खबरों की अलटा-पलटी में पता चला कि आज निर्मल वर्मा का जन्मदिन है. ऐसे में मुझे लगा कि मुझे भी उन पर लिखने की रस्म निभानी चाहिए. लेकिन रस्म निभाएं कैसे, हम तो निर्मल वर्मा को ढंग से कभी पढ़ ही नहीं पाए.


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किशोरवय के जिन दिनों में किताबें पढ़ना शुरू की थीं, तो निर्मल वर्मा तक भी पहुंचे थे. बहुत नाम सुना था- एक चिथड़ा सुख. दावे से कह नहीं सकता कि उनकी कौन सी कहानी पढ़ी थी, लेकिन पढ़ने के बाद पिताजी से कहा था कि मैं खुद को निर्मल वर्मा को पढ़ने के लिए ओछा पा रहा हूं.


हालांकि ऐसा कहना मेरे स्वभाव से बहुत अलग है, क्योंकि जब मैंने उनका लिखा हाथ में लिया था तब दोस्तोवस्की, गोगोल और तॉलस्तॉय को पढ़ चुका था. तॉल्सतॉय को पढने के बाद किसी को डिटेल्सट और विस्तार से डर नहीं लगता था. मनोभाव के दृश्य बन जाने को दोस्तोवस्की के यहां खूब देखा. परिस्थितियों के फेंटेसी हो जाने को गोगोल से अच्छा कौन बुनेगा. लेकिन फिर भी निर्मल वर्मा के यहां कुछ ऐसा था, जो कुछ और मांगता था, जो कुछ और बांचता था.


एक कमरे में बैठे हुए पात्र. उनके बीच लंबी खामोशी और विरामों के बीच रिसता संवाद. उनकी स्मृतियां और छुअन. कुछ-कुछ पकड़ में आता था, लेकिन पकड़ते-पकड़ते छूट जाता था. इतना सबकुछ किसी साहित्यकार को खारिज करने के लिए अच्छा बहाना हो सकता था और ऐसा कइयों के साथ मैंने किया भी, लेकिन निर्मल वर्मा के बारे में ऐसा सोच भी नहीं पाया. हमेशा लगा कि वे मुझे जहां आने का न्योता दे रहे हैं, वहां मेरा मन पहुंच ही नहीं पा रहा है. पहुंचना तो दूर ठहर नहीं पा रहा है. मेरे गर्म खून और चुलबुलेपन में वह ठहराव नहीं मिल पा रहा, जो निर्मल की खामोशी को महसूस करे. अक्सर उन्हें पढ़ते हुए अज्ञेय की पंक्ति याद आती, 'पहले मैं सन्नाटा बुनता हूं. फिर सोचता मैं सन्नाटा कैसे बुन पाऊंगा.'


आज जब उन्हें याद करने के बहाने अपना ओछापन बांचने बैठा, तो फिर एक बार पिताजी से बात की. उन्होंने कहा, तुम समझो कि वह इस जमाने का विशुद्ध साहित्यकार है. उसने खुद को इस या उस विचारधारा में नहीं बंधने दिया. उसके लिए वामपंथी होने में कोई गौरव नहीं था. अज्ञेय के अलावा वह दूसरा ऐसा साहित्यकार है जो सबसे अलग है. वह साहित्य की एक धारा के नक्कारखाने में तूती की तरह बजता रहा. उसकी आवाज न सिर्फ भारत में बल्कि विश्व स्तर पर सुनी गई. उसका कथा जगत सबको आकर्षित करता है.


उन्होंने फिर कहा, अगर तुम्हें निर्मल को पढ़ना है तो तुम्हें पहले उनके पात्रों के मनोजगत में प्रवेश करना होगा. वे हमारे मनोजगत को बहुत कोमल ट्रीटमेंट देते हैं. बहुत कोमल, इस शब्द को ध्यान रखना होगा.


इस सबके बाद मैंने एक बार फिर उनकी कहानी धागे पढ़ना शुरू की. इतने वर्ष बाद फिर निर्मल पकड़ में आते-आते हाथ से निकल गए. चांदनी रात, पहाड़, जंगल, बंग्ला, पात्रों से ज्यादा मुखर खामोशी. खुद को थामा तो दिखने लगा कि ये पात्र बिल्कुल वैसे ही बातें कर रहे हैं, जैसे हमारा मध्यमवर्गीय मन करता है. जितना कहता है, उससे कहीं ज्यादा बचा लेता है. जो बचा लेता है, उसे लेकर गुनता रहता है. कल्पनाएं करता है. मन ही मन संवाद करता है और धारणाएं बनाता है. फिर उम्मीद करता है कि जितना जो मन में सोचा है, सामने वाला उस सबको समझ ले और वह सब कह दे या दे दे, जो हम अनकहे उससे चाहते हैं. सामने वाला भी इसी तरह सोचता है. लंबी खामोशी को भरने के लिए थोड़े से शब्द और बहुत सारा सन्नाटा या यों कहें स्पेस निर्मल वर्मा हाजिर कर देते हैं.


कहानी की स्टोरी लाइन या प्लॉट किसी को बता पाना कठिन हो जाता है. लेकिन पात्रों या यों कहें पूरी कहानी की बुदबुदाहट आपको ग्रस लेती है. आप पहले उन पात्रों के भीतर और फिर अपने भीतर उतरने लगते हैं. हल्का नशा सा होता है. हम अपने सामने नंगे खड़े हो जाते हैं. हम खुद से रूबरू होते हैं. निर्मल की कहानी खत्म हो जाती है. लेकिन कहानी इससे आगे जाती जरूर होगी. मैं वहां तक जाने के लिए अब भी बौना हूं. लेकिन एक दिन मैं निर्मल वर्मा को पढ़ने लायक हो जाऊंगा.


(डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)