भुखमरी सूचकांक से कहीं ज्यादा बड़ी है!
भारत में जीवन की शुरुआत की भूखे रहने के पाठ से होती है. देश में 6 से 8 महीने की उम्र में केवल 42.7 प्रतिशत बच्चों को ऊपरी आहार मिलना शुरू होता है. यानी लगभग 57 प्रतिशत बच्चे भूख के साथ ही बड़े होते हैं. इसके साथ की देश में छह महीने की उम्र से दो साल की उम्र तक केवल 8.7 प्रतिशत बच्चों को स्तनपान के साथ पूरा जरूरी आहार मिलता है. यानी दो साल तक के 91.3 प्रतिशत बच्चे भूखे रहते हैं और जीना सीखते हैं.
हम परिणाम को नकारने और समस्या के कारणों को वैज्ञानिक-सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक नज़रिए से न समझने के लिए अभिशप्त एक समाज में तब्दील हो चुके हैं. सतत विकास लक्ष्यों के तहत तय किया गया है कि वर्ष 2030 तक दुनिया से भुखमरी को खत्म करके बुजुर्गों, बच्चों और महिलाओं के लिए विशेष रूप से खाद्य और पोषण की सुरक्षा की स्थिति को हासिल करना है. इसके लिए आधुनिक उत्पादन प्रणालियों से पलट कर बेहतर और पारंपरिक व्यवस्था-तकनीकों को अपनाने की जरूरत है. यह एक बड़ा सपना है, किन्तु संकट यह है कि हम आज भी भुखमरी और कुपोषण की वास्तविकता की भयावहता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं.
ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) में बहस इस बात पर केंद्रित कर दी गई कि इस रिपोर्ट में भारत का कौन सा स्थान है? 50वां या 100वां; यदि 100 वां है तो यह सही है या नहीं? पाकिस्तान हमसे आगे है या पीछे? पूरी कोशिश की गई है कि भारत में भुखमरी के मूल कारणों से ध्यान बंटाया जा सके. चलिए थोडा ग्लोबल हंगर इंडेक्स को समझ लेते हैं. इंटरनेश्नल फ़ूड पालिसी रिसर्च इंस्टीटयूट (आइऍफ़पीआरआई) कई सालों से दुनिया में भुखमरी के स्तर को सूचकांक के जरिये सामने लाता रहा है. ये सूचकांक महत्वपूर्ण इसलिए हैं क्योंकि इनमें बच्चों के पोषण को केंद्र में रखकर समाज की स्थिति का आंकलन किया जाता है, अन्यथा बच्चे तो अक्सर गुम ही हो जाते हैं.
ये इंडेक्स अल्प-पोषण, कुपोषण, ठिगनापन और 5 साल से कम उम्र की मृत्यु दर से जुड़े आंकड़ों को जोड़ कर तैयार किये जाते हैं. प्रथम दृष्टया ऐसा लगता है कि भुखमरी के स्तर को मापने के लिए ये बहुत सीमित मानक हैं; यह बात सही भी है; लेकिन फिर भी इसे समझने की जरूरत है कि बच्चों में अल्प-पोषण, कुपोषण, ठिगनापन और बाल मृत्यु बहुआयमी समस्यायों के बेहद स्पष्ट नज़र आने वाले परिणाम हैं. जीएचआई भले ही इन परिणामों को केंद्र में रखता है, किन्तु हममें, इंसान, नागरिक, जन प्रतिनिधि, सेवा प्रदाता या नीति निर्माता होने के नाते इतनी संवेदनशीलता होनी चाहिए कि हम कुपोषण के सतही आंकड़ों को सही-गलत साबित करने के फेर में फंसने के बजाय उनके आधारभूत और मूल ढांचागत कारणों को खोलने-उनका विश्लेषण करने की समझदारी दिखा सकें.
