Blog : एक राजनेता का कमाल का कदम
राजनेता का दायित्व, चाहे वह कोई भी राजनीतिक प्रणाली क्यों न हो, राजकाज के अतिरिक्त यह भी होता है कि वह अपने लोगों के सामने अपने आचरण के द्वारा जीवन के कुछ मूल्यों की स्थापना करे.
जरूरी नहीं कि यदि काई घटना छोटी है, तो उसके परिणाम भी छोटे ही होंगे. हां, यह जरूर है कि यदि उस घटना को लोगों के सामने ले आया जाए, तो उसके परिणाम बड़े, व्यापक और प्रभावशाली हो सकते हैं. अन्यथा वह घटना जंगल में खिले एक फूल की तरह अपना सौन्दर्य और सुगंध बिखेरकर विस्मृति के गर्त में दफ्न हो जाती है.
ऐसी ही एक घटना है, उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का दिल्ली से लगे अपने प्रदेश की प्रमुख औद्योगिक नगरी नोएडा का दौरा करना. घटना दौरा करना नहीं है, बल्कि यह है कि यह दौरा उन्होंने उस मान्यता के बाद भी किया है कि जो भी मुख्यमंत्री नोएडा का दौरा करता है, उसे अपनी कुर्सी से हाथ धोना पड़ता है. पिछले तीस सालों की नोएडा की यात्राएं इस मान्यता की तस्दीक भी करती हैं. सन् 1988 में वीर बहादुर सिंह के साथ यह हुआ, तो अगले ही साल नारायण दत्त तिवारी इसकी चपेट में आ गए. बाद में 1995 में मुलायम सिंह यादव, सन् 1997 में कल्याण सिंह तथा अंतिम बार सन् 2012 में मायावती भी इस तथाकथित हादसे की शिकार हुईं.
ऐसे इतिहास के बाद यदि वर्तमान मुख्यमंत्री नोएडा जाने का निर्णय लेते हैं, तो उनके इस निर्णय पर गौर किए जाने की जरूरत है. और तब तो और भी अधिक, जबकि वे स्वयं में एक ‘धार्मिक पुरुष’ भी हैं. और धर्म न केवल मान्यताओं को मान्यता ही देता है, बल्कि नई-नई मान्यताओं का जन्मदाता भी होता है.
राजनेता का दायित्व, चाहे वह कोई भी राजनीतिक प्रणाली क्यों न हो, राजकाज के अतिरिक्त यह भी होता है कि वह अपने लोगों के सामने अपने आचरण के द्वारा जीवन के कुछ मूल्यों की स्थापना करे. योगी आदित्यनाथ ने नोएडा जाकर अंधविश्वास के विरुद्ध एक जबर्दस्त कदम उठाकर एक आदर्श प्रस्तुत किया है. ऐसा कदम उनके पूर्ववर्ती युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी उठाने की हिम्मत नहीं दिखा पाए थे.
जाहिर है कि ऐसे कदमों को उठाने के लिए संत कबीर जैसा ज़िगर होना चाहिए, ‘जो घर जारे आपनो, चले हमारे साथ.’ बैठे-ठाले बिना किसी बड़े कारण के भला कौन अपनी कुर्सी गंवाना चाहेगा, और वह भी राज-प्रमुख की कुर्सी. और फिर राज्य भी उत्तरप्रदेश, जहां की आबादी देश की कुल आबादी का एक बटा छह हो. लेकिन ऐसा करके उन्होंने लोगों के मन में अपनी यह छवि तो बैठा ही दी है कि ‘मुझे कुर्सी का मोह नहीं है.’ साथ ही उन्होंने स्वयं को सही अर्थों में गुरु गोरखनाथ की परम्परा का एक महंत भी सिद्ध कर दिया है. गुरु गोरखनाथ का आंदोलन गलत धार्मिक मान्यताओं और पाखंडो के विरोध में था.
हमारे यहां मौलिक अधिकारों का शोर लगातार इतना अधिक होता रहता है कि संविधान में निहित मूल कर्तव्यों की सिसकियां किसी को सुनाई ही नहीं पड़तीं. संविधान के अनुच्छेद 51क के 'ज' में कहा गया है कि ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना विकसित करें.’
व्यावहारिक स्तर पर नागरिक और राजनेता अपने इस कर्तव्य को कितना निभा रहे हैं., यह हम ‘पद्मावती’ फिल्म के मामले में देख चुके हैं और गुजरात चुनाव के दौरान ‘हिन्दू’, ‘जनेऊ’ एवं मंदिरों के दर्शन के संदर्भ में भी. ऐसे में योगी आदित्यनाथ देश को इस कर्तव्य की याद दिलाते हुए मालूम पड़ते हैं.
इस दौरे के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी उनके हाथ से जाती है, या रहती है, वह तो भविष्य ही बताएगा. लेकिन ऐसा करके उन्होंने जो सामाजिक और यहां तक कि जो राजनीतिक संदेश दिया है, वह प्रशंसनीय है. साथ ही अन्य राजनेताओं के लिए अनुकरणीय भी.
जिनका अपनी नीतियों और कार्यों पर भरोसा होता है, वे अपने पद के अस्तित्व को मिथकों की नींव पर खड़ा नहीं करते. बल्कि मिथकों के विरुद्ध खड़े होकर अपने आत्मविश्वास की खुलेआम घोषणा करते हैं. समाज का निर्माण ऐसी ही अप्रत्यक्ष घोषणाओं से होता है, और उसका विकास भी.
(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)