मंदसौर में राहुल गांधी ने आखिर वही कहा, जो दशकों से दूसरे नेता कहते चले आए हैं. हमारी सरकार आई तो किसानों का कर्जा माफ करेंगे, (अलबत्‍ता इसमें उन्‍होंने दस दिन की समय सीमा जरूर दी.) माना कि इस वक्‍त और मुंशी प्रेमचंद की कहानियों के जमाने से कर्ज किसानों की सबसे बड़ी समस्या है और रही है, लेकिन ‘केवल माफी’ उसका अंतिम हल नहीं है, क्‍या यह बात अब भी हम समझने को तैयार हैं.


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मंदसौर में किसानों पर गोलीकांड की पहली बरसी पर लाव लश्‍कर के साथ राहुल गांधी का पहुंचना इसलिए जायज हो गया क्योंकि इस राज्‍य में अगले कुछ महीनों में चुनाव होने हैं. इसलिए ‘सक्रिय सरकार’ जहां उधड़ी व्यवस्थाओं में विज्ञापनों के पैबंद लगा दर्द को दबाने की कोशिश कर ही रही है, विपक्ष भी वोटों की राजनीति करने के नैतिक अधिकार का पूरा उपयोग करने पर उतर ही आया है. सरकार अपने बजट में किसानों के लिए हजार करोड़ रुपयों के कर्जें के प्रावधान को उपलब्धि बताती है, विपक्ष कहता है कि हम सरकार में आए तो दस दिन में किसानों का कर्जा माफ कर देंगे. यह बात बीसियों साल से कही सुनी जा रही है, पर इस बात को कोई समझने को तैयार क्यों नहीं है कि इसी कर्जे की वजह से तो किसान हजारों की तादाद में आत्महत्या को मजबूर हुआ है.


मंदसौर के मंच से यदि राहुल गांधी किसानों के कर्जे माफ कर देने के साथ ही ‘कर्ज मुक्त व्यवस्था’ की बात करते, तो उनकी दूरदृष्टि समझ आती पर राजनैतिक दलों को किसान, किसान कम और ‘वोटर’ ज्यादा दिख रहा है, इसलिए चाहे-अनचाहे उनके भाषणों में वह बात सामने आ ही जाती है.


मध्यप्रदेश में किसानों के हालात बड़े अजीब हैं. उसे कृषि कर्मण अवार्ड भी मिल जाता है, और गोली चलने से उसकी मौत भी हो जाती है. किसान आत्महत्या भी कर लेता है. कमाल किसानपुत्र मुख्यमंत्री का है या मामला कुछ और. पर यदि सचमुच विकास हो गया होता तो छह राज्यों के किसानों के साथ मध्यप्रदेश के किसान गांव बंद करने से पहले सोचते जरूर.


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मध्यप्रदेश देश का अकेला ऐसा राज्य है जो उत्पादन की अलग—अलग श्रेणियों में कमाल करने की वजह से लगातार पांच सालों तक कृषि कर्मण अवार्ड प्राप्त करते रहा है. इससे माना जा सकता है कि यहां के किसानों के हालात देश में सबसे ज्यादा बेहतर होंगे. अभी से नहीं यह अवार्ड पाने की शुरुआत उसने यूपीए के कार्यकाल में ही कर दी थी. केन्द्र में उसकी अपनी सरकार आने के बाद तो यह हौसला और भी बढ़ता गया.


अलबत्ता सरकार की इस वाहवाही से किसान कभी खुश नहीं हो पाया, उत्पादन के आंकड़े बढ़ जाने से उसकी खुशी कभी नहीं बढ़ी, क्योंकि किसानी की बढ़ती लागत ने उसे कभी ऐसा मौका नहीं दिया. रही सही कसर डीजल—पेटोल और अतिरिक्त बिजली उत्पादन करने के बावजूद महंगी बिजली ने कर दी है. इसीलिए एक आम किसान हर अवार्ड पाने से हैरान अधिक हुआ.


