Pollution : खुद को बचाइए, धरती कहीं नहीं जा रही...
हमने अपनी कब्र खोदनी शुरू कर दी है. हम अपने ही पैदा किए हुए जहर में घुट-घुट कर मर जाएंगे.
फिल्म 'स्वदेश' का एक सीन है- किसी कार्यक्रम के दौरान लाइट चली जाती है. पूरा गांव अंधेरे में डूब जाता है. गांववाले मिलकर भजन गाने लगते हैं. भजन का मर्म इतना है कि ईश्वर हमें अंधेरे से बचाओ, अंधेरे में जीने की ताकत दो. भजन को सुनकर फिल्म का नायक बुरी तरह झुंझला जाता है. गांववालों से कहता है ऐसा लगता है, जैसे आपको अंधेरे में रहने में मजा आने लगा है. आप अंधेरे को मिटाना नहीं चाहते हो, बल्कि अंधेरे के साथ तालमेल बैठाने में लगे हुए हैं.
ऐसी ही कुछ मानसिकता हमारी प्रदूषण को लेकर हो रही है. हम प्रदूषण के साथ तालमेल बैठाने में लगे हुए है. अब हमारे लिए मौसम का मतलब सर्दी, गर्मी, बरसात नहीं, बल्कि डेंगू, चिकनगुनिया, मलेरिया, धुंध यानी स्मॉग हो गया है. अब हम मौसमों को इन्हीं नाम से जानने लगे हैं. सरकार भी हर बार नए मौसम के आने से पहले कहती नजर आती है कि हमारी इस मौसम से निपटने के लिए पूरी तैयारी है.
हम अपने 2-3 साल के बच्चे की शैतानी की बात बताते हुए भी एक तरह से उसकी तारीफ कर रहे होते हैं. पीएम 2.5 और पीएम 10 जैसे मुद्दों पर भी हमारा ऐसी ही लहजा लगता है. जब हम चिंता जाहिर कर रहे होते हैं, तो लगता है जैसे हमें उसे बताने में मजा आ रहा है. जैसे हम होड़ लगाते हुए कह रहे हैं जरा देखो तुम्हारे शहर में तो इतना कम प्रदूषण है और हमारे शहर को देखो हमने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं.
“क्या मज़ा है सिगरेट, सिगार में, कुछ दिन तो गुज़ारो दिल्ली एनसीआर में” व्हाट्सएप पर तैरते इस संदेश को हम जिस तरह से फैला रहे हैं, उसमें चिंता कम और मजा ज्यादा नजर आ रहा है. हमने बस पीएम 2.5 और पीएम 10 बोलना सीख लिया है, उसी तरह जैसे हमने डेंगू के लिए प्लेटलेट्स शब्द सीख लिए हैं.
यही नहीं सुप्रीम कोर्ट के दो घंटे पटाखे चलाने के आदेश को जिस तरह धर्म से जोड़कर बयानबाजी चल रही है, उसे देखकर लग रहा है जैसे बयान देने वाले नाक में फिल्टर लगाकर पैदा हुए हैं. वो शरीर में अतिरिक्त फेफड़े लेकर पैदा हुए हैं. नेतागण जिस तरह ये कहते फिर रहे हैं कि हम तो पटाखे फोड़ेंगे चाहो तो हमें जेल भेज दो, ऐसा लग रहा है जैसे अदालत का आदेश कोई ईस्ट इंडिया कंपनी की कथनी है जिनके साथ आजादी के दीवाने बगावत करने में तुले हैं.
इस बीच ये चिंता भी जाहिर की जा रही है कि अगर हम जल्दी ही सचेत नहीं हुए तो धरती 'खत्म' हो जाएगी. हमें लगता है कि इस धरती को हम ही खत्म कर रहे हैं और हम ही बचा सकते हैं. ठीक हॉलीवुड फिल्मों की तरह जिसमें जब भी एलियन्स हमला करते हैं तो वो कोई अमेरिकन शहर ही होता है. क्योंकि अमेरिकन ये मानकर बैठे हैं कि एलियन्स और भला कहां पर आएंगे.
धरती कभी खत्म नहीं होने वाली, अगर कोई खत्म होगा तो वो हम इंसान होंगे. सोपान जोशी अपनी किताब ‘जल, थल, मल’ में इस गलतफहमी को बड़ी ही सहजता से दूर कर देते हैं. वो अपनी पुस्तक के ज़रिये बताते हैं-
किस तरह आज से साढ़े तीन अरब साल पहले धरती पर सायनोबैक्टीरिया, यानी हरे-नीले रंग के बैक्टीरिया हुआ करते थे. वो सूरज की रोशनी और हवा में मौजूद कार्बन गैस से अपना खाना बनाते थे. आज हमारे पेड़-पौधे भी इसी तरह से जीते हैं. ये बैक्टीरिया भी जहरीली गैस छोड़ते थे,जिस तरह हम कार्बन डायऑक्साइड छोड़ते हैं. ये जीव अच्छे से फले–फूले और कई करोड़ों साल तक धरती पर इनका राज चला.
