कार्ल मार्क्स के घनिष्ठ मित्र फ्रेडरिक एंगेल्स ने कहा था, ‘‘इतिहास से व्यक्ति ने बस यही सीखा है कि उसने इतिहास से कुछ नहीं सीखा है.’’
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आइए, पहले एक अत्यंत महत्वपूर्ण किन्तु काफी कुछ अज्ञात सी घटना को जान लेते हैं. ईसा मसीह के साथ जो अन्य कुछ राजद्रोही कैदी थे, उनमें एक बराब्बस नाम का हत्यारा भी था. उस समय वहां एक परम्परा थी कि वर्ष के एक दिन जनता की मांग पर किसी एक कैदी को रिहा कर दिया जाता था. जब राज्यपाल ने जनता से पूछा, ‘‘तुम लोग क्या चाहते हो? इन दोनों में से किसे तुम्हारे लिए छोड़ दें.’’ तो चारों ओर की भारी भीड़ एक साथ चिल्ला उठी थी, ‘‘बराब्बस को हमारे लिए छोड़ दीजिए.’’ फलस्वरूप ईसा मसीह को सूली पर लटकना पड़ा.
यह उस समय की जनभावना थी, जिसे राजनीति की भाषा में जनमत कहा जाता है- लोक की इच्छा. या यूं कह लें कि 'भीड़ की इच्छा'
अब दो छोटे-छोटे काल्पनिक दृश्य-चित्र. धार्मिक गुरु राम रहीम की कोर्ट में अंतिम सुनवाई के बाद फैसला दिया जाना था. इस तथाकथित महान गुरु के लाखों आस्थावान अनुयायियों ने हरियाणा-पंजाब में फैलकर अपना दबदबा कायम कर दिया था. यह किसी तूफान के आगमन की पूर्व किन्तु पक्की सूचना थी. प्रशासन (जिसमें राजनीतिक नेतृत्व भी शामिल होता है) के ढीलम-ढाले रवैये को देखते हुए न्यायालय ने प्रशासनिक आदेश देने शुरू किए. राम रहीम जेल भेज दिए गए. कानून एवं व्यवस्था की स्थिति को बनाए रखने की प्रक्रिया में कुछ लोग मारे भी गए. लेकिन ईसा मसीह (सत्य) सूली पर चढ़ने से बच गए. जनआस्था के ऊपर न्याय की विजय हुई. दशहरा मन गया.
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यहां इस दृश्य का काल्पनिक रूप यह है कि यदि न्यायालय ने कुछ प्रशासनिक आदेश जारी नहीं किए होते, तो क्या होता? न्यायालय तो अपना वही निर्णय सुनाता, जो उसने सुनाया. तब डेरा के अनुयायियों की आस्था का क्या होता? तब क्या आस्था की रक्षा के नाम पर व्यवस्था को उन अनुयायियों के रहम-ओ-करम पर छोड़ दिया जाता?
अब एक दूसरा काल्पनिक दृश्य. ‘पद्मावती’ फिल्म के नाम पर उत्तर भारत में जो भावनात्मक भूकंप आया हुआ है, इसके तरह-तरह के झटके हर नागरिक महसूस कर रहा है. पहले यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के पास गया था, जिसे उचित ही उसने स्वीकार नहीं किया. यहां प्रश्न यह है कि यदि उस याचिका को न्यायालय ने स्वीकार कर लिया होता, तो क्या होता? फिल्म रिलीज नहीं होती. लोग भी वही होते. और लोगों की आस्थाएं भी वही होतीं. लेकिन क्या सामाजिक और सांस्कृतिक माहौल उतना ही विषाक्त होता, जितना अभी यह हो गया है? एक संभावित उत्तर हो सकता है- नहीं. यदि उत्तर यही है, तब तो फिर प्रश्नों की एक लंबी श्रृंखला बनती हुई नज़र आती है. कई-कई प्रश्न, और एक-दूसरे से जुड़े हुए तथा अपने पूववर्तियों से उत्पन्न ऐसे प्रश्न, जिनके तार्किक उत्तर देना बहुत मुश्किल मालूम होता है.
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अब आप एक ही समय में समानान्तर रूप से जारी इन चार घटनाओं को आपस में जोड़कर कुछ निष्कर्ष निकालने की कोशिश करें...
1. ‘पद्मावती’ फिल्म के प्रदर्शन को लेकर व्यक्त आक्रोश.
2. गोवा में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय फिल्म समारोह, जिसमें विश्व के अनेक फिल्मकारों ने भाग लिया.
3. ग्वालियर में नाथूराम गोड़से के मंदिर की स्थापना.
4. विश्व मंचों पर भारत की ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ वाली उदार चेतना की दावेदारी.
क्या आपको ये चारों घटनाएं किसी एक निश्चित दिशा में अग्रसर होती हुई दिखाई दे रही हैं? यदि एक ही समय पर गतिशील हो रहीं इन चार बौद्धिक एवं भावनात्मक क्रियाओं में दिशाभेद ही नहीं, बल्कि स्पष्ट परस्पर विरोध दिखाई दे रहा हो, तो यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि अंततः हम पहुंचेंगे कहां.
अंत में यही कि जैसा कि कार्ल मार्क्स के घनिष्ठ मित्र फ्रेडरिक एंगेल्स ने कहा था, ‘‘इतिहास से व्यक्ति ने बस यही सीखा है कि उसने इतिहास से कुछ नहीं सीखा है.’’ जनता की इच्छाओं पर ईसा मसीह यूं ही सूली पर चढ़ाए जाते रहेंगे, और बराब्बस रिहा होते रहेंगे.
(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)