कितनी अजीब बात है कि दुनिया को स्पेस से मिलाने वाले स्टीफन हॉकिंग कुछ दिनों पहले इस दुनिया से रुखसत हो गए. स्टीफन हॉकिंग का कहना था कि मनुष्यों को जल्दी ही स्पेस में अपने लिए कोई ठिकाना ढूंढ लेना चाहिए क्योंकि पृथ्वी का अस्तित्व ज्यादा समय के लिए नहीं रहने वाला है. वहीं कवि केदारनाथ सिंह की कविताओं में प्रकृति का बिंब देखने को मिलता है. जो ताउम्र यह मानते रहे कि टूटा हुआ ट्रक भी पूरी तरह से निराश नहीं है, बिल्कुल मशीनी चीज़ भी टूटने के बाद चल देने को तैयार है, जो क्षुद्र है, नष्टप्राय है. वो मानते रहे कि जीवन रहेगा, पृथ्वी रहेगी. वो हमेशा कहते रहे कि सिर्फ इस धूल का लगातार उड़ना है जो मेरे यकीन को अब भी बचाए हुए है, नमक में, और पानी में और पृथ्वी के भविष्य में. 


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

धरती को लेकर दो तरह की सोच रखने वाले दो ज़हीन व्यक्तित्व इस धरती को छोड़ कर कहीं दूर आसमान में तारा बन गए हैं. शायद ये वो तारा है जो जिस दिन ब्लेक होल में परिवर्तित होगा तो उसमें झांकने पर हमें प्रकृति के बिंब ही नज़र आएंगे. 


केदारनाथ सिंह की कविता यूं तो जब से पढ़ना शुरू किया तब से ही पढ़ रहे हैं लेकिन पहली बार उन्हें ठीक से तब समझा जब उनकी कविता ‘बाघ’ पर नाटक का मंचन किया. उनकी कविताओं को नाटक में पिरोने का यह एक अनूठा अनुभव था. मुझे उनकी बाघ कविता इस कदर पसंद है कि आज भी जब कभी खबरों में पढ़ता हूं कि फलाने शहर में तेंदुआ आया या किसी शहर में शेर देखा गया तो अचानक ज़हन में उनकी कविता की पंक्तियां आ जाती हैं –


आज सुबह के अखबार में/
एक छोटी सी खबर थी/ 
कि पिछली रात शहर में आया था बाघ/ 
किसी ने उसे देखा नहीं/ अंधेरे में सुनी नहीं किसी ने उसके चलने की आवाज़/ 
गिरी नहीं थी किसी भी सड़क पर खून की एक छोटी सी बूंद भी/ 
पर सबको विश्वास है/ 
कि सुबह के अखबार में छपी हुई खबर गलत नहीं हो सकती/
कि ज़रूर –ज़रूर पिछली रात शहर में आया था बाघ 


पढ़ें- खेत चुप हैं, किसान खामोश...


उनका प्रकृति से जुड़ाव और पर्यावरण के प्रति चिंता उनकी कविताओं में साफ झलकती थी. जिस तरह से हमने जंगल साफ कर दिए हैं और हम जानवरों के घरों को अपना घर बनाकर बैठ गए हैं ऐसे में जंगल का जानवर कहां जाएगा, वो भटकता हुआ शहर की ओर निकल आता है. लेकिन हमने जो उसका घर उजाड़ा है उस पर बाघ की रवैया कैसा है इसका चित्रण करने वाला व्यक्ति वही हो सकता है जिसे प्रकृति से प्यार हो, वो लिखते हैं- 


ये कितना अजीब है/ कि वह आया/ उसने पूरे शहर को/ एक गहरे तिरस्कार और घृणा से देखा/ और जो चीज़ जहां थी/ उसे वहीं छोड़कर/ चुप और विरक्त चला गया बाहर


पढ़ें- विश्व महिला दिवस: महिला जब आपको सशक्त करे...


उनकी कविता में बिंब ज्यादातर प्रकृति पर आधारित है. बाघ उनकी एक ऐसी कविता है जिसका मकसद मानवीय संवेदना के साथ विचारों का गहराई तक संचार करना है. बाघ कविता के जरिये उन्होंने आदमी की हवस, बाहरी दुनिया की भयावहता को बेहद ही संवेदनात्मक ढंग से उकेरा है. 


