मसला बेरोज़गारी का (भाग दो) : कहां से सोचना शुरू हो बेरोज़गारी का समाधान
अभी अपने यहां व्यवस्थित यानी वैज्ञानिक ढंग से विमर्श का खाका बनाने का रिवाज़ नहीं है. चाहे कॉन्फ्रेंस हो या सेमिनार या वर्कशॉप सभी आयोजनों के लिए एक ही प्रकार का खाका बनता दिखता है.
अब ये निर्विवाद है कि बेरोज़गारी एक इमरजेंसी समस्या बन गई है. भले ही इसकी तीव्रता को लेकर सरकार और गैरसरकारी रूख में अंतर हो, लेकिन इस बात में भी कोई शक नहीं कि सरकार को देश में बढ़ती बेरोजगारी को लेकर चिंता करनी पड़ रही है. यहां तक कि इस बार के बजट में सरकार को जगह जगह बेरोज़गारी का जिक्र करना पड़ा. और अगर कोई विवाद बचा है तो वह यह कि यह समस्या है कितनी बड़ी और अपने आकार और तीव्रता के कारण इसका समाधान है क्या? इस आलेख के भाग एक में यही लक्ष्य बनाने की कोशिश थी. आलेख के पहले भाग का समापन यह सुझाव देते हुआ था कि बेरोज़गारी की समस्या का विश्वसनीय समाधान ढूंढने के लिए सोच विचार का विशेष आयोजन करने की जरूरत है, जिसे प्रबंधन प्रौद्योगिकी की भाषा में ब्रेन स्टॉर्मिंग कहते हैं. हिंदी में इसे बुद्धि उत्तेजक आयोजन कहते हैं.
क्या है ब्रेन स्टॉर्मिंग
यह जटिल समस्या का समाधान ढूंढने का एक फौरी उपाय है. खासतौर पर वैसी समस्या का समाधान ढूंढने का उपाय, जिसे संबधित क्षेत्र के योजनाकार, शासक, प्रशासक और प्रबंधक लोग सुझा न पा रहे हों. इस तरह के आयोजनों के विशेषज्ञ सुझाते हैं कि समस्या से संबंधित विभिन्न विषयों के जानकारों और विद्वानों को एक साथ बैठाकर उनसे इस समस्या के समाधान पूछे जाएं. और लगे हाथ यह विमर्श किया जाए कि उनके सुझाए समाधानों को लागू करने में अड़चनें क्या क्या हैं. ब्रेन स्टॉर्मिंग में अनेक समाधान आते हैं. आमतौर पर उनमें कोई न कोई नवोन्वेषी समाधान सामने आ जाता है और सभी क्षेत्रों के जानकारों की मौजूदगी में हाल के हाल यह सोच-विचार भी कर लिया जाता है कि नया समाधान कितना विश्वसनीय और व्यावहारिक है. बेशक यह प्रक्रिया समयसाध्य और खर्चीली होती है, लेकिन जटिल और आकार में बहुत बड़ी समस्याओं के समाधान ढूंढने के लिए लंबे वक्त और लंबा-चौड़ा खर्च वहन या सहन करना समझदारी समझी जाती है. दुनिया में इस समय उद्योग व्यापार जगत की बहुराष्ट्रीय कंपनियां इस तरह के आयोजन पर खर्च करने से बिल्कुल नहीं हिचकतीं. विनिर्माण और सेवा क्षेत्र की निजी कंपनियां अपने शोध व विकास कार्य पर बड़े बड़े खर्च ब्रेन स्टॉर्मिंग के मकसद से ही करती हैं.
