अस्सी के दशक में पैदा होने वाले बच्चों को अपने जीवन का एक अनुभव ज़रूर याद होगा. नवीं कक्षा में विज्ञान की पुस्तक में एक अध्याय था. मानव प्रजनन अंग औऱ उनके कार्य. सभी छात्र खासकर लड़के इस अध्याय को पढ़ाए जाने का बेसब्री से इंतजार किया करते थे. जैसे-जैसे सिलेबस इस अध्याय के करीब पहुंचता जाता था सभी की उत्सुकता बढ़ती जाती थी. फुसफुसाहट में पेज नंबर 92 से 94 के आने की बात निकल पड़ती थी. फिर वो दिन आता जब इस पेज को पढ़ाया जाना होता था. मैडम कक्षा में प्रवेश करती औऱ सभी लड़के दिल थाम कर बैठ जाते कि आज वो जीव-विज्ञान को समझकर ही दम लेंगे. फिर मैडम धीरे से किताब निकालती औऱ सीधे 95 नंबर पेज से पढ़ाना शुरू कर देती. ये क्या? सभी लड़के हैरान. मैडम ने ऐसा क्यों किया. किसी की कुछ पूछने की हिम्मत भी नहीं होती थी. कक्षा के खत्म होते-होते तक सभी का उत्साह ज़मीन चाट रहा होता था. मैडम जाते-जाते बोल जाती कि जो पेज छूट गए है वो सभी घऱ पर जाकर खुद पढ़ लें. वैसे तो इस अध्याय से परीक्षा में कोई सवाल नहीं पूछा जाएगा फिर भी अगर किसी को कोई परेशानी हो तो. लड़कों में फिर से एक उम्मीद जगती है. मैडम आगे बोलती है, तो वो मिश्रा सर से पूछ लेना. 


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इस तरह से सभी ने नवीं कक्षा पास करी, न कभी कोई मिश्रा सर के पास पूछने गया, न कभी मैडम ने उस अध्याय को पढ़ाया. ये तब की बात है जब हमारे देश में यौन शिक्षा को लेकर बातें होने लगी थी. हमारी शिक्षा व्यवस्था यौन शिक्षा को शुरू किए जाने को लेकर उत्सुक थी. सभी की कोशिश थी की देश में सेक्स एजुकेशन लागू की जाना चाहिए. खैर सेक्स एजुकेशन पर खूब बातें हुईं और सिर्फ बातें हुई. कभी कोई बच्चा 92 से 94 नंबर पेज को नहीं पढ़ पाया औऱ न किसी टीचर ने पढ़ाने की कोशिश करी. 


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दरअसल, शिक्षा देने के लिए सहज होना बेहद ज़रूरी होता है. अगर शिक्षक खुद ही किसी विषय को लेकर सहज नहीं है तो वो पढ़ा तो शायद फिर भी दें, लेकिन सिखा नहीं सकता है. सेक्स हमारे समाज में एक वर्जित विषय रहा है. वो और बात है कि हम जनसंख्या के मामले में शिखर पर हैं, लेकिन हम प्रजनन के बारे में बात करने में खुद को सहज महसूस नहीं करते हैं. 


बारहवीं कक्षा में जब जीव विज्ञान का विषय लिया तो उसे समझने के लिए एक दीदी के यहां ट्यूशन पढ़ना शुरू किया. कक्षा में लड़कियों की तादात ज्यादा थी. एक दिन हमें लड़कियों में होने वाले पीरियड के बारे में पढ़ाया जा रहा था. कुछ समझ नहीं आने पर जब मैंने सवाल पूछा तो दीदी के जवाब देने से पहले ही सभी लड़कियों ने मुझे पलटकर देखा और मुंह छिपाकर हंसने लगीं. मुझे उनका हंसना अच्छा नहीं लगा तो मैं लड़ने पर उतारू हो गया और मैं जानने की कोशिश कर रहा था कि आखिर इसमें हंसने की बात क्या है. जवाब उस दौरान नहीं मिला. बाद में जब खुद एक कॉलेज में पढ़ाना शुरू किया तब मालूम चला कि पढ़ाने के लिए खुद को सहज होना कितना ज़रूरी है. तभी शायद छात्र भी आपसे उतना ही सहज होकर सवाल पूछ सकते हैं. 