कोई ढाई अरब साल पहले इनका राज मिटने लगा, यहां से हमारी बात शुरू हुई. इनकी संख्या बढ़ी तो इनकी सांस से निकलने वाली विषैली गैस का उत्सर्जन भी बढ़ा. ये गैस धरती के तत्वों से प्रतिक्रिया करके ठिकाने नहीं लग पा रही थी और इसकी मात्रा बढ़ने लगी. इतनी बढ़ी की धरती पर प्रलय आ गई. हमारे ग्रह और वायुमंडल पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा. कई तरह के जीवन लुप्त होने लगे. कुछ वैज्ञानिक इसे जीवन के इतिहास का सबसे विनाशक अध्याय मानते हैं. शायद आज तक की सबसे बड़ी प्रलय, पृथ्वी का सबसे विशाल प्रदूषण.
लेकिन पृथ्वी पर जीवन खत्म नहीं हुआ. उसका रूप बदल गया. इस तरह धरती पर वो जीव पनपे जो इस विषैली गैस को सहन करना जानते थे. जो नहीं सीख पाए वो या तो लुप्त हो गए या किसी सीमित जगह तक सिमटकर रह गए. जैसे दलदलों और समुद्र की गहराइयों में. दूसरेसभी जीवों ने आगे चलकर इस विषैली गैस का इस्तेमाल करना सीख लिया. सायनोबैक्टीरिया के भी जिन प्रकारों ने इस जहर को सहन करना सीख लिया वो आज भी जीवित हैं. आगे चलकर यही विषैली गैस जीवन का स्रोत बन गई.
ये विषैली गैस थी ऑक्सीजन.
यही नहीं वेदों में भी इस बात का उल्लेख मिलता है कि धरती पर पहले जीवन का अनुपात 1 के सामने 100 का था यानी एक करोड़ इंसान थे, तो सौ करोड़ मवेशी और दूसरे जीव थे. प्रकृति ने इन्हें इसी तरह बनाया था, लेकिन कालांतर में हम सौ गुना हो गए और बाकि जीव सिमट गए. हमारी संख्या बढ़ी, तो जंगल घटे, प्रकृति के दूसरे संसाधनों पर हमारे कब्ज़े से उन संसाधनों के असली हकदार जीवों को नुकसान पहुंचा. और धीरे-धीरे हमने सबको हड़प लिया, आज हम उसी का नतीजा भुगत रहे हैं.
तो कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि हमने अपनी कब्र खोदनी शुरू कर दी है. हम अपने ही पैदा किए हुए जहर में घुट-घुट कर मर जाएंगे. इससे वही जीवन पैदा होगा जो इस गैस को सहन करना जानता होगा. धरती पर रोज पैदा हो रहे नए-नए वायरस इस बात की ओर इशारा भी कर रहे हैं कि नए जीवन की शुरुआत होनी शुरू हो गई है.
ये ठीक फिल्म ‘फ्लाइंग जट’ के उस खलनायक की तरह है जो कचरे से पैदा होता है और मानव जाति को लीलने लग जाता है.
इसलिए जो नेता पटाखे फोड़ने का बयान दे रहे हैं या जिनकी गाड़ियां चोरी-छिपे धुआं छोड़ रही हैं या जो अपने घर की धूप को बढ़ाने के लिए पार्क में लगे हुए पेड़ों को कटवाने में लगे हुए हैं. या फिर वो नेता जो पेड़ लगाने का ढोंग करने में लगे हुए हैं और सोच रहे हैं कि हमारी कुर्सी बच जाएगी, उन्हें समझना पड़ेगा कि कुर्सी तो बिल्कुल बच जाएगी, लेकिन आपकी गारंटी नहीं है.
पिछले ही साल मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने एक करोड़ पौधे लगाने का एलान किया. घोषणा के होते ही एक करोड़ पौधों को जुटाने की कवायद शुरू हो गई. आनन फानन में तमाम नर्सरियों को पौधों के ऑर्डर दिए गए. नर्सरी मालिकों ने भी वक्त की नज़ाकत को समझते हुए पौधों की कलम काट कर उन्हें मिट्टी में गड़ाकर पौधे तैयार करके दे दिए और मध्यप्रदेश में एक करोड़ पौधे लग गए.
जनता खुश थी कि अब तो प्रदूषण का बाप भी इस धरती पर नहीं टिक पाएगा. लेकिन असलियत ये थी कि जो एक करोड़ पौधे लगाए गए थे उनमें लगभग 90 परसेंट केज़ुएल्टी हुई थी. यानी संघर्ष के सिद्धांत के तहत जो पौधे खुद लड़कर बढ़ गए वो बढ़ गए. बाकि सब धरती में दफ्न हो गए.
अभी हाल ही में दिल्ली में भी पांच लाख पौधे लगाने की मुहिम चली. आने वाले समय में इसमें से कितने बचते हैं, बचते या नहीं बचते हैं इस सवाल का जवाब सामने आ ही जाएगा. क्योंकि एक करोड़ पौधे, पांच लाख पेड़ ये रसीले जुमले हैं जिनको सुनकर अच्छा लगता है. ये आकर्षक भी हैं, बाद में कौन पूछने जा रहा है कि पौधे पेड़ बने या दफ्न हो गए.
तो अगर आप पेड़ लगाते हैं, आप प्रदूषण को रोकने की कोशिश करते हैं, अगर सरकारें बढ़ते प्रदूषण पर कोई गंभीर कदम उठाती हैं, आप पटाखे फोड़ना बंद कर देते हैं या कुछ भी ऐसा काम करते हैं जिससे वातावरण साफ होता है तो ये समझ लीजिए कि ये सब आप अपनी चिंता के लिए कर रहे हैं और वह भी हमें ही करना है, क्योंकि धरती को कुछ नहीं होने वाला है. वो थी, वो है और वो रहेगी...
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)