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बेरोज़गारी जैसे मसले पर कौन कर सकता है यह काम
वैसे तो यह काम सरकार का है, लेकिन लोकतंत्र में सरकार का हर काम लोक का भी हो जाता है. इस तरह यह काम जिम्मेदार विपक्ष का भी है और सभ्य समाज का भी है, जिसे आमतौर पर हम स्वयंसेवी संस्थाओं के रूप में पहचानते हैं. ये सामाजिक संस्थाएं समाज के लगभग हर तबके का प्रतिनिधित्व करने में समर्थ हैं. अगर सोच-विचार के खर्च के लिहाज़ से देखें तो उद्योग व्यापार जगत की भूमिका भी बनती है. आजकल तो उद्योग व्यापार जगत का सामाजिक उत्तरदायित्व भी तय कर दिया गया है. बेरोज़गारी जैसी सार्वभौमिक समस्या के समाधान के लिए सामाजिक कार्य करने से बेहतर काम उसके लिए क्या हो सकता है और फिर बेरोज़गारी तो ऐसा विषय है कि ये सारे लोग एक साथ लग सकते हैं. इनका एक साथ लगना इस समस्या के समाधान ढूंढने के लिए ब्रेन स्टॉर्मिंग की सबसे पहली जरूरत को पूरा कर देगा.
ऐसे आयोजन के लिए शुरूआती जरूरतें
अभी अपने यहां व्यवस्थित यानी वैज्ञानिक ढंग से विमर्श का खाका बनाने का रिवाज़ नहीं है. चाहे कॉन्फ्रेंस हो या सेमिनार या वर्कशॉप सभी आयोजनों के लिए एक ही प्रकार का खाका बनता दिखता है. सामान्य अनुभव है कि इस प्रकार के आयोजन अपने निष्कर्ष और सिफारिशें स्पष्ट रूप से पेश नहीं कर पातीं. जबकि ब्रेन स्टॉर्मिंग के आयोजन का लक्षित और व्यवस्थित होना पहली शर्त. इस मामले में एक बड़ी सुविधा उपलब्ध है कि इस आयोजन के पास एक ही लक्ष्य होगा बेरोज़गारी के समाधान का उपाय तलाशना. इस तरह के विमर्श आयोजन के लिए दूसरी जरूरत होती है विमर्श के सत्रों को तय करना. इसके लिए बेरोज़गारी नापने के पैमाने, देश में बेरोज़गारी का आकार, बेरोज़गारी के कारण, उसके निदान और आखिर में उपचार के लिए अलग-अलग सत्र होंगे ही.
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आयोजन की मुश्किलों को पहले से सोचकर रखना होगा
किसी भी जटिल समस्या के विभिन्न कारणों को एक ही आयोजन में एक नज़र में देखना बेशक जटिल काम है. बेरोज़गारी का यह रोग किसी शारीरिक रोग की तरह नहीं है कि एक शल्यक्रिया से निपट सके. इसके निदान भी बहुआयामी निकलेंगे. उपचार के कई तरीके सामने आएंगे. उनके बीच क्या-क्या विरोधाभास हो सकते हैं? इसे बाद के लिए नहीं छोडा जा सकता. ऐसे आयोजनों के लिए देश में अनुभवी और निपुण संचालकों की कमी नहीं है. आयोजन के दौरान ही विघ्नसंतोषी तत्व आयोजन में मीनमेख निकालने लगते हैं. मसलन कोई भी कह सकता है कि बेरोज़गारों को अपनी बात रखने के लिए बुलाया ही नहीं गया. पहले से सोचकर रखा जाना चाहिए कि इसका क्या जवाब होगा?