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दिल्ली के 1000 स्कूलों में हेप्पीनेस क्लास की शुरूआत की गई है. ये एक बहुत ही कमाल का विचार है. बच्चों को खुश रखने के लिए 'हैप्पीनेस करिकुलम' नाम की इस योजना की शुरुआत बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा ने की थी. 'हैप्पीनेस करिकुलम' के तहत नर्सरी से लेकर 8वीं क्लास तक के बच्चों को भावनात्मक रूप से मजबूत होना सिखाया जा रहा है. स्कूलों में हर रोज 45 मिनट का एक 'हैप्पीनेस' पीरियड लगाया जाता है. इस पीरियड की शुरुआत 5 मिनट के मेडीटेशन के साथ होती है. 'हैप्पीनेस करिकुलम' कोर्स में बच्चों को कहानियों के जरिए अच्छी बातें सिखाई जाती हैं. 


जब हम खबरों में पढ़ते हैं कि देश में 2014 से 2016 के बीच लगभग 26,000 बच्चों ने अपनी जा ले ली. इन बच्चों में 30 फीसदी बच्चों की आत्महत्‍या की वजह परीक्षा में नाकाम होना था. ये हाल केवल भारत का ही नहीं है, पूरे विश्वभर में बच्चे जिस तरह का तनाव झेल रहे हैं वो वाकई में चिंता का बात है. 


प्रोग्राम फॉर इंटरनेशनल स्टूडेंट असेसमेंट (पीसा) के 2012 के असेसमेंट, जिसमें इंडीकेटर्स ऑफ स्टूडेंट्स हैप्पीनेस को भी शामिल किया गया था, कि ये रिपोर्ट बताती है कि छात्र खुश नहीं है. इसके पीछे अलग-अलग वजह हैं. बीते सालों में कई देशों ने शिक्षा नीति में खुशी को अहमियत देना शुरू किया है. सतत विकास लक्ष्य 4 जो गुणवत्ता शिक्षा को समर्पित किया गया है, उसमें भी हैप्पी स्कूल की बात रखी गई है यानि ऐसे स्कूल जहां पर माहौल सुरक्षित, अहिंसक और शांतिपूर्ण हो. हालांकि भारत सतत विकास लक्ष्य के एजेंडा को मानने के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन फिर भी यहां विकास प्रक्रिया में खुशी की कमी नज़र आती है. यहां तक कि वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट के मुताबिक 155 देशों में भारत का नंबर 122 वां है. 


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ऐसे में दिल्ली सरकार की ये पहल एक सुकून तो पहुंचाती है, लेकिन साथ में ये सवाल भी खड़ा करती है कि कहीं ये भी पीरिय़ड बनकर तो नहीं रह जाएगा. आखिर जो शिक्षक खुद ही खुश नहीं होगा वो कैसे खुशी को पढ़ाएगा (वैसे तो खुशी के साथ पढ़ाना शब्द ही बेमानी है). शिक्षा के लिए ये भी एक काम बन जाए इस बात की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है.


स्कूलों में नर्सरी पाठ्यक्रम को लेकर तमाम स्कूल दावा करते हैं कि वे बच्चों को क्लास रूम शिक्षा देने पर नहीं, बल्कि एक्टिविटी करवाने पर ज्यादा भरोसा रखते हैं. अब अगर गौर से देखा जाए तो ये एक्टिविटी भी एक प्रकार का पाठ्यक्रम बन गई है. मतलब बच्चे का मन दौड़ने का नहीं है, लेकिन एक्टिविटी दौड़ने की है तो उसे दौड़ना ही है. तो कुल मिलाकर हम बच्चे को किसी ना किसी तरह से तैयार करने में ही जुटे हुए हैं. उसी तरह एक्टिविटी भी शिक्षकों के लिए सहज नहीं लगती है, बल्कि कई बार एक बोझ की तरह लगती है. ऐसा लगता है जैसे वो मन मारकर एक्टिविटी करवा रहे हैं. 


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दरअसल, ज़रूरत शिक्षा में सहजता की है. जिस देश में गुरू पहले शिक्षक बने और फिर वो संविदा शिक्षक हो गए, वहां पर नौकरी ही की जा रही है. जबकि शिक्षा देना कोई नौकरी नहीं है. औऱ जो खुद सहज नहीं है उसके लिए चाहे हैप्‍पीनेस हो या फिर कोई और करिकुलम, वो महज पीरियड ही रहेगा. बच्चों से ज्यादा हैप्‍पीनेस की ज़रूरत शिक्षकों को है तभी वो हर पीरियड खुशी-खुशी पढ़ा पाएंगे. और जो शिक्षक खुद पढाने में मजे करता है उसका छात्र खुद ब खुद हैप्पी हो जाता है. इस तरह हैप्‍पीनेस का कोई पीरियड नहीं, बल्कि पूरी शिक्षा ही हैप्पी हो सकती है. नहीं तो लाख कोशिश कर लीजिए हैप्पी फिर भाग जाएगी.