सुगंध की तरह फैल रही है धूप. उजले से हो रहे हैं कई धुंधलाए से चित्र. दूर कहीं बज रहा है वही पुराना सा गीत और भर रहा है रंग उन्हीं चित्रों में. धूप, ध्वनि और रंगों में चल रहा है देर से लुका-छिपी का खेल. बस, याद और याद में बसी भीनी सुगंध. स्मृतियों के ऐसे ही रंग-बिरंगे, मासूमियत से महकते अहसासों के बीच बेसाख्ता याद आ रहे हैं अमृतलाल वेगड़.


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एक ऐसी शख्सियत जिसके रग-रेशे में आखिरी सांस तक बहता रहा नदी का पानी और उससे बेइंतहा प्यार की लहरें उनके मन की ज़मीन को भीतर तक भिगोती रही. पुण्य सलिला नर्मदा का यह मानस पुत्र छः जुलाई की सुबह नौ दशक की आयु पूरी कर महायात्रा पर निकल पड़ा. वेगड़ जी नही रहे! यह खबर पांव पसारती पलक झपकते जैसे सारी दुनिया में फैल गई. पानी, पर्यावरण और जीवन की चिंता में बिताए वेगड़ जी के व्यक्तित्व की आभा में उजले बेशुमार लम्हे उन्हें चाहने वालों के ज़ेहन में कौंध उठे. राजनीति, समाज, संस्कृति, कला, साहित्य, और पर्यावरण से जुड़ी बिरादरी से लेकर नर्मदा किनारे के लाखों वाशिंदों तक इस भले, भोले और सच्चे लोकमन के धनी को खो देने का शोक गहरा उठा.


अद्वितीय पुरुषार्थ और प्रतिभा से मंडित लेखक, चित्रकार तथा पुण्य सलिला नर्मदा के पदयात्री अमृतलाल वेगड़ एक ऐसी लोकनिधि के रूप में समादृत रहे जिन्होंने पर्यावरण, प्रकृति और संस्कृति के जनसंचारक की महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया. मध्यप्रदेश की संस्कारधानी, नर्मदा तट पर बसी जबलपुर नगरी में जन्में वेगड़ जी सच्चे अर्थों में कलागुरु और प्रकृति के संवाददाता थे.


अपने संस्मरणों, रिपोर्ताज़ों और रेखांकन - कोलॉज के माध्यम से वेगड़ जी ने अभिव्यक्ति की ऐसी प्रजा, सहज और भावपूर्ण भाषा-शैली को विकसित किया जिसमें भारत की आत्मा को पढ़ा जा सकता है. "सौंदर्य की नदी नर्मदा" सहित उनकी अनेक पुस्तकों का गुजरती,मराठी और अंग्रेजी में अनुवाद हुआ. नर्मदा सीरीज के चित्र देश-विदेश की कई कला वीथिकाओं और संग्रहालयों में प्रदर्शित किए गए. वेगड़ जी अपनी इस लगन और तपस्वी साधना के लिए राष्ट्रीय और प्रादेशिक सम्मानों से विभूषित किए गए लेकिन ज़रा आश्चर्य ही होता है कि भारत सरकार उन्हें पद्मश्री श्रेणी से वंचित रखा.


बहरहाल, वे एक ऐसे जागरूक पर्यावरण प्रहरी की तरह उभरे जिन्होंने वैश्विक स्तर पर प्रकृति के बिगड़ते संतुलन और नदियों के संरक्षण को लेकर गहन चिंतन किया और समाधान की सकारात्मक दिशाओं का बोध कराया. कुछ दिन पहले माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट की मानद उपाधि से अलंकृत किया.


वेगड़ जी से मेरी मुलाकातों का सिलसिला करीब पचीस बरस पुराना है. कला-संस्कृति के मर्म को समझने की आंख खुल रही रही थी तब और अचानक एक दिन आदिवासी लोककला परिषद के भोपाल स्थित दफ्तर में उनसे पहली भेंट हुई. संयोग से हम दोनों में प्रीति गहरा गई क्योंकि दोनों ही नर्मदा तीरे के हैं. वे जबलपुर के और मैं खंडवा का. परिचय का क्षितिज कुछ ऐसा फ़ैला कि उनके हर लिखे-कहे और बोले से बावस्ता रहा. सांस्कृतिक पत्रिका "कला समय" के संपादन का जिम्मा मुझ पर आया तो वेगड़ जी ने आवरण के लिए उनकी कला कृतियां साझा की, संस्मरण लिखे. मेरा सौभाग्य कि उनका अनुराग पत्रिका और मुझ पर समान बरसता रहा. एक उद्घोषक के नाते उनके अनेक समारोहों के सूत्र संचालन संभाले और उन्हें मंच पर पुकारा.


आखिरी मुलाकात कुछ दिन पहले भारत भवन द्वारा परिकल्पित "सदानीरा" समारोह में हुई. नदी की संस्कृति और संस्कृति की नदी पर एकाग्र इस अनूठे उत्सव का शुभारंभ करने वे नासाज़ सेहत के बावजूद जबलपुर से चले आए थे. किस्मत से इस समारोह में भी उन्हें मंच पर सादर प्रस्तुत करने का अवसर मेरे ही हिस्से आया. याद है कि बौद्धिक आतंक से मुक्त उनके सहज, रम्य और ललित उद्बोधन पर सभागार मुग्ध हो उठा था. वे भारत भवन के न्यासी भी रहे और पर्यावरण को लेकर मध्यप्रदेश की तमाम रचनात्मक पहलों के सूत्रधार भी. अपने पुरुषार्थ और सच्ची लोक निष्ठा के लिए वेगड़ जी हमेशा याद किए जाएंगे.


(लेखक वरिष्ठ कला संपादक और मीडियाकर्मी हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)