श्रीदेवी को श्रद्धांजलि: मौत से बढ़कर कोई चालबाज नहीं
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श्रीदेवी को श्रद्धांजलि: मौत से बढ़कर कोई चालबाज नहीं

हीरोइन के नाम पर फिल्म लाने का चलन नहीं था लेकिन 1989 में पूरी समिति ने जिस फिल्म का चलाने का मन बनाया था, वो हीरोइन के नाम पर आ रही थी. फिल्म का नाम था चांदनी.

श्रीदेवी को श्रद्धांजलि: मौत से बढ़कर कोई चालबाज नहीं

80 के दशक  की बात है, गणपति उत्सव, दुर्गा उत्सव की झांकियों में पर्दे पर फिल्म दिखाने का चलन धीरे- धीरे ढल रहा था. इसकी जगह वीसीआर ले रहा था. बड़ी-बड़ी रील की चरखियों की जगह छोटे से वीएचएस कैसेट ने ले ली थी. जगह-जगह पर वीडियो पार्लर खुल रहे थे. जहां पर किराये पर वीसीआर और कैसेट दिये जाते थे. झांकी बैठाने के लिए चंदा लेने वाले सभी गुटों के बीच एक प्रतियोगिता की भावना रहती थी कि आखिर कौन ज्यादा फिल्में और अच्छी फिल्में दिखाता है. मोहल्ले में सुबह से ही घोषणा होने लगती थी कि आज रात फलानी फिल्म दिखाई जाएगी. दिन भर बच्चों से लेकर बूढ़े तक मोहल्ले भर की फिल्मों की सूची लेकर घूमते थे और यह तय किया जाता था कि आज कौन से मोहल्ले में बोरी बिछा कर बैठना है (कुछ रईस कुर्सी भी ले आते थे, जिन्हें अपनी कुर्सी की वजह से पीछे बैठना पड़ता था). इस तरह जिस मोहल्ले में ज्यादा भीड़ होती थी, उस मोहल्ले के शो को सफल माना जाता था. क्योंकि जनता जाते-जाते मोहल्ले की झांकी पर कुछ चढ़ावा चढ़ाती हुई जाती थी. जो झांकी के बजट में इज़ाफा कर देता था. इस फिल्म दिखाने में एक और बाधा थी, किसी को कोई पसंद था, किसी को कोई और. झांकी समिति में अक्सर इस बात पर बहस हो जाती थी कि अमिताभ की फिल्म आएगी या राजेश खन्ना की. मिथुन के समर्थक भी अच्छे खासे होते थे.

हीरोइन के नाम पर फिल्म लाने का चलन नहीं था लेकिन 1989 में पूरी समिति ने जिस फिल्म का चलाने का मन बनाया था, वो हीरोइन के नाम पर आ रही थी. फिल्म का नाम था चांदनी.

तमाम प्रकार की तैयारियां की गई. एक वीसीआर, दो बड़े वाले टेलीविजन सेट मंगवाए गए. दोनों की पीठों को जोड़कर एक बड़े से टेंट हाउस से मंगवाए गए टेबल पर रखा गया, जिससे गली की सड़क के दोनों तरफ बैठे लोग फिल्म का आनंद उठा सके. टीवी सेट को झांकी में लगे चोंगो (लाउडस्पीकर) से जोड़ दिया गया था, जिससे आवाज सब तक पहुंच सके. पहले आवें-पहले पावें की तर्ज पर लोगों को जगह घेरनी थी, इसलिए सिनेमा प्रेमी ने नियत समय से पहले ही आना शुरू कर दिया था. गली में अच्छी खासी भीड़ जमा हो चुकी थी, जिसने झांकी समिति के युवाओँ में खासा जोश भर दिया था. समिति के अहम सदस्यों के लिए आगे का बिछा हुआ बोरा रिज़र्व था क्योंकि उन्हें व्यवस्था भी देखनी थी. आरती में इकट्ठी हुई चिल्लरों को कुछ युवाओं ने नोट देकर बदलवा लिया था. फिल्म की शुरूआत हुई औऱ जैसे ही ‘चांदनी ओ मेरी चांदनी’ गाना आया भीड़ ने मानो अपना होश ही खो दिया. युवा चिल्लर लुटा रहे थे. सीटियां बज रही थी. यह वाकया याद इसलिए रह गया क्योंकि उस दिन लुटाई गई चिल्लरों में से काफी सारी मेरे हाथ लगी थी. 

