भारतीय इतिहास में दो महापुरुष ऐसे भी हैं जो भारत रत्नों से कई, कई, कई गुना ज्यादा सम्मानित और लोकमानस में आराध्य हैं. प्रथम हैं नेताजी सुभाषचंद्र बोस और दूसरे मेजर ध्यानचंद. सुभाष बाबू आजादी के आंदोलन के सबसे तेजस्वी, ओजस्वी और प्रखर सेनानी हैं. महात्मा गांधी यदि देश के पिता हैं तो सुभाष बाबू देश के प्राण. सुभाष बाबू की प्रतिष्ठा भारतीयों के हृदय और मानस पटल पर वैसे ही है जैसे की मृतुन्जय कर्ण की. 


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महाभारतकार व्यास ने जब कर्ण के शौर्य और दानशीलता की उपेक्षा की तब लोक ने उसे महानायक बना दिया. व्यास को कृष्ण के लिए भागवत पुराण रचना पड़ा. आजादी के बाद लिखवाए गए इतिहास में सुभाष बाबू की जस-जस उपेक्षा की गई लोकमानस में तस-तस वे देवपुरुष की भांति प्राणप्रतिष्ठित होते गए. उन्हें भारत रत्न सम्मान नहीं दिया गया इसके ढेर सारे राजनीतिक व तकनीकी कारण अपनी जगह हो सकते हैं लेकिन यथार्थ में उनका कद महात्मा गांधी से किसी मायने में भी कमतर नहीं है. वे राष्ट्र प्राण हैं.


इसलिए मैं मानता हूं कि भारत रत्न का सरकारी सम्मान उनके विराट व्यक्तित्व के आगे बौना है. विश्व फलक में खेल के क्षेत्र में वही प्रतिष्ठा ध्यानचंद की है. जिस तरह मुक्केबाजी मोहम्मद अली और फुटबॉल पेले की पर्याय है वैसे ही हॉकी मेजर ध्यानचंद(दद्दा) की. 29 अगस्त को दद्दा के जन्मदिन को राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है. इस दिन खेल से जुड़े सभी सम्मान व पुरस्कार बांटे जाते हैं. जिस किसी ने उनकी स्मृति को अक्षुण्ण रखने के लिए यह निर्णय लिया है वह स्तुत्य है.


दद्दा विश्व हॉकी के इतिहास में किवंदती पुरुष हैं और अपने विराट व्यक्तित्व के हिसाब से तमाम सम्मानों व पुरस्कारों से ऊपर. फिर भी पांच साल पहले जब सचिन तेंदुलकर के समानांतर उनका भी नाम भारत रत्न के लिया चलाया गया और फिर विलोपित करते हुए सचिन को भारत रत्न बना दिया गया, तो मुझ जैसे अनगिनत लोगों के हृय में गहरी हूक सी उठी.


अव्वल तो ये कि दद्दा किसी भी खिलाड़ी से अतुलनीय हैं इसलिए उनका नाम चलाना ही नहीं चाहिए था और जब चल ही गया तो उनकी प्रतिष्ठा की लाज रखनी चाहिए थी और सचिन से पहले उन्हें ही भारत रत्न देना चाहिए था. यह इसलिए भी तर्कसंगत था, क्योंकि 1956 में प्रधानमंत्री पं. नेहरू की सरकार ने दद्दा को पद्मभूषण से सम्मानित किया था. पर यह किसी को सम्मान और प्रतिष्ठा देने की नए जमाने की राजनीति और नजरिया था.


इस मीडियावी युग में अमिताभ बच्चन सदी के महानायक हैं और सचिन तेंदुलकर क्रिकेट के भगवान. यह रचा हुआ सत्य है जो वास्तविकता को मायावी चकाचौंध से ढंक लेता है. यूपीए-2 की यही बड़ी उपलब्धि थी कि 'भगवान' सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न बनाकर राज्यसभा ले गए और दूसरी उपलब्धि चिरयौवना रूपसी अभिनेत्री रेखा को भी उच्च सदन में आसन दे दिया. मैं अपने अपने क्षेत्र में इनकी उपलब्धियों को कमतर नहीं मानता पर इतना आग्रह जरूर रहता है कि जिस जगह पर जिस आदमी को होना चाहिए वही हो. 


