रुह में बसे रहते हैं गुरु
गुरु-शिष्य परंपरा के बगैर हमारे संगीत की विकास यात्रा को समझना निरर्थक होगा. आदिकाल से इस परंपरा को सम्मान और महत्व मिलता रहा है. वेद, शास्त्र, पुराण से लेकर आज तक गुरु और शिष्य की नातेदारी बराबर बनी हुई है.
शास्त्रीय गायक पं. छन्नूलाल मिश्र से कला समीक्षक विनय उपाध्याय का संवाद...
हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के मौजूदा दौर में पं. छन्नूलाल मिश्र की उपस्थिति आदर और उत्कर्ष की परिचायक है. गुरु-शिष्य परंपरा उनके समूचे व्यक्त्वि में बोलती है. वे वेद-शास्त्रों के ज्ञाता हैं और अपने ज्ञान तथा तर्कों को प्राचीन ग्रंथों के उद्धरणों से प्रामाणिक बनाते हैं. बनारस के ऐसे स्वर मनीषी से मिलना किसी संत की छाया में बिरमने का सुख देता है. गुरु के प्रति अपने निवेदन और श्रद्धाभावों को यहां छन्नूलालजी पूरी आत्मीयता से खोल रहे हैं...
मेरी उम्र आठ साल की रही होगी जब मेरे जीवन में गुरु का प्रवेश हुआ. गुरु थे किराना घराने के नामी गायक प्रो. अब्दुल गनी की परंपरा के अहमद खां साहब. मैंने ग्यारह साल तक मुजफ्फरपुर (बिहार) में रहकर उनसे सीखा. पहला कार्यक्रम पूर्णिया के चंपानगर के राजा के यहां दिया. हम राज गायक बनना चाहते थे पर पिता ने मना कर दिया. बिहार से मैं बनारस आया और ठाकुर जयदेवसिंह से शास्त्र का सूक्ष्म भेद सीखा. आज जबकि मैं पिचहत्तर की उम्र पार कर गया हूं और मेरे भी कई शिष्य हैं तब भी मैं अपने गुरु को नहीं भूल पाता. गुरु आज भी मेरे सपने में आते हैं और मैं उनसे सीखता रहता हूं. गुरु कभी मरते नहीं. वे हमारी रुह में सदा बसे रहते हैं.
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गुरु-शिष्य परंपरा के बगैर हमारे संगीत की विकास यात्रा को समझना निरर्थक होगा. आदिकाल से इस परंपरा को सम्मान और महत्व मिलता रहा है. वेद, शास्त्र, पुराण से लेकर आज तक गुरु और शिष्य की नातेदारी बराबर बनी हुई है. शिव और कृष्ण का देवकाल भी इस परंपरा से अनुप्राणित रहा है. भगवान कृष्ण ने इंद्रलोक से ठुमरी सीखी और उसे भू-लोक में प्रतिष्ठित किया. उन्होंने प्रद्युम्न तथा बलराम को ठुमरी का गीत-संगीत हस्तांरित किया. पहले ठुमरी का नाम छाल्क्यि था, बाद में यह ठुमरी कहलाई. इसी तरह शिव से गुरु-शिष्य परंपरा चलकर रामचरित मानस में आई. भगवान शंकर ने स्वर और संगीत की रचना की. बिना किसी शिष्य के भला यह कैसे आगे बढ़ती. शिव ने अपनी सहधर्मिणी पार्वती को संगीत सुनाया. मानस में कहा भी गया है- ‘पूजि महेश निज मानस राखा/ पायसु सभय शिवासन भाखा/ सोई शिव काग भुसंडिनी दीना/ रामभगत अधिकारी चीन्हा/’. यानी शिव ने कागभुसुंडी जैसे उपयुक्त अधिकारी को भी संगीत सिखाया. यहां गुरु और शिष्य दोनों ही बिना छल-कपट के देने-लेने के पात्र हैं. इस निर्मल और पवित्र भाव के साथ गुरु-शिष्य परंपरा हमारी संस्कृति में प्रवाहमान होती रही है. यहां ध्यान देने की बात है कि कागभुसुंडी ने भी उसी भावना के साथ मुनि याज्ञवल्क को सिखाया. याज्ञवल्कजी ने भारद्वाज मुनि तक उसे पहुंचाया और भारद्वाजजी ने वेद की ऋचाएं गाकर संगीत को जन-जन तक प्रचारित किया. यहीं से संगीत शास्त्र सात स्वरों के माध्यम से निरंतर फलता-फूलता रहा.
बीच में कई वर्षों तक यह परंपरा ओझल रही. लेकिन अब आधुनिक काल में पुनः इसकी प्रतिष्ठा हुई. स्वामी हरिदास के समय से भारतीय शास्त्रीय संगीत का हम पुनः उन्नयन देखते हैं, जिन्होंने अपने शिष्यों नायक गोपाल, बैजू बावरा, तानसेन आदि को कठिन अनुशासन में सिखाया. बाद में, हम जैसा कि जानते हैं, इन संगीतज्ञों ने प्राण-प्रण से संगीत को परवान चढ़ाया. उन्होंने भी अपने कई शिष्यों को तैयार किया.
मेरी स्पष्ट मान्यता है कि गुरु के बिना संगीत सीखा ही नहीं जा सकता. आज कई संसाधनों का आविष्कार हो गया है, जिनसे संगीत सीखने-सिखाने की कोशिशें की जा रही हैं, लेकिन मैं इसे अभिजात संगीत कहूंगा. शास्त्रीय संगीत की श्रेणी में इसे नहीं रखा जा सकता. इन संसाधनों से जितना सुनेंगे उतना ही सीखने की सीमा होती है, लेकिन गुरु की छाया में बैठकर ऐसी अनमोल सीखों का प्रसाद मिलता है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती. गुरु हमें कल्पना के आकाश में उड़ना सिखाते हैं. संगीत के अलौकिक रहस्यों को जानने-समझने की आत्मशक्ति का संचार करते हैं. आप ज़रा गौर करें किसी फिल्मी गीत पर. जैसे सिनेमा का कोई गीत राग यमन को आधार बनाकर संगीतबद्ध किया गया है. उसे जब आप सीखें तो राग यमन के एक निश्चित शाब्दिक और सांगीतिक धरातल तक ही आप सीमित रहेंगे लेकिन जब कोई शास्त्रीय गायक यमन में कोई बंदिश गाएगा तो कई स्वर, छंद और आरोह-अवरोहों का उसमें प्रयोग रहेगा. तो गुरु के पास बैठकर कला, कल्पना के नए-नए आभूषणों से सुसज्जित करने का और गहराई में जाकर भाव का नया सौंदर्य पैदा करने की कूव्वत पैदा होती है.
यह सब गुरु के साथ रहकर ही पाया जा सकता है. गुरु की आभा का प्रभाव जाने-अनजाने शिष्य के जीवन में पड़ता ही है. वे कब, क्या दे दें, शिष्य को पाने के लिए तैयार रहना चाहिए. सच्चा गुरु संस्कारों का पुंज होता है और उसका प्रकाश शिष्य को निकटता में न मिले, संभव ही नहीं. राम तो चक्रवर्ती राजा दशरथ के पुत्र थे. उनके पिता चाहते तो गुरुओं को महल में बुला लेते लेकिन उन्होंने अपने पुत्रों को गुरुकुल भेजा. वहां दशरथ पुत्रों ने गुरु की सेवा की, आश्रम के नियम माने और गुरु ने प्रसन्न होकर अपने शिष्यों को अल्प अवधि में ही शिक्षा-दीक्षा से संपन्न कर दिया. गुरु के प्रति उनका श्रद्धा भाव आजीवन रहा. मानस में तुलसी ने कहा है कि शिव का धनुष बड़े-बड़े शूरवीर भी उठा नहीं पाए लेकिन जब श्रीराम ने गुरु का स्मरण कर उस धनुष को स्पर्श किया तो एक ही प्रयास में उसे उठाने में सफल हो गए. कहने का आशय यह कि गुरु की हमारे भीतर एक शक्ति की तरह उपस्थिति रहती है. वे जीवन के अनेक मुश्किल पड़ावों पर हमारी मदद करते हैं.
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सच्चा गुरु जीवन में मिल जाए तो क्या बात! लेकिन दुर्भाग्य से सतगुरु आज कम ही हैं. संत कबीर ने सतगुरु के गुणों का क्या खूब वर्णन किया हैं- ‘सो गुरु सत्य कहावैं/कोई नैनन अलख लगावैं/दौलत डिगै न बोलत बिसरै/अस उपदेश दृढ़ावै. जप तप योग क्रिया ते न्यारा/सहज समाधि सिखावै/काया कष्ट भूलै नाहि दैवें/नहि संसार छुड़ावै/हमन जाई, जहां-जहां तहं-तहं/परमात्मा दरसावैं/’.
कबीर के इस पद में गुरु की जो विशेषताएं बताई गई हैं उन्हें भला आज कितने लोग चरितार्थ करते हैं. लेकिन सौभाग्य से मेरे गुरु में मैंने ये सभी खूबियां देखी-पाईं. आज भी मैं तानपुरा लेकर जब अभ्यास करता हूं या सभा में संगीत छेड़ता हूं तो जैसे गुरु मेरी रक्षा करते हैं. उनका स्मरण मुझे भीतर तक बल देता है. उन्होंने कहा था कि अहंकार से सदा दूर रहो. विलासिता के फेर में मत पड़ना. भीतर-बाहर एक जैसे दिखना.