गोस्वामी जी कह गए.. अउर देवता चित्त न धरई, हनुमत सेइ सर्व सुख करई...गोसाईं जी के लिए बजरंगबली देवता, ईश्वर नहीं बल्कि गुरु हैं. इसलिए जब भी अपने गुरु का बखान करते हैं तो समझिये हनुमान जी का करते हैं. हनुमान चालीसा का आरंभ.. श्री गुरु चरण सरोज रज..से करते हुए कामना करते हैं और ऐसी ही कामना की प्रेरणा देते है..जयजय हनुमान गोसाईं, कृपा करहु गुरुदेव की नाई ..तो जब विश्व के इतने महान, यशस्वी साधक ने उन्हें ही अपना गुरु माना तो अपन भी तो उसी परंपरा के मसिजीवी हैं अदने से ही सही.


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सच पूछिये जिंदगी में कोई लौकिक गुरु नहीं मिला, न ही किसी को गुरू बनाने का कभी ख्याल आया. अलबत्ता पहली से एमएससी तक और पत्रकारिता में शिक्षक मिले, प्रेरक मिले, अगुवा मिले पर ज्यादातर गुरु नहीं गुरू निकले. आदमी की एक दूसरे से रिश्तेदारी स्वार्थ की रस्सी से बंधी होती है. एक उम्र आते-आते तो पिता और पुत्र के बीच में भी यही रिश्ता हो जाता है, दूसरों को क्या कहिए. दाढ़ी वाले कनफुकवा तोंदियल अपन की समझ में कभी नहीं आए. एक कान में जो मंत्र फूकते हैं वह दूसरे से निकल जाता है. फिर उनके आशीर्वाद का वजन भी भक्त की आर्थिक हैसियत के हिसाब से होता है.


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आजकल महंत, पंडे भी अपनी महिमा की मार्केटिंग करते हैं. बाकायदा उनकी प्रपोगंडा टीम होती है जो प्रचारित करती है कि ये कितने महान व चमत्कारी हैं. देश और बाजार के  कौन-कौन जोधा उनके चेले हैं. ऐसे ही एक गुरू हैं जो औद्योगिक घरानों के बीच अर्बिटेशन का काम करने के लिए जाने जाते हैं. 


एक बार एक मित्र एक चमत्कारी संत के यहां ले गए. चुनाव का सीजन था. टिकटार्थी लाइन में लगे थे. मित्र भी लाइन में लग गए. बात उन दिनों की है जब अपन को बस और रेल की टिकट के लिए भी लाले पड़ते थे. संतजी भगत के चढ़ावा के हिसाब से पार्षदी से लेकर सांसदी तक की टिकट के लिए मैय्या से विनती करते थे. मित्र के लिए मैय्या से विधायकी की सिफारिश की. अब तक मित्र के उम्र की मैय्यत भी निकल गई टिकट नहीं मिली. 


चमत्कारी संत के लगुआ ने बताया कि मेरे मित्र के प्रतिद्वंद्वी ने ज्यादा भक्ति की सो टिकट उसको मिल गई. सो उसी दिन समझ में आ गया कि ..जो ध्यावे फल पावे...का क्या अर्थ होता है. बहरहाल हर गुरुपूर्णिमा में चांदी तो इन्हीँ की कटती है. ये अपने-अपने विश्वास की बात है..विश्वास जिंदा रहे..धर्म के नाम का धंधा फले फूले. इनकम टैक्स, इनफोर्समेंट की काली छाया इनपर कभी न पड़े. जनता टैक्स पर टैक्स दे देकर इनके दर पर जैकारा मारती रहे. सरकारें आती-जाती रहें और आश्रमों का टर्नओवर इसी तरह दिनदूना रात चौगुना बढ़ता रहे.


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बचपन में भागवत कथा सुनने जाता था. देवताओं राक्षसों के बीच ढिसुंग-ढिसुंग की कहानियां सुनकर बड़ा मजा आता था. पर जब गुरूबाबा काम, क्रोध, मद, मोह और माया (धन दौलत) त्यागने का उपदेश देने लगते तो बोरियत होती थी. अपने गांव में देखा गुरूबाबा लालबिम्ब...और जजमान मरियल सा। रहस्य था गुरूबाबा दस दिन देशी घी की हलवा पूरी छानते थे और उनके आदेश पर बपुरा जजमान उपवास रखकर कथा सुनता था. गए साल मित्र के यहां भागवत हुई. रिश्ता निभाना था सो गया...पता चला मोहमाया, लोभ त्यागने का उपदेश देने वाले के गुरुजी की गद्दी में पूरे दस लाख का चढ़ावा आया. ये गुरु गांव वाले गुरु से ज्यादा हाइटेक थे. भागवत कथा के रासलीला प्रसंग के लिए ये खासतौर पर मुंबई की मंडली लेकर आए थे. मंडली वाले एक असंतुष्ट नचनिए से पता चला कि ये जो यहां राधारानी का रोल कर रही है न वह दरअसल बार डांसर है. गुरुजी प्रवचन में जस्टिफाई कर रहे थे कि बांकेबिहारी लाल की कृपा से गणिका पतुरिया और अजामिल कसाई दोनों तर गए थे. गुरूजी मुंबई से उस बार डांसर को ऐसे ही तारने के लिए साथ में लेकर चला करते हैं. सो ऐसे कई वाकए हैं कि न मेरा...शिक्षा में कोई गुरु हुआ, न पेशे में और न ही कनफुकवा मंत्र देने वाला.


मैं तलाशता रहा कि कोई गुरु मिले स्वामी रामानंद जैसा जो कान में यह फूंकते हुए हृदय में उतर जाए...कि जाति पांति पूछे नहि कोय, हरि को भजै सो हरि का होय. रैदास जैसा भी कोई नहीँ मिला जिसके मंत्र ने क्षत्राणी मीरा कृष्ण की दीवानी मीरा बन गई. कबीर, नानक जैसे सद्गुरु आज के दौर में होते और तकरीर देते तो उनकी मुंडी पर कितने फतवे और धर्मादेश जारी होते हिसाब न लगा पाते. 


नेकी कर दरिया में डाल...जैसा उपदेश देने वाले बाबा फरीद होते तो यह देखकर स्वमेव समाधिस्थ हो जाते कि...नेकी कर वाट्सएप में डाल, विग्यापन छपा, टीवी में जनसेवा के ढोल बजा.


अपन ने बजरंग बली को गुरु इसलिए बनाया कि भक्तों से उनकी कोई डिमांड नहीं. सिंदूर चमेली का चोला व चने की दाल चढाने वालों दोनों पर बराबर कृपा बरसाते हैं. वे सद्बुद्धि के अध्येता हैं. वे डरपोक सुग्रीव को राज दिलवा दिया. विभीषण को मति देकर राक्षस नगरी से निकाल लाए व लंकाधिपति बनवा दिया वे. वे गरीब गुरबों के गुरु, भगवान हैं. वे लिखने-पढ़ने वालों के प्रेरक हैं. वे वास्तव में सद्गुरु हैं. हनुमत चरित अपने आप में ग्यान का महासागर है सो साल का हर दिन ही मेरे लिए गुरू पूर्णिमा जैसा है. इसलिए हर दिन उन्हें ही स्मरण करता हूं कि बजरंगबली सदा सहाय करें.


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं)



(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)