तीस साल के बाद आज जब तड़के यह मालूम चला की चुलबुली आंखों वाली श्रीदेवी जिनके नाम से फिल्में चला करती थी, जिन्होंने कभी उस दौर के सुपर स्टार अमिताभ बच्चन के बराबर फीस की डिमांड कर दी थी, वो श्रीदेवी जिन्हें ‘इंग्लिश विंग्लिश’ और ‘मॉम’ में देखकर कई लोगों को फिर से प्यार हो गया था. वो श्रीदेवी इस फानी दुनिया को रुखसत कर गई है. अचानक चांदनी वाला वो मंजर आंखों के सामने जीवित हो गया.

अस्सी के दशक में जब श्रीदेवी की ख्याति परवान पर थी, मुझे वो पसंद नहीं थी.  इसकी वजह काफी निजी थी, वजह थी उनकी आंखे. पढ़ने में यह बात अजीब लग सकती है लेकिन बचपन में बड़ी आंखे होने की वजह से और साथ ही दो भाईयों के बाद बहन की ख्वाहिश रखने वाले मम्मी पापा को जब मैं हाथ लगा तो घर के बड़े मुझे श्रीदेवी कहकर ‘चिढ़ाते ’थे. श्रीदेवी बोलते ही मेरी रुलाई फूट पड़ती थी और मैं काफी देर तक रोता रहता था. यहां तक कि जब मोहल्ले में चांदनी दिखाई जा रही थी तो बचपन से फिल्म का शौक रखने वाला मैं चिल्लर बटोरने में लगा हुआ था. जब बड़ा हुआ तो श्रीदेवी के लिए मन में प्यार उमड़ने लगा. उस समय एक्टिंग वगैरह के बारे में ज्यादा कुछ तो पता नहीं था, बस जो मन को भा जाए वो ही दिल में घर कर जाता था. आठवीं की परीक्षा चल रही थी और बोनी कपूर ने अपना सब कुछ लगा कर ‘रूप की रानी चोरों का राजा’ बनाई थी. बजट से कुछ लेना देना नहीं था, बस हमें तो फिल्म देखनी थी. जैसे तैसे परीक्षा देकर हम लोग तुरंत घर से बगैर बताए फिल्म देखने गए, इस बात की परवाह किए बगैर की घर पर क्या होगा और परीक्षा का क्या होगा. बाद में जब अखबारों में यह छपा था कि बोनी कपूर की इत्ते बड़े बज़ट वाली फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कोई कमाल नहीं कर पाई तो सबसे पहले यही सवाल दिमाग में आया था कि ऐसा क्यों हुआ श्रीदेवी तो फिल्म में इतनी अच्छी लगी थी. 

यहां तक कि ‘इंग्लिश विंग्लिश’ फिल्म के क्लाइमेक्स में श्रीदेवी जो साड़ी पहनती हैं, हमारी शादी के दौरान मेरी धर्मपत्नी ने ढूंढ कर वैसी ही साड़ी खरीदी थी. श्रीदेवी में पता नहीं कुछ ऐसा था, जिसने हमेशा से उनसे जोड़कर रखा. बस उन्हें देखना अच्छा लगता था. क्या पता था 103 डिग्री बुखार में पानी में भीगकर ‘न जाने कहां से आई ये लड़की’ पर नाचने वाली चालबाज़ के साथ मौत ऐसी चालबाजी कर जाएगी.

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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