वनवासियों की मुश्किल हमारे अंत की शुरुआत
अनुसूचित जनजाति की समस्याएं और उनके समाधान की बात करने से पहले यह जानना जरूरी है कि ये हैं कौन? क्या कारण है कि इन्हें मुख्य समाज से अलग करके देखा जाता है?
कभी-कभी दूसरे के हिस्से का श्रेय और सुख अनायास ही मिल जाता है. अवधेशप्रताप सिंह विश्वविद्यालय रीवा के अनुसूचित जाति अध्ययन केंद्र के राष्ट्रीय सेमीनार में मुख्य वक्ता के रूप में यशस्वी व विद्वान, प्रशासक शरदचंद्र बेहार साहब को बोलना था. इस गर्मी और लगन की भीड़-भड़क्का में रायपुर से उनकी टिकट कन्फर्म नहीं हो पाई. आयोजकों ने 12 घंटे पहले रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए मेरा नाम तय कर लिया. एक पत्रकार के नाते जल-जंगल-जमीन और जन पर लिखना-पढ़ना मुझे हमेशा से भाता रहा है. बेहार साहब तो खैर बेहार साहब ही हैं. नौकरशाही के सर्वोच्च शिखर पर बैठकर कोई इतना भी संजीदा हो सकता है बेहार साहब इसके उदाहरण हैं, ईश्वर उन्हें शतायु दे. चीफ सेक्रेटरी रहते हुए भी वे कई सामाजिक आंदोलनों के प्रेरक रहे हैं. इस क्षेत्र में काम करने वाले बहुत से नौजवानों के वे आज भी ऊर्जा के श्रोता और मार्गदर्शक हैं. निश्चित ही जनजातियों की समस्याओं और उसके समाधान के रास्ते पर उनका वक्तव्य प्रभावपूर्ण होता. बहरहाल उनकी जगह मुझे खड़ा होना था सो मेरे लिए यह अलग अनुभूति और दायित्वबोध का विषय था.
वनवासियों पर मेरी समझ किताबों के जरिए नहीं बन पाई. इस समाज को आंखों से जितना देखा और उनके बीच जाकर जो जाना, बस उतना ही ज्ञान है, उससे ज्यादा कुछ नहीं. अलबत्ता अल्विन बारियर और वाल्टर जी ग्रिफिथ्स को पढ़ा है. दोनों ने ही मध्यभारत की जनजातियों पर विषद् और वैज्ञानिक अध्ययन किया है. स्वाभाविक तौर पर इन महापुरूषों के अध्ययन का आधार वैदिक काल की वह अरण्य संस्कृति नहीं रही, जिसमें यह समाज पला-बढ़ा और आज यहां तक पहुंचा, पढ़कर यही एक खोट महसूस हुआ. वारियर और ग्रिफिथ्स मेरे लिए महज एक विद्वान व अकादमिक सूचना संसाधन मात्र हैं. जो भी समझ बनी वह उनके बीच जाकर उनके हाल देखकर ही बनी. जाहिर है कि जनजातियों के मसले समझने का मेरा नजरिया एक पत्रकार का है और इस हिसाब से आप मुझे इस विषय के बारे सतही जानकार घोषित करने के लिए स्वतंत्र हैं. वक्तव्य से पहले मैंने छात्रों और शोधार्थियों को यही कैफियत दी.
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अनुसूचित जनजाति की समस्याएं और उनके समाधान की बात करने से पहले यह जानना जरूरी है कि ये हैं कौन? क्या कारण है कि इन्हें मुख्य समाज से अलग करके देखा जाता है? इतिहासकारों ने इन्हें आदिवासी कहकर संबोधित किया. जैसा कि अर्थ से ही स्पष्ट है यहां के आदि निवासी. इससे यह स्वमेव ध्वनित होता है कि इनके अलावा जो भी हैं वे इस देश के आदि.. वासी नहीं हैं अन्यत्रवासी थे. इतिहासकारों की इसी स्थापना की पीठ पर आर्यों और अनार्यों की थ्योरी गढ़ी गई. यह एक बड़ी साजिश का हिस्सा थी, वो इसलिए कि जिससे विशाल भारतीय समाज में इसे आधार बनाकर आगे विभेद पैदा किया जा सके. विभेद की ये कोशिशें हो भी रही हैं.. कभी महिषासुर महोत्सव के जरिए, कभी यह बताकर कि ये भारतीय सनातन समाज का हिस्सा ही हैं, इनका धर्म व इनकी मान्यताएं अलग हैं. राजनीतिक तुष्टीकरण इस मसले को और भी गंभीर बना देता है. मेरा मानना है कि इसे वनवासी समाज कहना ही सही और न्यायोचित होगा. इतिहास से आदिवासी शब्द सदा के लिए विलोपित कर दिया जाना चाहिए, क्योंकि अंग्रेज और उनके वैचारिक वंशधरों ने आदिवासी शब्द ही सोची-समझी और दूरगामी परिणाम देने वाली साजिश के चलते गढ़ा था.