सच तो यह है कि भुखमरी के सूचकांक को जीवन चक्र के नज़रिए से समझने की जरूरत है. इसमें लिंग भेद, बाल विवाह, हिंसा, शिक्षा, सुरक्षित प्रसव और प्रजनन का अधिकार, जन्म लेने पर बच्चे के जीवित रहने की संभावना, स्तनपान और बच्चों के भोजन की सुरक्षा, मातृत्व हक, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और उन पर सामुदायिक हक, पहचान का अधिकार, सांप्रदायिक-जातिवादी छुआछूत और हिंसा से मुक्ति से लेकर किसानों-मजदूरों के हित शामिल हैं. इनमें से कुछ पहलुओं पर रौशनी डाल रहे हैं और दावा करते हैं कि ये सब भारत के भुखमरी के सूचकांक को स्वस्थ और मज़बूत बना रहे हैं.
जनजातीय समाज
भारत में 10.4 करोड़ लोग जनजातीय समाज से संबंध रखते हैं. उनकी अपनी सांस्कृतिक-सामाजिक पहचान और जीवन शैली है. वे प्राकृतिक संसाधनों के सजग उपयोग से भुखमरी को हराते आये हैं, किन्तु वैश्विक आर्थिक नीतियों ने उनसे जंगल-जमीन-पानी और उनकी संस्कृति आधारित व्यवस्था को छीन लिया. यूनिसेफ की रिपोर्ट (2016-17) ''न्यूट्रीशन एंड ट्राइबल पीपुल –अ रिपोर्ट आन न्यूट्रीशन - सिचुएशन आफ इंडियाज़ ट्राइबल चिल्ड्रन'' जब परिवार और समाज में निरंतर खाद्य असुरक्षा रहती है, तब बच्चे ठिगने रहने लगते हैं. यह कुपोषण का एक ऐसा प्रकार है, जिसकी स्थिति को आसानी से पलटा नहीं जा सकता है.
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विश्व में पांच साल से कम उम्र की एक तिहाई मौतें ठिगनेपन के कारण होती हैं, इससे बच्चे बीमार रहते हैं, स्कूल में अच्छे से पढ़ नहीं पाते हैं और वयस्क होकर उत्पादक भूमिका नहीं निभा पाते हैं. यह स्थिति घरेलू गरीबी, खाद्य असुरक्षा, महिलाओं को पर्याप्त पोषण न मिलने, बच्चों को सही तरीके से मां का दूध न मिलने और बदहाल जीवन शैली के कारण निर्मित होती है.
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2015-16) के नतीजों में यह जानकारी उपलब्ध नहीं है कि आदिवासी समुदाय में कितने बच्चे कुपोषित हैं, किन्तु वर्ष 2005-06 के सर्वेक्षण के मुताबिक 54 प्रतिशत यानी 62 लाख आदिवासी बच्चे सतत भुखमरी के कारण पैदा होने वाले वृद्धि बाधित कुपोषण के शिकार थे. इन चुने हुए राज्यों-आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, झारखंड, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, ओडि़शा, राजस्थान और तेलंगाना में ही 47 लाख आदिवासी बच्चे अपनी उम्र के मान से ठिगने रह गए हैं.
आदिवासी समाज को भुखमरी से बाहर निकालना सभ्य सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी है. अतः वर्ष 2006 में भारत के संसद ने वन अधिकार क़ानून बनाया था, जिसके प्राकथन में उल्लेख था कि भारत में आदिवासियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय होता रहा है. अतः उस स्थिति को बदलने के लिए भारत सरकार वन अधिकार क़ानून लागू कर रही है ताकि आदिवासियों को वन भूमि के अतिक्रमणकारी के राजकीय व्यवस्था द्वारा षड्यंत्रपूर्वक रचे गए धब्बे से मुक्त करा जाए.
इस क़ानून के मुताबिक आदिवासी और अन्य वन निवासियों को उनके कब्ज़े की 10 एकड़ तक का कानूनी अधिकार दिया जाना था. इसके सामुदायिक हक़ भी शामिल किये गए ताकि वन उपज, सूखी लकड़ी, औषधियों, पानी और पानी के उत्पादों, फलों-सब्जियों का पर भी उन्हें निर्बाध हक़ मिल सके. यह उनके गरिमामय जीवन और भुखमरी से मुक्ति के लिए एक अनिवार्य कदम था. इसका हश्र क्या हुआ?
