भारतीय समाज वर्ण व्‍यवस्‍था का पालन करता आया है. जाति हमारी सोच, हमारे व्‍यवहार और हमारे क्रियाकलापों के केन्‍द्र में रही है. जातिगत फैसलों ने हमारी सामाजिकी को प्रभावित किया है. समय के साथ वर्ण व्‍यवस्‍था के स्‍याह पक्ष खत्‍म होते रहे हैं. लंबे संघर्ष के बाद छुआछूत को लेकर एक ऊंची आवाज बनी और कुछ हद तक इससे निजात पाई जा सकी. हालांकि, आज भी छुआछूत और भेदभाव हमारे समाज का हिस्‍सा है. इसे खत्‍म करने की जितनी कोशिशें होती हैं, यह कई-कई रूपों में अधिक कट्टरता के साथ प्रस्‍तुत हो जाता है. हमारी युवा पीढ़ी में कई लोग हैं जो आज जातिगत भेदभाव व छुआछूत को पोषित कर रहे हैं, इसकी पैरवी कर रहे हैं. अफसोस है कि कमरों में बैठ कर जातीय समीकरण साधने वाली राजनीति भी अब खुलकर इस भेद का प्रदर्शन कर रही है.


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ताजा मामला मध्यप्रदेश का है. जाति के सवाल पर अपने आपको भारतीय घोषित करने वाले मध्यप्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष कमलनाथ प्रदेश कार्यकारिणी को जाति में बांटने का काम कर गए. प्रदेश कांग्रेस के जिम्मेदारों की नासमझी या कमलनाथ का जाति प्रेम कि इस वर्गीकरण को खुद कांग्रेस ने ही उजागर किया. जबकि अमूमन ऐसे फैसलों को उजागर करते समय इनके कारकों को छिपाया जाता रहा है. बाहर आकलन कुछ भी हो, मुखिया खुलकर नहीं कहता कि उसने अपनी टीम में जातीय समीकरणों को साधा है. लेकिन जब कमलनाथ ने मध्यप्रदेश कांग्रेस की जम्बो कार्यकारिणी की और इसकी सूची मीडिया को भेजी गई तो उसमें यह भी खुलासा था कि कौन पदाधिकारी किस जाति का है.


सूची में पदाधिकारियों के नाम के आगे जाति का उल्लेख किया गया है.यह सूची सरकारी दफ्तरों में आरक्षण के नियमों का पालन करने वाले रोस्टर जैसी ही है. जैसे नाम के आगे लिखा गया एसटी, एससी, ओबीसी, जनरल, ठाकुर, माइनरटिस,राजपूत, कलार, लोधी, क्रिश्चियन, कुनबी, रघुवंशी, ट्राइबल, कुर्मी, गुर्जर.


इस सूची पर प्रदेशाध्यक्ष के नाते कमलनाथ के हस्ताक्षर भी हैं. उनके दफ्तर को यह करना था कि मीडिया में सूची जारी करने के पहले जाति वाले कॉलम को डिलीट कर देना था मगर जल्‍दबाजी कहिए या पार्टी की जातीय करीबी जाहिर करने की कोशिश कांग्रेस ने यह चूक कर दी. गौरतलब है कि हाल ही में पूर्व प्रदेशाध्यक्ष स्वर्गीय सुभाष यादव की पुण्यतिथि पर आयोजित कार्यक्रम के लिए कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी को आमंत्रित किए जाने वाले पत्र को लिखकर भी कमलनाथ विवाद खड़ा कर चुके हैं. उक्त पत्र में स्वर्गीय यादव को पिछडी जाति का बड़ा नेता बताते हुए इस कार्यक्रम को चुनावी लिहाज से काफी महत्वपूर्ण बताया गया था.


एक दृष्टि से यह तर्क दिया जा रहा है कि सारे दल भी तो यही कर रहे हैं. वे जातीय आधार पर पूरी राजनीति केन्द्रित किए जा रह हैं. यूं देखा जाए तो भारतीय राजनीति में जाति हमेशा ही हावी रही है. जातिगत भेदभाव दूर करने के प्रयास सामाजिक स्तर पर जितने भी तीव्र या मंद रहे हों, राजनीति में तो ये हमेशा ही शक्ति केन्द्र के रूप में देखे गए हैं लेकिन ऐसे प्रयासों को हतोत्‍साहित करने के स्‍वर हमेशा पूरी ताकत से मौजूद रहे हैं. अब भारतीय राजनीति की मुख्‍यधारा में आ रही इस सोच तो समय रहते दफ्न करने की आवश्‍यकता है तभी लोकतंत्र अपने सही रूप में रह पाएगा.


(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)