बेरोज़गारों पर ही जिम्मेदारी डालना कितना वाजिब
क्या बेरोज़गारों की कोई ऐसी संस्था है जो दावा करे कि वह इस समस्या के व्यावहारिक समाधान पर सोच विचार करती है? हो सकता है कि ऐसी संस्थाएं भी वजूद में हों, लेकिन देखने में बिल्कुल नहीं आता कि बेरोज़गार युवकों का कोई संगठन या संस्था अपनी समस्या के समाधान के लिए कोई वैचारिक उद्यम कर रहा हो. वैसे इस समस्या के भुक्तभोगी वे ही हैं और उन्हें ही सोच-विचार की पहल करनी चाहिए, लेकिन यह भी एक तथ्य है कि उनका काम शिक्षण-प्रशिक्षण लेने का ही था और उन्हें विश्वास रहता है कि आगे की बातों का इंतजाम समाज ने करके ही रखा होगा. यह इंतजाम दिख नहीं रहा है. यानी समाजशास्त्र, व्यावहारिक राजनीति शास्त्र, व्यावहारिक अर्थशास्त्र, व्यावहारिक लोकप्रशासन की विफलता की स्थिति में बहुत संभव है कि खुद बेरोज़गारों को अपनी समस्या के समाधान सोचना शुरू करना पड़े. यहां इस बात का ज़िक्र जरूरी है कि बेरोज़गार ही समस्याग्रस्त है. एक मरीज़ के रूप में उस पर समाधान सोचने की जिम्मेदारी डालना ठीक नहीं. लिहाज़ा अपनी समस्या के समाधान के लिए अगर बेरोज़गारों की कोई भूमिका बनती है तो वह ये हो सकती है कि देश और समाज पर दबाव डालें कि बेरोज़गारी को एक बड़ी समस्या माना जाए और इसका समाधान ढूंढा जाए.
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किन क्षेत्रों के विशषज्ञों की जरूरत पड़ेगी
साल में कम से कम कितने दिन का रोज़गार पाने वाले को हम बेरोज़गार नहीं मानेंगे इसे फिर से तय करने की जरूरत पड़ेगी. इस काम में सामाजिक आर्थिकी के विशेषज्ञों की बड़ी भूमिका होगी. बेरोज़गारी का व्यावहारिक समाधान ढूंढने में राजनीतिक आर्थिकी के विद्वान बहुत काम आएंगे. आज की तारीख तक बेरोज़गारी का आकार नापने के लिए शोध पद्धति के विशेषज्ञ जरूरी होंगे. अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र के विद्वानों की निगरानी के बगैर यह काम हो ही नहीं सकता. वे ही अच्छी तरह से सोचकर यह भी बता पाएंगे कि बेरोज़गारी की समस्या अर्थशास्त्र की किन-किन उपशाखाओं से संबंध रखती है. यानी मैक्रोइकॉनॉमिक्स के अनुभवी जानकारों की जरूरत पड़ेगी. व्यावहारिक नज़रिए से देखें तो बेरोज़गारी उन्मूलन परियोजना की व्यवहार्यता देखने के लिए वित्तीय मामलों के जानकार जरूरी होंगे ही. किसी सामाधान को नक्की करने में आर्थिक विषमता का मामला आड़े आएगा सो सामाजिक आर्थिकी का एक विशिष्ट क्षेत्र होगा. बेरोज़गारी के अनुमानित आकार को ध्यान में रखें तो इतनी बड़ी तादाद में बेरोज़गारों को रोज़गार या काम धंधों में लगाने के लिए देश में उत्पादन बढ़ाने की गुंजाइश का मसला आएगा ही. यानी यह सवाल कि अचानक उत्पादित माल कहां खपाया जा सकता है सो निर्यात और वैश्विक विपणन के जानकारों को शामिल होना भी जरूरी होगा. यह हमें अच्छी तरह पता है कि अभी भी हम कृषि प्रधान देश हैं. कृषि पर ही सबसे बड़ा संकट आया हुआ है. देश के पौने 7 लाख गांवों में रोज़गार पैदा करने के हिमालयी लक्ष्य को साधने का काम हमसे हो नहीं पा रहा है. इस तरह कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की वर्तमान स्थित और आगे की संभावनाएं देखने वाले जानकार भी इस आयोजन के लिए सबसे ज्यादा काम के होंगे. बहुत संभव है कि आर्थिक विषमता की बात प्रमुखता से बाहर निकलकर आ जाए. लिहाज़ा सम वितरण का प्रबंधन सुझाने वाले विशेषज्ञ हमारे पास होने चाहिए. आमतौर पर ऐसे विशेषज्ञ दार्शनिक स्वभाव के होते हैं. लिहाज़ा जैन और बौद्ध दार्शनिकों की मौजूदगी ऐसे आयोजन को पूर्णता देगी.
(लेखिका, प्रबंधन प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं)