‘कानपुर बराज में ऑफिस में बैठे अधिकारी के पास फोन आया, “सर वो..सर वो दी वीआईपी फंस गए हैं.“ फोन ने पूरे ऑफिस में अफरा तफरी का माहौल बना दिया. दो लोग आपस में बात करने में लगे हुए थे, एक ने दूसरे के कान के पास आकर कहा- दो वीआईपी फंसे हैं, खबर बाहर नहीं निकलनी चाहिए. इसके साथ ही कहने वाला औऱ सुनने वाला दोनों हल्के से मुस्कुरा दिए. ऑफिस के भीतर ही कुछ फोन और बजे, फिर बराज के एक गेट को खोला गया और बराज में अटकी दो लाशें आगे बह गई. लाश के बहने की खबर पाते ही अफसर और उनके चमचे एक ही बात दोहरा रहे थे, चलो भई! हमारी सरदर्दी खत्म, अब आगे वाले जाने. बराज में लाशों का फंसना आम बात है, वैसे तो नियम यह है कि उन्हें निकाल कर जलाना चाहिए लेकिन करे कौन, बराज में अक्सर फंसने वाली इन्हीं लाशों को कूट भाषा में वीआईपी कहते हैं.


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‘लेकिन सर आगे जवाव तो देना होगा’- अर्दली ने पूछा. उसकी बात का किसी ने जवाब नहीं दिया, हां टाइपराइटर पर जवाब तैयार हो रहा है कि दो लाशें फंसी थीं, उन्हें निकालने के लिए चैनल खुलवाए गए, लेकिन तेज धारा की वजह से दोनों लाशें बह कर आगे निकल गईं, बिठूर में सूचना दे दी गई है कि प्रशासन नज़र रखे ताकि लोग बिना जलाए लाशों का गंगा में न बहाएं. बराज वाले अच्छी तरह से जानते हैं और कानपुर वाले उससे भी अच्छी तरह से जानते हैं कि कानपुर की गंगा में तेज धारा का क्या मतलब है?


उपरोक्त अंश मेरे और मेरे साथी अभय मिश्र द्वारा लिखी गई किताब ‘दर दर गंगे’ के हैं. गंगा के किनारे बसे शहरों की कहानी कहती किताब के इन वाक्यों में उतना ही सच है, जितनी कानपुर में गंगा में जमी गाद, जितनी वहां बांस गड़ा कर आगे बढ़ने वाली नावें और उतनी ही शाश्वत है जितना हम गंगा को मानते हैं.


गंगा को लेकर हमारा रवैया दरअसल इन फंसी हुई लाशों की तरह ही है, जिन्हें आगे बहा कर प्रशासन अपने काम कि इतिश्री कर लेती हैं. ये बात इसलिए निकली, क्योंकि कुंभ लग गया है. अच्छे से चल रहा है. सरकार ने 3200 हेक्टेयर ज़मीन पर लगने वाले इस विश्व के सबसे बड़े जमावड़े के लिए 4200 करोड़ रुपए का बजट तय किया है. इसमें सिर्फ सफाई के लिए या यूं कहें शौच व्यवस्था पर 234 करोड़ रुपए लगाए गए हैं. 12 करोड़ श्रद्धालुओं के आने के अनुमान को देखते हुए करीब 1,22,500 शौचालय निर्माण का प्रावधान रखा गया था, हालांकि कुल 95,000 शौचालय ही बने हैं. इतनी व्यवस्था इसलिए की गई ताकि गंगा साफ रह सके.


गंगा साफ रह सके, वाकई में? कानपुर में चलने वाले चमड़ा उद्योग इस बार कुंभ के चलते तीन महीने तक बंद रहेंगे. ऐसा पहली बार हो रहा है, इससे पहले शाही स्नान से तीन-चार दिन पहले उद्योग को बंद रखने का आदेश दिया जाता था. इस बार सरकार गंगा की सफाई को लेकर कुछ ज्यादा ही सजग लग रही है, इसलिए उन्होंने एक महीने तक बंद रखने का आदेश दे दिया है. कानपुर का जाजमऊ जो चमड़ा उद्योगों का गढ़ है जहां कुल रजिस्टर्ड 249 टैनरीज़ में से 130 मौजूद हैं. तीन महीने बंद होने से यहां से होने वाले 7000 करोड़ सालाना के व्यापार पर सीधा असर पड़ने वाला है. साथ ही अप्रत्यक्ष रूप से काम करने वाले करीब 2 लाख लोगों के रोज़गार पर भी प्रभाव पड़ेगा.


इन टेनरीज़ से निकलने वाले गंदे पानी यानि एफ्लुएंट को दुरुस्त करने की जिम्मेदारी जल निगम के पास होती है. अकेले जाजमऊ में कंपनियों से निकलने वाले दूषित पानी को इकट्ठा करने और उपचारित करने के लिए चार पंपिग स्टेशन लगाए गए हैं. कुंभ से पहले जल निगम को इन पंपों को रिपेयर करने के लिए 18 करोड़ भी आवंटित किए गए थे, लेकिन शायद वो काम हमेशा की तरह समय पर नहीं हो सका और कुल मिलाकर टेनरीज को बंद करने का आदेश जारी किया गया.


कानपुर के किनारे बने इन चमड़ा उद्योगों पर तभी से गंगा को दूषित करने का इल्जाम लगता रहा है जबसे गंगा की सफाई की बात चली है, लेकिन इस पूरे मुद्दे में एक खास बात ये भी है कि कहीं ना कहीं सरकार, प्रशासन और लोगों ने गंगा को एक बड़ा नाला मान लिया है, जिसमें शहर से निकलने वाले तमाम छोटे नालों को मिला दिया जाता है.


क्योंकि कुंभ सबसे बड़ा धार्मिक पर्व है, उस पर नागाओं के अपने तेवर हैं, जिसे झेल पाना किसी भी सरकार के बस की बात नहीं है, इसलिए गंगा नाम के बाथटब में थोड़ा साफ पानी डाल दिया जा रहा है, जिससे बाबा को नहाने के लिए साफ पानी मिल जाए और वो हर हर गंगे कहते हुए अपने हिस्से की छलांग लगाकर गंगा के पानी में छपाके मार लें.


टेनरीज को बंद करना ये बताता है कि सरकारें जानती हैं कि गंदगी कहां से आ रही है और कहां जा रही है. लेकिन साथ ही इस बात की ओर भी इशारा करता है कि गंगा की सफाई को लेकर नारे जयकारे लगाता प्रशासन और नीति निर्माता उसके स्थायी इलाज को लेकर कितने गंभीर है. सब बस अपने हिस्से में फंसी लाशों को आगे बहाने में लगे हैं, जिससे उनका बैराज साफ रहे. और वैसे भी यहां तो बस कुछ दिनों की ही बात है, बाबा नहा लेंगे फिर गंगा जाने उसका काम जाने.


(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और WaterAid India 'WASH Matters 2018' के फैलो हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)