आदिम जाति विकास मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक फ़रवरी 2017 तक भारत में व्यक्तिगत और सामुदायिक हकों के लिए कुल मिला कर 41.65 लाख दावे किये गए थे, इनमें से 18.47 लाख दावे खारिज कर दिए गए. अधिसंख्य मामलों में कानूनी प्रावधान के मुताबिक दावेदारों को आवेदन खारिज होने का कारण भी नहीं बताया गया. महाराष्ट्र में 3.64 लाख में से 2.30 लाख, मध्यप्रदेश में 6.14 लाख में से 3.52 लाख दावे, छत्तीसगढ़ में 8.70 लाख में से 4.67 लाख, कर्नाटक में 3.04 में से 1.71 लाख दावे खारिज कर दिए गए. यह अनुभव बताता है कि सन 1947 की आज़ादी ने अब तक आदिवासी समाज को भीतरी उपनिवेशवाद से आज़ादी नहीं दिलाई है.
रोजगार की सुरक्षा
क्या रोज़गार की सुरक्षा के बिना खाद्य सुरक्षा संभव है? अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट वर्ल्ड एम्प्लायमेंट एंड सोशल आउटलुक (2017) के मुताबिक वर्ष 2016 में भारत में 1.77 करोड़ लोग बेरोजगार थे, 2017 में यह संख्या बढ़कर 1.78 करोड़ हो गई. वर्ष 2018 में यह संख्या 1.8 करोड़ होगी. रिपोर्ट बताती है कि रोज़गार के अवसर कम होने से श्रम क्षेत्र की स्थिति खराब होगी. स्वस्भाविक है कि संकट मजदूरों पर गिरेगा. यह स्थिति लाखों परिवारों और करोड़ों बच्चों को रोज-रोज भूखे रहने के लिए मजबूर करती है. इस दौरान गांवों से शहरों की तरफ पलायन बढ़ रहा है, किन्तु शहरी विकास की नीतियों के कारण सरकार और समाज की तरफ से लगातार प्रवासी श्रमिकों को अपराधी, गंदा और बदबूदार साबित करने की साझा कोशिश हो रही है.
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बच्चों के ऊपर संकट
बच्चों के ऊपर बहुत गहरा संकट है. भारत में वर्ष 2008 से 2015 के बीच आठ साल में 62.40 लाख नवजात शिशु मृत्यु हुई. देश के चार राज्यों (उत्तरप्रदेश, राजस्थान, बिहार और मध्य प्रदेश) में देश की कुल नवजात मौतों की संख्या में से 56 प्रतिशत मौतें दर्ज होती हैं. एक महीने से पांच साल की उम्र में बच्चों की मृत्यु का जितना जोखिम होता है, उससे 30 गुना ज्यादा जोखिम इन 28 दिनों में होता है. इन आठ सालों में भारत में 1.113 करोड़ बच्चे अपना पांचवा जन्म दिन नहीं मना पाये और उनकी मृत्यु हो गई. इनमें से 62.40 लाख बच्चे जन्म के पहले महीने (28 दिन के भीतर) ही मृत्यु को प्राप्त हो गए. यानी 56 प्रतिशत बच्चों की नवजात अवस्था में ही मृत्यु हो गई. ऐसे में वर्ष 2014-15 से 2016-17 के बीच बच्चों-महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए भारत सरकार द्वारा विशेष रूप से 31890 करोड़ रूपए आवंटित किये गए, किंतु इसमें से 7951 करोड़ रुपये खर्च ही नहीं हुए.
गर्भवती महिलाएं
भारत में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (चार) से पता चलता है कि 26.8 प्रतिशत महिलाओं की शादी 18 साल से कम उम्र में हो गई. भारत में 7.9 प्रतिशत महिलायें 15 से 19 साल की उम्र में ही गर्भवती हुईं. जबकि यह उम्र तो गर्भवस्था की आदर्श उम्र नहीं मानी जाती है. भारत में हर साल लगभग 2.58 करोड़ गर्भवती महिलायें पंजीकृत होती हैं. देश में केवल 51.2 प्रतिशत यानी लगभग आधी गर्भवती महिलाओं को ही चार प्रसव पूर्व जांचें मिल पाती हैं. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून के तहत मातृत्व हक योजना में भारत सरकार ने एक बच्चे और 19 साल की उम्र में प्रसव सरीखी ऐसी शर्तें जोड़ दी हैं, जिनसे लगभग 50 प्रतिशत महिलायें मातृत्व हक पाने से वंचित कर दी गईं.