आज जिस तरह से पूरा विश्व पर्यावरणीय संकट से गुजर रहा है ऐसे में उनकी कविता और भी प्रासंगिक सी लगती है. पर्यावरण के बिगड़े हाल को लेकर उनकी कविताओं में हमेशा से चिंता नजर आती रही है. ऐसी ही उनकी एक कविता है 'नदी' जिसकी पंक्तियां किसी भी पर्यावरण प्रेमी के लिए प्रेरणा देने वाली है-


सच्चाई यह है/ कि तुम कहीं भी रहो/ तुम्हें वर्ष के सबसे कठिन दिनों में भी/ प्यार करती है एक नदी/
नदी जो इस समय नहीं है इस घर में/ पर होगी जरूर कहीं न कहीं/ किसी चटाई/ या फूलदान के नीचे/ चुपचाप बहती हुई


इसी कविता में जब वो नदी की व्यथा को सुनने के लिए कहते हैं तो आपके रौंगटे खड़े हो जाते हैं. गंगा यात्रा के दौरान जब भी किसी नदी के किनारे पर बैठता था और उसके किनारे उगती हुई, अमरबेल की तरह विकसित होते विकास को देखता था तो उनकी ये पंक्तियां अक्सर ज़हन में कौंध जाती थी-


कभी सुनना/ जब सारा शहर सो जाए/ तो किवाड़ों पर कान लगा/ धीरे-धीरे सुनना/ कहीं आसपास/ एक मादा घड़ियाल की कराह की तरह/ सुनाई देगी नदी!


पढ़ें- श्रीदेवी को श्रद्धांजलि: मौत से बढ़कर कोई चालबाज नहीं


इसी तरह उनकी कविता 'पानी की प्रार्थना' भी है. कविता में पानी एक दिन का हिसाब लेकर खड़ा हुआ है. और महज एक दिन के हिसाब से ही वो पूरी तंत्र की पोल खोल कर रख देता है और बता देता है कि हम हमारे प्राकृतिक संसाधनों को लेकर कितने संजीदा हैं. 


अन्त में प्रभु/ अन्तिम लेकिन सबसे जरूरी बात/ वहां होंगे मेरे भाई बन्धु/ मंगल ग्रह या चांद पर/ पर यहां पृथ्वी पर मैं/ यानि आपका मुंह लगा यह पानी/ अब दुर्लभ होने के कगार तक पहुंच चुका है/ पर चिन्ता की कोई बात नहीं/ यह बाजारों का समय है/ और वहां किसी रहस्यमय स्रोत से/ मैं हमेशा मौजूद हूं/ पर अपराध क्षमा हो प्रभु/ और यदि मैं झूठ बोलूं/ तो जलकर हो जाऊं राख/ कहते हैं इसमें आपकी भी सहमति है!


अपनी रचनाओं में ऐसी हिम्मत करना का माद्दा केदारनाथ सिंह में ही था. आज वो हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी रचनाएं उस सूरज के समान है जो हमारी जिंदगी को हमेशा रोशन करती रहेंगी. ऐसे कवि को समर्पित है मेरी ओर से ये पंक्तियां-


दूर क्षितिज पर/ दो बांहे, एक धुंधला चेहरा/ एक सधा शरीर/ अपनी उंगलियों से इशारा करता है/
मैं उसकी तरफ खिंचता चलता हूं/ हर कदम पर यूं लगता है/ बस कदम भर का तो है फासला,
उंगलियों को छूने, बांहो को बांहो में भरने के जज़्बात और हौसला/ मुझे फिर दौड़ा देता है
जब आंखों में क्षितिज पर/ धुंधला चेहरा आया था/ उस वक्त मेरे पीछे मेरा साया था/ मैं दौड़ता चला गया
और मेरे साये का कद बड़े से छोटा/ फिर बड़ा हो गया/ फर्क इतना था, अब वो मेरे आगे था/ धुंधला चेहरा और धुंधला रहा था/ क्षितिज पर मटमैला रंग छा रहा था/ सूरज मेरी पीठ पीछे चुपके से गल रहा था/ सांसो का स्पंदन अब धीरे-धीरे चल रहा था/ आंखे कह रही थी ये दिन भी ढल रहा था/ मन समझा रहा था/
ये एक छोटा सा अंतराल है/ वो देखो दूर क्षितिज पर/ वही बांहे, वही चेहरा, वही सधा शरीर है/ वो देखो दूर क्षितिज पर/ फिर दिन निकल रहा है


(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)