भारत में जाति-व्यवस्था ने जितना देश की एकता को नुकसान पहुंचाया है उतना शायद ही किसी अन्य चीज ने पहुंचाया होगा. हिन्दू-समाज जातियों में बंटा रहा और इस वजह से बाहरी आक्रमणकारी आकर देश में राज कर पाए. इस व्यवस्था ने लोगों को न सिर्फ किसी विशेष पेशे से बांध दिया, बल्कि यह भी लागू कर दिया कि पीढ़ियों तक किसी जाति में जन्मा कोई व्यक्ति केवल अपनी जाति-आधारित काम ही करेगा. और संविधान निर्माता डॉ. बाबा साहेब भीमराव रामजी आंबेडकर की भाषा में कहें तो यह न केवल डिवीजन ऑफ लेबर (कार्य का बंटवारा) बना बल्कि डिवीजन ऑफ लेबर्रस (कार्यकर्ताओं का बंटवारा) भी बन कर रह गया. 


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इसने व्यवसायिक-परिवर्तनीयता (ऑक्यूपेशनल मोबिलिटी) की संभावनाओं को भी बिलकुल समाप्त कर दिया, जिसके अंतर्गत एक व्यक्ति को वही पेशा अपनाना पड़ता है जो उसकी जाति के लिए तय है, फिर चाहे वह उसमे रूचि रखता हो या न हो या फिर वो उस कार्य में निपुण हो या नहीं. यह सामाजिक और आर्थिक दोनों ही दृष्टि से न तो न्यायसंगत है न तर्कसंगत. 


जाति-व्यवस्था से सबसे अधिक हानि दलितों को हुई जो उस व्यवस्था में सबसे निचले पायदान में आते हैं और जिन्हें कई तरह के अत्याचार, छुआछूत, अन्याय और अमानवीय बर्तावों को सहना पड़ा, और काफी हद तक आज भी सह रहे हैं. खैर, भारत में जाति-व्यवस्था के विरुद्ध आवाज़े बहुत पहले से उठती रही हैं और कई सामाज–सुधारकों ने इसके खात्मे के लिए बड़ा काम किया. यहां तक कि बौद्ध धर्म की स्थापना ही इसी आधार पर हुई की समाज में सबको बराबर समझा जाए. 


उसके बाद भक्ति-काल में अनेकों कवियों, संतो आदि ने अपने लेखों, कविताओं, साहित्य आदि से चेतना जगाई और यह समझाया कि ईश्वर की दृष्टि में सब एक हैं और सब मनुष्य बराबर हैं. संत रविदास, तुकाराम, आदि कई ज्ञानियों ने समाज में चेतना लाने का प्रयास किया. उसके बाद स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद आदि ने जिस तरह जाति-प्रथा के खिलाफ मोर्चा खोला उससे हिन्दू समाज में बड़ा बदलाव देखने को मिला. और फिर डॉ. अम्बेडकर ने तो जिस तरह दलित समाज के लिए काम किया उसका वर्णन ही शायद शब्दों में करना असंभव होगा. 


आंबेडकर ने भारतीय संविधान में जिस तरह सबको सामानता, गरिमा और आत्म-सम्मान के साथ जीवन जीने का अधिकार दिया वह किसी क्रांति से कम नहीं था. आंबेडकर मानते थे के भारतीयों की एकता में जाति सबसे बड़ा रोड़ा है और इसको समाप्त किये बिना एक सशक्त राष्ट्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती. उनके अनुसार हिन्दू व्यक्ति अपना भाईचारा अपनी जाति के बाहर सोच नहीं पाता है, जिस कारण उसकी नैतिकता अपनी जाति के लोगों तक सीमित रह जाती है, जो हिन्दुओं को एक होने से रोकता है. और इसी वजह से देश गुलाम बना.


