रंग सप्तक : कोलाज में रमते श्रीकांत
श्रीकांत कहते हैं, `हर व्यक्ति का चीज़ों को देखने-परखने और अभिव्यक्त करने का अपना तरीका होता है. मेरे लिए अभिव्यक्ति जीवन की अनिवार्यता है. जो कुछ देखूं-समझूं और जानूं उसे शब्दों या रंगों द्वारा व्यक्त कर सकूं. अभिव्यक्ति की यह छटपटाहट मुझे निरंतर प्रयोगशील रखती हैं.
लेखक-चित्रकार श्रीकांत आप्टे के कोलाज देखकर कला और समय की जुगलबंदी का अहसास होने लगता है. चितेरों की बस्ती भोपाल में श्रीकांत अपने हुनर की प्रसिद्धि और प्रज्ञापन की अतिरिक्त महत्वाकांक्षाओं से परे गुपचुप सिरजने में भरोसा करते रहे हैं. ऐसा नहीं कि उनकी चित्रकृतियां कला दीर्घाटाओं तक नहीं पहुंचीं पर वे कला के बाज़ार और प्रदर्शन की तिकड़मों से फासला करते आए हैं. शायद इसलिए कि वे मूलतः व्यंग्य लेखक हैं और लेखकीय स्वाभिमान उनकी कला की राह में यदा-कदा आड़े भी आता हो.
बहरहाल, इन दिनों श्रीकांत भारत की कुछ उन विभूतियों के चेहरों को अपनी फ्रेम में चस्पा करने में मशगूल हैं जिनका योगदान महान विरासत की तरह देश-दुनिया में स्वीकार रहा है. इस फेहरिस्त में स्वप्नदर्शी नाटककार हबीब तनवीर भी हो सकते हैं और मासूम-मखमली आवाज़ के धनी पार्श्व गायक हेमंत कुमार भी. भारतीय चित्रकला के आधुनिक पुरोधा राजा रवि वर्मा का मुखमंडल किसी चौखट में नुमाया हो सकता है तो, एक भारतीय आत्मा माखनलाल चतुर्वेदी की भावभरी मुद्रा भी किसी कॉलेज में सजीव होती हमें हेर सकती है. निश्चय ही कागज़ों के रंग-बिरंगे अरण्य में चेहरों के माफिक चिंदियों की पहचान आसान नहीं, लेकिन सृजन में अपने अभीष्ट को पाने की बेचैनी आप्टे जैसे जिद्दी कलाकारों को सारे खटरमों के लिए खड़ा कर देती है. लेकिन यह शिल्पी जल्दी में नहीं है. तबीयत और मूड को जब मंजूर हुआ कैंची-कटर और कागज़ की हमजोली आहिस्ता-आहिस्ता किसी चेहरे को उभारने श्रीकांत को उकसा देती है. फिर टुकड़ा-टुकड़ा कागज़ों की संगत करीने से जो सिरजती है, वह एक नायाब कृति बन जाती है. यह सब सिर्फ कतरनों का उथला व्यापार नहीं है, एक गंभीर सृजन है जहां किसी शख्सियत के नैन-नक्श निहारते हुए उसकी जिंदगी के धूप-छांही रंगों का ख़ामोश संगीत भी सुना जा सकता है.
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बहुतों को याद होगा, करीब छह बरस पहले श्रीकांत ने स्वाधीनता संग्राम के इतिहास को दर्जनों कोलाज कृतियों में रूपायित किया था. ये सुंदर और अनूठी बानगियां कई दिनों तक उनके घर की चौखट तक ही सीमित रहीं. जब इस काम की खबर उनके चाहने वालों को मिली तो संग्राम की स्मृतियां उन्हें कोलाजों में कौंधती नजर आईं. संभवतः वे पहले और अकेले कलाकार हैं जिन्होंने आज़ादी के अतीत को कतरनों में खोजकर कला की चौखट में जड़ लिया. ये कोलाज भोपाल के कला घर भारत भवन में हुए समारोह ‘संग्राम और सृजन’ की नुमाइश का हिस्सा बने.
श्रीकांत कहते हैं, 'हर व्यक्ति का चीज़ों को देखने-परखने और अभिव्यक्त करने का अपना तरीका होता है. मेरे लिए अभिव्यक्ति जीवन की अनिवार्यता है. जो कुछ देखूं-समझूं और जानूं उसे शब्दों या रंगों द्वारा व्यक्त कर सकूं. अभिव्यक्ति की यह छटपटाहट मुझे निरंतर प्रयोगशील रखती हैं. व्यंग्य लिखने से लेकर क्रेयॉन, वाटर कलर, पोस्टर कलर, ऑयल कलर कोलॉज तक प्रयोगधर्मिता मेरी फितरत रही है. यही वजह है कि सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को जब चित्रों में अभिव्यक्त करने का विचार आया तो मैंने कोलाज़ जैसी कम लोकप्रिय और साथ ही कलापारखियों द्वारा दोयम दर्जे की समझी जाने वाली लगभग अपेक्षित विधा का चुनाव किया. मेरे लिए दूसरों की स्वीकृति-अस्वीकृति से अधिक महत्वपूर्ण मेरी रचनात्मक संतुष्टि है. आज तक कितने ही कलाकारों द्वारा कितनी ही बार और न जाने कितने तरीकों से स्वतंत्रता संग्राम की कलात्मक प्रस्तुति हुई है, पर मैं कुछ नया तलाश रहा था. बंधी-बंधाई लीक पर चलने से कहीं ज्यादा आवश्यक था कि जो मन-मस्तिष्क में है वह यथावत व्यक्त हो सके. मेरे मन ने कभी प्रचलित बंधन स्वीकार नहीं किए. कोलाजिस्ट, कार्टूनिस्ट जैसी सीमाएं मेरे मन ने कभी नहीं मानीं.
'अगर किसी विचार को कार्टून के रूप में बेहतर तरीके से व्यक्त किया जा सकता है तो मैं उस पर पूरा व्यंग्य लिखने से कार्टून बनाना पसंद करूंगा. यही वजह है कि चित्रकला की अन्य विधाओं पर पकड़ होते हुए भी मैंने कोलाज बनाने का निर्णय लिया. मैं कई दिनों से इस विधा पर काम कर रहा था और मुझे इस माध्यम में अब तक अनंत संभावनाएं नजर आ रही थीं. पारंपरिक अर्थों में किए जाने वलो कोलाज से हटकर मैं एक नया रूप विकसित कर चुका था. मेरा प्रयास था कि मैं अपने चित्रों में पेंटिंग क्वालिटी और प्रभाव उत्पन्न कर सकूं.'
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पहली नजर में तो ये चित्र पेंटिंग ही नज़र आते हैं. स्वतंत्रता सेनानियों के प्रोट्रेट हों या समरभूमि में जूझती लक्ष्मीबाई अथवा बयावान जंगल में फांसी पर लटके सेनानियों का भय और आतंक दर्शाता चित्र, सभी रंगीन कागज़ों को इस्तेमाल करके बनाए गए हैं. रंग की एक बूंद और बिना ब्रश के स्पर्श के. लेकिन ब्रशों के स्ट्रोक्स और रंगों की अभिव्यक्त से भरपूर हैं ये चित्र. यहां रचनात्मकता का जो संतोष मिला है वह श्रीकांत की निजी उपलब्धि है.
(लेखक वरिष्ठ कला संपादक और मीडियाकर्मी हैं.)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)