सरकार उत्पादन के आंकड़े चाहे जितना बढ़ा ले, लेकिन इसके समानांतर यदि किसान की आय में बढ़ोत्तरी नहीं हुई तो किसानी का चेहरा बदल देने का दावा करना बेमानी है. दूसरी ओर यह देखना भी लाजिमी होगा कि किसानों पर कर्ज में कितनी ज्यादा बढ़ोत्तरी हुई हैं कृषि मूल्य और लागत आयोग की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2004—05 में किसानों केा 1.25 लाख करोड़ रुपए का संस्थागत कर्ज दिया गया था जो अगले दस सालों में बढ़कर 8.77 लाख करोड़ रुपए हो गया. राज्यसभा में कृषि मंत्रालय ने एक सवाल के जवाब में भी बताया था कि किस पर 2015—16 में आठ लाख करोड़ रुपए का भारी—भरकम संस्थागत कर्ज चढ़ा हुआ है.


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भारत में 4.69 करोड़ किसान कर्जदार हैं. पूरे देश के ग्रामीण इलाकों में 31 प्रतिशत और 2 प्रतिशत शहरी किसान परिवार कर्जदार है. यह केवल संस्थागत कर्ज के आंकड़े हैं भारत में सूदखोरों के जरिए जो कर्ज के जाल में फंसाया जाता है, उसका कोई हिसाब किसी के पास नहीं है. कर्ज के यह भारी आंकड़े एक बार सरकार आने पर दूर किए जा सकते हैं, लेकिन इसको दूरदृष्टि के साथ किसानों की आय को बढ़ाकर नहीं जोड़ा गया, तो किसान अगली कई सदियों तक वोट बैंक ही बने रहेंगे. वह नारे लगाते रहेंगे, किसान नारे सुनते रहेंगे.


नेशनल सैम्पल सर्वे आर्गनाइजेशन की रिपोर्ट के मुताबिक मध्यप्रदेश में किसान परिवार की कुल मासिक आय औसतन 6210 रुपए पर ही अटकी है. याद रखिए कि परिवार की. दलित और आदिवासियों की हालत और खराब है. आदिवासी किसान परिवार की कुल आय 4725 रुपए हैं इसमें से 2002 रुपए वह खेती से कमाता है. दलित किसान परिवार की मासिक आय 4725 रुपए है इसमें से 2607 रुपए खेती का योगदान होता है. पिछड़ा वर्ग से आने वाले किसान परिवार की आय 7823 रुपए है, इसमें से खेती का योगदान 5534 रुपए है. तो क्या बदला. यदि 2003 के बाद से किसानी की तस्वीर को बहुत बदल भी दिया गया है तो किसान की आय तो अब भी किसी सम्माननक स्तर तक नहीं पहुंच पाई है.


यदि प्रधानमंत्री के 2022 तक किसानों की आय के दोगुना कर देने के वायदे को मान भी लिया जाए तब भी एक किसान परिवार सरकार के चतुर्थ वर्ग कर्मचारी के बराबर आय पर नहीं पहुंच पाएगा. ऐसी मुश्किलों के दौर में यदि किसान हड़ताल पर चला जाता है तो इसे किसी और की राजनीति कहना या किसी और के द्वारा बरगलाया जाना नहीं माना जा सकता. इस सच्चाई को किसान अब समझने लगा है. वह समझने लगा है कि सरकार आखिर चुनावी साल में ही क्यों उसे 200 रुपए का अतिरिक्त बोनस देती है !


पक्ष और विपक्ष चुनावी दोनेां ने ही लालच के झुनझुने फेंकने शुरू कर दिए हैं. देखना है कि लालच के इस जाल में भोली चिड़िया फंस जाती है या फिर संगठित होकर जाल को ही आसमान में उड़ा ले जाती है.


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)