सह-भोज की राजनीति
तत्कालीन राजनीति में एक विशेष ट्रेंड देखने को मिल रहा है. वह है दलितों के घर भोजन करना. वैसे इसको लेकर सियासत कोई नई नहीं है और लगभग सभी दल इसको कभी न कर चुके हैं, वह भी जो आज इसे ‘ढोंग’ और ‘दिखावा’ करार दे रहे हैं. ऐसा करने के पीछे भले ही किसी दल के नेताओं की मंशा अच्छी हो और इस माध्यम से वो समाज को यह सन्देश देना चाहते हों कि जातिगत भेदभाव को भुला कर वो सबको एक सामान देखते है. वो उस कलंक के खिलाफ भी सन्देश देना चाहते हों कि जिसमें दलितों को अछूत माना जाता था और उनके यहां खाना तो दूर, उनके हाथ का छुआ पानी भी सवर्ण-जाति के लोग नहीं पीते थे. लेकिन दलितों के साथ भोजन करना वह मकसद नहीं पूरा कर पाएगा जो वो शायद चाहते हैं, अर्थात दलित-उत्थान या दलित-सशक्तिकरण. हमारे देश के नेताओं को समझना पड़ेगा कि दलित उत्थान की लिए नीतियों, मंशा और सामजिक ढर्रे में आमूलचूल परिवर्तन लाने होंगे. 


साथ भोजन महज एक सांकेतिक भाव बन कर रह जाता है और इससे वास्तविक परिस्तिथियों में कोई भी परिवर्तन नहीं होता. शहरीकरण और वैश्वीकरण के दौर में वैसे भी साथ भोजन करना कोई बहुत बड़ी बात नहीं रह गई है. मसलन, आज होटलों, छात्रावासों आदि में बावर्ची किस जाति का है, वेटर किस जाति का है और वहां किस जाति के लोग खा रहे हैं यह कोई बता नहीं सकता. भले ही आज भी गांव में भोजन को लेकर ऐसा भेदभाव होता हो, लेकिन शहरों में तो लगभग यह खत्म ही हो गया है. 


इस नए वातावरण में दलित-अस्मिता और दलित-आकांक्षा दोनों बदल चुकी है और वो केवल साथ खाना खाने से प्रभावित नहीं होगा. दलितों का सही उत्थान तभी होगा जब सरकारें यह सुनिश्चित करें के उनके साथ कोई दुर्व्यवहार न हो. जैसे सुनने में आया कि उनको शादी के दौरान घोड़ी चढ़ने से रोका गया और बारात में पथराव किया गया. तो इन चीजों के खिलाफ़ कड़ी प्रशासनिक कार्रवाई कर के नेतागण उन्हें सही सम्मान दिलवा सकते हैं. 


इसके अलावा उनकी शिक्षा और रोज़गार के लिए उचित कदम उठाने होंगे ताकि वे भी अन्य जाति के लोगों की तरह शिक्षित और सम्रद्ध हो सकें. उनको बैंकों से क़र्ज़ न मिलने जैसी समस्याओं को दूर करके जितना उत्थान किया जा सकता है, सह-भोज से उतना कभी नहीं होगा. कुछ समय पहले यही बात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक मोहन भगवत ने भी दोहराई थी कि जनप्रतिनिधियों को दलितों के घर लावलश्कर के साथ खाना खाने जाने के बजाए उन्हें अपने घर खाने में बुलाना चाहिए. वैसे भी यह सुनने में आता है कि कहीं खाना होटल से आया था तो कहीं बर्तन तक बाहर के थे. तो ऐसे में क्या सामाजिक और राजनीतिक रूप से वो सन्देश जा पाएगा जो नेतागण पहुंचाना चाहते हैं? 


इसके लिए उन्हें स्वयं आत्ममंथन करने की आवश्यकता है. और वैसे आंबेडकर ने सह-भोज के अलावा अंतर-जातिय विवाह को भी समाज में जाति के बंधनों को तोड़ने के लिए सुझाया था. देखते हैं इसपर कब विचार किया जाता है.


(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में शोधार्थी हैं.)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)