोड़ दे.
अनीता आंटी से जब पहली बार मिला था उस वक्त पांचवीं में पढ़ता था. उनके पति और मेरे पिता एक ही दफ्तर में काम करते थे. इस कारण अक्सर आना जाना होता था. अनीता आंटी खाना बहुत अच्छा बनाती थी. एक वक्त ऐसा आया जब दादी के गुज़र जाने की वजह से मम्मी-पापा को कुछ दिनों के लिए दादी के घर जाना पड़ा था. ऐसे में स्कूल से आते वक्त दोपहर का खाना उनके घर पर ही होता था. मैं दोपहर में उनके घर समय से पहुंच जाता था और आंटी मुझे रोज़ बढ़िया खाना खिलाती. इस खाने की खास बात होती थी. ज़मीन पर बैठ कर खाना एक पाटे पर परोसा जाता था. थाली में कई छोटी कटोरी होती थी जिनमें अलग अलग व्यंजन होते थे. चूंकि गर्मी का वक्त चल रहा था तो रोजाना एक कटोरा भर कर आमरस भी मिल जाता था. मम्मी-पापा करीब पंद्रह दिन दादी के घर रहे. इन पंद्रह दिनों में मुझे रोज कुछ नया खाने को मिलता था. खाने का चटोरा होने की वजह से मैं तो रोज आंटी के घर पहुंच जाता था, लेकिन मेरे भाई लोग शर्म और दूसरी वजहों से उनके घर नहीं जाते थे. शायद ये उनके हाथों का स्वाद ही था जिसने मुझे लिखने पर मजबूर कर दिया.
अनीता आंटी और अंकल का घर में आना जाना लगा रहा. इस बीच काम काज के लिए मुझे दिल्ली आना पड़ा. बीच-बीच में मां के जरिए अनीता आंटी के परिवार की जानकारी मिलती रहती थी. मालूम चला था कि उन्होंने अपने बेटे को पढ़ाई के लिए कोलकाता भेज दिया है. पढ़ाई में बहुत खर्च हो रहा था इसलिए अंकल ने लोन लिया. अंकल हमेशा से अपने बेटे की पढ़ाई को लेकर काफी संजीदा रहे थे. अच्छी बात ये थी उनके बेटे ने कभी भी अपने पिताजी को निराश नहीं किया. अंकल को अपने बेटे से बहुत उम्मीदें थीं. अंकल ने जो कुछ भी निवेश किया, अपने बेटे में किया. उनका मानना था कि रिटायरमेंट के बाद उनका बेटा ही उन्हें संभालेगा.
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तीन साल पहले खबर आई कि अंकल की किडनी खराब हो गई है. उनका इलाज चल रहा है. उसके कुछ दिनों बाद अंकल की मौत की खबर मिली. अंकल की मौत के बाद अनीता आंटी को उनकी जगह अनुकंपा नियुक्ति के तहत सरकारी नौकरी दिलाने की कोशिश हुई. लेकिन, उनका कम पढ़ा-लिखा होना अड़चन बन गया. फिर बेटे को नौकरी दिलाने की कोशिश होने लगी. बेटे ने भी अपने इंजीनियर बनने के सपने को किनारे किया और अपनी बहन और मां के साथ रहने को तरजीह देते हुए भोपाल में नौकरी करने का फैसला लिया .
अभी हाल ही में घर गया तो संयोग से अनीता आंटी भी अपने बेटे और बेटी के साथ आई हुई थीं. आंटी मिठाई लेकर आई तो लगा कि उनके बेटे की सरकारी नौकरी पक्की हो गई है. जैसे ही उनके बेटे को बधाई दी तो मालूम चला कि नौकरी लगने में तो अभी वक्त है. मुंह मीठा तो इसलिए करवाया जा रहा हैं, क्योंकि आंटी ने स्नातक का प्रथम वर्ष उत्तीर्ण कर लिया है. इस बात को बताते हुए वो जितनी उत्साहित थीं उससे ज्यादा जोश उनके बच्चों में नजर आ रहा था.