अब विचार करने की जरूरत है कि ये वनवासी ही क्यों रहे आए, जबकि अरण्य संस्कृति का विस्तार ग्राम्य और नागर संस्कृति तक हुआ. वनों से दूर एक नया समाज बना और वह आज उत्तरोत्तर आधुनिकता दौड़ में इतना आगे पहुंच गया कि इस धरती से भी दूर नए ग्रहों में बसने की सोचने लगा है. मेरा ऐसा मानना है कि आदिमयुग के बाद जब सभ्यताओं के विकास का क्रम शुरू हुआ.. मेधा का विकास द्रुतगति से होने लगा तो उस समाज में दो समानांतर वर्ग पनपे. उसका आधार और कुछ नहीं अपितु प्रवृत्ति और मनोवृत्ति थी. एक वर्ग में असुरक्षा बोध, भविष्य की चिंता और संग्रह की वृत्ति जन्मी. यह अन्वेषक और नवाचारी वर्ग था जो वन-प्रांतरों से अलग एक दूसरी दुनिया के बारे में सोचने लगा. दूसरा वर्ग यथास्थिति से ही संतुष्ट रहा. वह प्रकृति को ही आदि से अंत तक अपना पालक और आराध्य मानता रहा. इन दोनों वर्गों में क्रमशः दूरियां बढ़ती गईं. वनों से दूर मैदानी हिस्से में नदियों के किनारे सभ्यताएं फलने लगीं. संग्रह वृत्ति के साथ पूंजीवाद शुरू हुआ और जंगल के बाहर का यह समाज नए डगर पर चल पड़ा. उसकी बुद्धि और बाहुबल ने प्रकृति को ही अपनी पूंजी का संसाधन मान लिया. जो वनों में रह गए उन्होंने अपना भविष्य प्रकृति के ही हवाले छोड़ दिया. इस दृष्टि से देखें तो जो आज वनों में रह रहे हैं वो, और जो गांव व शहरों में बस्ते हैं वो, दोनों ही मूलत रूप से एक हैं. यह थोपी हुई थ्योरी है कि वे आदिवासी हैं और जो शेष हैं वे बाहर से आए हुए आक्रांता. वेद हमारी अरण्य संस्कृति की अमूल्य निधि हैं. इन्हें रचने में वनवासी समाज का भी उतना ही योगदान है.
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वनवासियों के देवी-देवताओं और मान्यताओं पर भी विमर्श चलते रहते हैं. यह बात तो इतिहासकार भी मानते हैं कि शिव परिवार और हनुमानजी मूलतः अनार्यों के देवता हैं. वेदों में प्रकृति को ही देवता माना गया है. वैदिक देवता व्यक्त और व्यापक हैं. वे साक्षात हैं. वेदों में पंचभूतों को देवता माना गया है. वृक्ष, नदियां, पर्वत, पशुपक्षी सभी के प्रति दैवीय भाव है. वनवासियों के प्रायः सभी देवी-देवता प्रकृति का प्रतिनिधित्व करते हैं. वनवासियों के मंत्रोच्चार जोकि प्रायः आपदा-विपदा के समय या झाड़-फूंक के लिए प्रयोग में लाए जाते हैं उनमें से प्रायः सभी में हनुमान जी या शंकर जी की दुहाई दी जाती है. शिव परिवार तो एक तरह से जैव विविधता और सह अस्तित्व का जीवंत प्रदर्श है, जिसे वनवासी समाज आज भी जीता है. शिव वनवासियों के आदिदेव हैं.
ग्राम्य व नागर संस्कृति के जनों ने तो काफी बाद में इनके अस्तित्व व महत्व को स्वीकार किया. डॉ. राममनोहर लोहिया वानरों को बंदर नहीं मानते, अपितु इन्हें मनुष्य ही मानते हैं जो वन में रहते थे. वानर से ऐसा शब्दबोध भी होता है, वन-नर= वानर. रामायण कथा वनवासियों के पराक्रम और अतुल्य सामर्थ्य की कथा है, जिसमें उन्होंने राम के नेतृत्व में पूंजीवाद, आतंकवाद के पोषक साम्राज्यवादी रावण को पराजित कर सोने की लंका को धूलधूसरित कर दिया. रामकथा यथार्थ में वनवासियों के मुक्ति संघर्ष और विजय की अमरकथा है. इस कथा के नायक ने स्वयं वनवासी बनना स्वीकारा और तमाम वनवासियों को अपने बराबरी में खड़ा करके समाज को समत्व की नई परिभाषा दी. सो इसलिए ये वनवासी सनातन से चले आ रहे भारतीय कुल परिवार के अभिन्न और अविभाज्य जन हैं. यदि कोई विभेद है तो वह है जीवन और विचार शैली का, परंपरा परिवेश और पर्यावास का. वो प्रकृति के साथ गूंथे हैं और ये प्रकृति को भी वस्तु संपदा की दृष्टि से देखते हैं. यह विभेद भी महत्व का है, क्योंकि यहीं से इनकी समस्याओं का समाधान सूझेगा.