क्रिकेट उपनिवेशिक खेल भले हो पर देश यदि उसी का दीवाना है तो क्या करिएगा. अब क्रिकेट बाजार है और सौदेबाजी की चकाचौंध में यदि फुटबॉल और हॉकी को रद्दी का भाव भी न मिले तो इसे नियति ही कहिए क्योंकि नियंताओं ने ऐसा ही चाहा.


दद्दा के नेतृत्व में गुलाम भारत ने 1928 एम्सटर्डम,1932 में लॉस एंजिलिस,1936 में बर्लिन में भारत ने हॉकी की स्वर्ण पताका फहराई. बर्लिन ओलंपिक में जर्मन तानाशाह हिटलर के समय यह हुआ. यह बात खेल इतिहास में दर्ज है कि दद्दा के खेल से मुग्ध हिटलर ने उन्हें अपने देश की ओर से खेलने की एवज में सेना का सर्वोच्च पद के बराबर का दर्जा देने का प्रस्ताव दिया था. सहज सरल दद्दा ने विनम्रतापूर्वक प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए कहा... महाशय मैंने भारत का नमक खाया है भारत के लिए खेलूंगा... 


दद्दा तब सेना में लांसनायक थे और खेलने के लिए जूते और स्टिक भी मुश्किल से जुटते थे. दद्दा इसलिए महान और अतुलनीय थे. 


मैं सौभाग्यशाली हूं कि दद्दा के जीवंत संस्मरण सुनने को मिले. मेरे कजिन कैप्टन बजरंगी प्रसाद एनआईएस पटियाला के दिनों के किस्से सुनाते थे. दद्दा यानी ध्यानचंद तब वहां प्रमुख कोच थे और बजरंगी प्रसाद तैराकी के कोच थे. बताते चलें कि बजरंगी प्रसाद को भारतीय तैराकी का पितामह कहा जाता है. कई नेशनल व एशियन रिकॉर्ड उनके नाम थे. तैराकी का पहला अर्जुन अवॉर्ड उन्हें मिला. टोक्यो ओलंपिक में वे भारतीय टीम के कोच थे. बजरंगी प्रसाद पृथ्वीपाल सिंह (हॉकी), पीके बनर्जी (फुटबॉल) के समकलीन राष्ट्रीय खिलाड़ी थे. 


बजरंगी प्रसाद जी ने एक किस्सा सुनाया... दद्दा कोई पैसठ साल के रहे होंगे एक दिन स्टिक थामी और शंकर लक्ष्मण (इंडियन टीम के कप्तान और अपने समय के विश्व के सर्वश्रेष्ठ गोलकीपर) को कहा- गोल रोकना.. लक्ष्मण बोले... दद्दा एक भी गोल नहीं करने दूंगा... इसके बाद शुरू हुई आजमाइश. दद्दा ने एक के बाद एक पांच गोल ठोक दिए. बजरंगी प्रसाद बताते थे कि दद्दा कहा करते थे... जब मैं गोलपोस्ट के सामने होता हूं तो मुझे सिर्फ़ गेंद के व्यास की वह छोटी सी जगह दिखती है जहां से गोलपोस्ट में गेंद घुसानी है.


वह दौर हॉकी का स्वर्णयुग था. हॉकी ही क्यों पीके बनर्जी व चुन्नी गोस्वामी वाली फुटबॉल टीम एशिया विजेता होती थी व विश्वकप, ओलंपिक के क्वार्टरफायनल तक दस्तक देती थी. अब ये स्वप्न सी बातें हैं.


ये लोग खेल के भगवान् नहीं खेल के आराधक थे. ये जमाना महानायकों और भगवानों का है. मीडिया यही सत्य रच रहा है और हमारे नीतिनियंता यहीं रमे हैं. क्रिकेट के लिये जप तप होम होते हैं ही. पर नई पीढ़ी को यह भी मालूम होना चाहिए कि ध्यानचंद क्या थे. वे भगवान नहीं मामूली आदमी थे और मैदान में खेल के बड़े बड़े 'भगवानों' का पानी उतार दिया करते थे.


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)