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ति के इंतकाल के बाद दो बच्चों की जिम्मेदारी अगर सर पर आ जाए और हाथ में अंधेरा भविष्य हो, तो मजबूत कदम भी डगमगा जाते हैं. लेकिन, अनीता आंटी और उनके बच्चे समाज के सामने एक उदाहरण पेश करते हैं. अनीता आंटी नौकरी नहीं करना चाहती हैं, लेकिन आगे की पढ़ाई जारी रखना चाहती हैं. सही मायने में यही शिक्षा है. हमारे समाज का ताना बाना कुछ इस तरह है कि यहां पढ़ाई, कमाई के समानुपाती होती है. हम बच्चों को इसलिए नहीं पढ़ाते हैं कि उन्हें ज्ञान हासिल हो, बल्कि इसलिए पढ़ाते हैं कि उन्हें कितना बड़ा पैकेज हासिल हो रहा है. ऐसे में ज्ञान के लिए पढ़ना एक मिसाल पेश करता है.
हमारे समाज में आज भी पति के मरने के बाद औरत अक्सर टूट जाती है. अगर, पति की मौत असमय हुई हो तो जीना और भी मुश्किल हो जाता है. भारत में तो अधिकांश महिलाएं जो अपने पति के भरोसे जीवन गुज़ार रही हैं, उनके घर में इस तरह की त्रासदी होते ही सबसे बड़ा सवाल परिवार का भरण पोषण होता है. ऐसे में अगर कोई औरत पढ़ने का मन बनाए तो समाज उसे एक अपराधी के तौर पर देखता है. अपने समाज में अगर किसी औरत का पति गुज़र जाए तो समाज ये चाहता है कि वह मुस्कुराना भी छोड़ दे. 'डोर' फिल्म में पति के गुजरने के बाद उनके जन्मदिन पर नायिका अपनी दोस्त के साथ वो सारा काम करती है जो वह अपने पति के जिंदा रहते हुए करती. मसलन, फिल्म देखना, गोल गप्पे खाना और फिल्मी गाने पर नाचना. नायिका ये सब करते-करते अचानक उदास हो जाती है और अपनी सहनायिका से बोलती है, “ये मैं क्या कर रही हूं. उन्हें गए हुए दो महीने भी नहीं हुए और मैं नाच रही हूं, हंस रही हूं. ये सही नहीं है.” तब सहनायिका उससे एक सवाल पूछती है, "अगर तुम्हारा पति जिंदा होता, तो क्या वो तुम्हें खुश देखकर खुश नहीं होता? और अगर वह खुश होता, तो तुम वही काम कर रही हो जिससे उसे खुशी मिले."
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जब आपका अजीज आपकी जिंदगी से चला जाता है तो उसके जाने की कमी जिंदगी भर अखरती है, लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि आदमी हंसना छोड़ दे. किसी के जाने का दुख केवल कुछ महीने या साल भर का नहीं होता है. खास बात ये भी है कि इस तरह की मनोदशा के साथ पढ़ पाना आसान भी नहीं होता है. फिर एक सवाल होता है जो इर्द गिर्द का समाज और खुद औरत अपने आप से पूछती है, आखिर अब पढ़ कर क्या करोगी?, पूरी उम्र तो निकल गई. ऐसे में अगर कोई औरत सिर्फ इसलिए पढ़ाई करती है, क्योंकि उसे पढ़ने का मन है. वह इसलिए पढ़ना चाहती है क्योंकि वह बेवकूफ नहीं बनना चाहती है. वह इतना चाहती है कि जब उसके बच्चे किसी विषय पर बात कर रहे हों तो, वो भी उस चर्चा में शामिल हो सके. सही मायने में यही नारी सशक्तिकरण है.
अनीता आंटी जैसी महिलाएं बताती हैं कि पढ़ने की कोई उम्र नहीं होती है. पढ़ने की ललक होती है. ये वो महिलाएं हैं जो बताती हैं कि, किसी के जाने के बाद जिंदगी खत्म नहीं होती है, बल्कि जिंदगी हर बार नए तरीके से खड़ी होती है. जिंदगी किसी की यादों में खत्म होने का नाम नहीं है. जिंदगी किसी की यादों के साथ आगे बढ़ने का नाम है. ये वो महिलाएं है, जो एक विशेष दिन महिला दिवस नहीं मनाती हैं, बल्कि हर दिन महिला दिवस के रूप में जीती हैं. दरअसल, खोखली स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे संगठनों को इन महिलाओं से सीख लेनी चाहिए.
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)