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औद्योगिकीकरण ने प्रकृति को संपदा का संसाधन मान लिया. वनवासियों की मुसीबत की शुरुआत यहीं से होती है. प्रकृति की नेमतें भी कभी-कभी उसकी दुश्मन बन जाती हैं. कस्तूरी मृगों के नाश का कारण बन गई और मणि उन सर्पों की, जिनके फन में यह शोभित होता. जंगल-वन प्रांतरों का रत्नगर्भा होना उसके नाश का कारण है. वनवासियों के समक्ष अपने अस्तित्व को बचाए रखने का संघर्ष है. पूरे देशभर के वनों से वनवासी जिन प्रमुख वजहों से बेदखल किए जा रहे हैं उनमें से पहली बड़ी वजह है खदानें. युगों से तने घने वनों की भूमि के गर्भ में जो खनिज संचित हैं, वह औद्योगिकीकरण के लिए चाहिए. उड़ीसा, झारखंड, बस्तर और मध्यप्रदेश के सिंगरौली इलाके में बड़ी संख्या में वनवासियों की बेदखली हुई और अभी भी बेदखली की योजना है, जहां आज दुनिया के विकसित देश अपने वन-पर्वत नदी झरने बचाने में लगे हैं, वहीं हमारी खुदगर्ज व्यवस्था इनके सत्यानाश पर आमादा है. वैज्ञानिकों ने इंडोनेशिया की मृत्यु की घोषणा कर दी है. वहां अत्याधिक खनन से धरती का भूगोल ही बदल गया है. प्राकृतिक विपदाओं के लिए आज वह सबसे सुभेद्य देशों में से एक है. भारत के नीति नियंताओं ने नेहरू युग से जो रफ्तार पकड़ी उसका एक्सीलेटर दबाए जा रहे हैं.
उड़ीसा में मेदांता को जिन वन पर्वतों को खदानों के लिए दिया गया था वे वनवासियों की पहचान और अस्तित्व के साथ जुड़े थे. लंबा संघर्ष चला. कई वनवासियों को अपने प्राणों की आहुति देनी ड़ी तब कहीं जाकर सुप्रीम कोर्ट के दखल से वे वन-पर्वत बच पाए. अपने सिंगरौली के साथ ऐसा नहीं हो सका. सिंगरौली में कोयला खदानों की श्रृंखला है. जैवविविधता से संपन्न वनों को खदानों के लिए बड़े औद्योगिक घरानों को दे दिया गया. उद्योगपतियों ने मुआवजे के मोहजाल में फंसाकर वनवासियों को नर्क में धकेलने का काम किया है. सिंगरौली विस्थापन का क्रूर व कुटिल मंडल है. इसी तर्ज में देश के अन्य हिस्सों में हो रहा है. संस्कृति और पहचान की बात करें तो जो खैरवार वनवासी कभी समूचे सिंगरौली में राज करते थे वे आज या तो भिखारी हैं या फिर महानगरों के स्लम में रहने वाले मजदूर. वनवासियों को बेदखल करने और कंगाल बनाने की कथा हर सौ कोस में मिल जाएगी. कहीं बड़े बाँधों के लिए बेदखल किया जा रहा है तो कहीं
नेशनल पार्क और अभयारण्यों के लिए. जंगल में जानवर की हिफाजत की चिंता है, मनुष्य की नहीं. वह मनुष्य जो युगों से जानवरों और प्रकृति के साथ सह अस्तित्व जीवन जी रहा था उसे आज जानवरों का दुश्मन करार कर दिया गया. जो राजे-रजवाड़ों ने बाघों व अन्य जानवरों का शिकार करके लाट साहबों की पद्वियां पाईं, आज उन्हीं के नुमाइंदे इस नीति के नियंता बने हुए हैं. जो वनवासियों को विकास का बाधक मानते हैं. समस्याओं का ओर-छोर नहीं, न ही कोई पारावार. योजनाएं वनवासियों के लिए बनती हैं पर कभी यह जानने की कोशिश नहीं होती कि वे खुद कैसा विकास चाहते हैं. थोपा हुआ विकास उन्हें विनाश की मझधार में ले जाकर छोड़ रहा है.
वनवासियों की जीवनशैली परिवेश और उनकी दृष्टि को जाने बिना हम सही दिशा में नहीं बढ़ सकते. प्रकृति को लेकर जो उनका दृष्टिकोण है वही इस दुनिया को बचा सकता है. प्रकृति से हम उतना ही लें जितना फूल से भवरा, जितना गाय से बछड़ा. प्रकृति का वध करके विकास की सोचेंगे तो हमें इस सृष्टि में कहीं सहारा ढ़ूढे नहीं मिलेगा. इस शताब्दी के महान वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंस यह चेतावनी दे चुके हैं- हमारा हर कदम विनाश की ओर बढ़ रहा है. हमें आत्महंता प्रवृत्ति छोड़नी होगी या फिर किसी दूसरे ग्रह को खोजना होगा, जहां हम अपना डेरा जमा सकें, क्योंकि विकास की आत्मघाती रफ्तार तेज और तेज होती जा रही है. वनवासियों से हम जीने की जीवनदृष्टि ले सकते हैं पर अभी तो फिलहाल उन्हीं के अस्तित्व के सत्यानाश में लगे हुए हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)