वर्ष 2013-14 में भारत सरकार ने यूनिसेफ के सहयोग से रेपिड सर्वे आन चिल्ड्रन नामक अध्ययन किया. उससे पता चला कि इन कार्यक्रम में केवल 45.7 प्रतिशत गर्भवती महिलायें और 47.8 प्रतिशत धात्री माताएं ही पोषण आहार पाती हैं. आधी से ज्यादा गर्भवती महिलायें खून की कमी की शिकार हैं. यह जरूरी है कि जन्म के तत्काल बाद और एक घंटे के भीतर नवजात बच्चे को माँ का पहला गाढ़ा पीला दूध मिल जाए. एनएफएचएस से पता चलता है कि भारत में केवल 41.6 प्रतिशत बच्चों को ही जन्म के एक घंटे के भीतर मां का पहला दूध मिल रहा है. यदि ऐसा है तो मतलब साफ़ है कि बच्चे संक्रमण से मुक्त नहीं हो रहे हैं और उन्हें जिन्दा रहने की खुराक ही नहीं मिल रही है. भारत में 54.9 प्रतिशत बच्चों को ही पूरी तरह से मां का दूध मिलता है. बच्चों के स्वास्थ्य, पोषण और प्रतिरोधक क्षमता के नज़रिए से यह एक बड़ा चुनौतीपूर्ण पहलू है.
भुखमरी का संकट
भारत में जीवन की शुरुआत की भूखे रहने के पाठ से होती है. देश में 6 से 8 महीने की उम्र में केवल 42.7 प्रतिशत बच्चों को ऊपरी आहार मिलना शुरू होता है. यानी लगभग 57 प्रतिशत बच्चे भूख के साथ ही बड़े होते हैं. इसके साथ की देश में छह महीने की उम्र से दो साल की उम्र तक केवल 8.7 प्रतिशत बच्चों को स्तनपान के साथ पूरा जरूरी आहार मिलता है. यानी दो साल तक के 91.3 प्रतिशत बच्चे भूखे रहते हैं और जीना सीखते हैं.
बुनियादी रूप से यह मसला हमारी शासन व्यवस्था के चरित्र से जुड़ा हुआ है. जो बहुत प्रतिबद्ध दिखाई नहीं देता. वास्तव में समाज को ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट का इंतज़ार करने की जरूरत नहीं पड़ती, यदि उसकी नीति में भुखमरी को मिटाने की नियत होती! किसी भी संकट को एक ''फायदे के अवसर'' के रूप में भुनाया जाता है. कुपोषण बढ़ गया, तो पोषणाहार कंपनियां पूरा जोर लगा रही हैं कि ठेका मिल जाए.
कुछ अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं ''भोजन'' को इतना जटिल विषय बना दे रही हैं, कि भूख अब एक बीमारी और चिकित्सकीय घटना मानी जा रही है. इन पर सरकार का खूब विश्वास है, किन्तु देश के नागरिकों को पांच किलो अनाज लेने से पहले हर महीने अपनी पहचान साबित करना होती. इसके कारण ही अब लोग भूख से मरने लगे हैं.
विकल्प यह है कि भारत की सरकारों को खाद्य सुरक्षा और विपरीत परिस्थितियों से निपटने के समाज हज़ारों सालों के अनुभव में विश्वास करना सीखना चाहिए. खेती से लेकर बच्चों और प्राकृतिक संसाधनों की देखरेख तक हमारी कई वैज्ञानिक और संवेदनशील व्यवस्थाएं रहीं हैं.
(निदेशक, विकास संवाद और अशोका फेलो)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)