अनेक प्रतिज्ञाओं के साथ सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन और मिशन के रूप में शुरू हुई भारतीय पत्रकारिता के मूल में वस्तुतः साहित्य और संस्कृति की गहरी संवेदनाएं ही रही हैं लेकिन इधर आज़ादी के बाद पत्रकारिता के परिदृश्य से ये मूल्य हाशिए पर किए जाते रहे. हालांकि उसकी आवश्यकता बनी हुई है. पत्रकारिता के विराट फलक पर नई-नई विधाओं ने आकार लिया और स्थापना तथा विकास के लिए अपनी संभावनाएं सुनिश्चित कीं, लेकिन बाद के बरसों में पत्रकारिता पर हावी वणिक-समीकरणों के कारण साहित्य-संस्कृति की जगह या तो सिमटती गई या बहुत अगंभीर हस्तक्षेप का शिकार हो गई.


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ये सच है कि किसी भी समाज की रीढ़ उसकी संस्कृति है जिसके साथ जुड़ी होती हैं कलाएं. विडंबना यह है कि प्रयोग, प्रगति और प्रसिद्धि के इस नए दौर में जबकि कला और संस्कृति का परिवेश नई संभावनाओं और समृद्धि से दीप्त है, उसकी ओर पत्रकारिता की माकूल दृष्टि नहीं है. यूं कहें कि एक तरह की सांस्कृतिक संवादहीनता और अराजकता ने जगह घेर ली है. कला लेखन की गुंजाइश, उसके सरोकार, उसकी प्रतिबद्धता और दायित्व को लेकर संशय स्वाभाविक है.


विशेषकर हिन्दी प्रदेशों में जहां कलात्मक संवेदनों के आसपास होती रही गतिविधियों की बेसाख्ता बढ़ती तादाद तथा कलाकारों का नित नए आयाम धरता उत्साही सृजन इस बात की ताईद करते हैं कि सांस्कृतिक समृद्धि का एक बड़ा और नया क्षितिज तैयार हो चुका है. विरासत के साथ जुड़ी परंपरा में आधुनिकता के नए पहलू जुड़ रहे हैं. संगीत, नृत्य, नाटक, चित्रकला, सिनेमा, फोटोग्राफी सहित अनेक कला विधाओं में राजधानियों, महानगरों, छोटे शहरों-कस्बों और गांव-गलियों में हो रहा सृजन जिज्ञासा, कौतुहल और प्रश्नाकुलता की नई कौंध जगाता नए ज़माने से नया रिश्ता जोड़ रहा है. सरकारी और गैरसरकारी प्रयत्नों में संस्कृतिकर्म एक अहम जगह बनाता जा रहा है. लेकिन इन तमाम रचनात्मक करवटों को हमारे समय का मीडिया खासकर हिन्दी की बहुत सी पत्र-पत्रिकाओं ने आज जिस चलताऊ ढंग से देखना-समझना शुरू किया है, उस पर अफसोस ही किया जा सकता है. ऐसा नहीं है कि लकीरें शुरू से ही फीकी रहीं, आज़ादी के बाद उभरा हिन्दी पत्रकारिता का परिवेश इतना उदासीन या उपेक्षा से भरा नहीं था. धर्मयुग, दिनमान, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, जैसी पत्रिकाओं और नई दुनिया, राजस्थान पत्रिका, हिन्दुस्तान, जनसत्ता जैसे अखबारों के अलावा मझौले कद की अनेक सांस्कृतिक पत्रिकाओं ने कला की हिलोर को अपने अंक में आत्मीयता से थामा लेकिन खरामा-खरामा यह प्राथमिकता अपनी आंच खोती जा रही है.


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फिर भी मुख्यधारा से कला लेखन की उखड़ती सांसों के बावजूद उसकी दरकार जनता के बीच बनी हुई है. इसलिए कि कला और जीवन के अटूट रिश्तों की आहटों से हमारा समय और समाज कभी विमुख नहीं होना चाहता. कभी-कभार कला लेखन एक अलग बात है लेकिन नियमित कलाओं पर चिंतन और लेखन बिलकुल अलग-अलग उद्यम हैं. हिन्दी में अज्ञेय से लेकर असद जैदी तक और प्रयाग शुक्ल, विनोद भारद्वाज से लेकर वर्षादास, मंजरी सिन्हा, रवीन्द्र मिश्र, अजीत राय, संगम पाण्डेय, राजेश गनोदवाले आदि तक इस तरह के नियमित लेखन की खोज की जा सकती है. लेकिन फिर भी कला लेखन पर ही एकाग्र और आश्रित होकर जीने का फैसला प्रायः कम लोग ही कर पाए हैं. यह बहुत बड़े समर्पण की मांग करता है. इसके लिए बड़ी तैयारी चाहिए. पढ़ने, लिखने, सुनने और देखने के संस्कार चाहिए. कला और जीवन से अन्तक्रिया, धीरज और उत्साह चाहिए. प्रश्नाकुलता चाहिए. संवाद-संसाधन और परिवेश भी जहां से कला के सच को परखने का प्रकाश फूटता है. लेकिन दुर्भाग्य से इस सबको हासिल करने के लिए हिन्दी के जनपद में बहुत कंजूस फिक्रें रही हैं. यह कंजूसी कला लेखकों से लेकर कला-संस्कृति की उन्नायक संस्थाओं और मीडिया तक व्याप्त हैं. आधे-अधूरे मन से हो रही कोशिशों ने एक बेहतर संभावना को उसके हाल पर ही छोड़ रखा है.


बात म.प्र. की, तो मेरे अपने ढाई दशक के सक्रिय सांस्कृतिक पत्रकारिता की अवधि में कुल तीन-चार अवसर ऐसे आए हैं जब कला लेखक या पत्रकारों के लिए ‘संवाद’ की जगह बनी. भारत भवन ने ही करीब दो दशक पूर्व कला बोध कार्यशाला आयोजित की थी. ग्वालियर में नाग बोडस ने संगीत आस्वादन पर तीन दिनों का एक विमर्श किया था. एक बार कला परिषद ने भोपाल में नाट्य समीक्षा पर बात की थी और जनवरी 2011 में ललित कला अकादेमी दिल्ली ने भोपाल स्थित भारत भवन में भारत में कला लेखन पर केन्द्रित एक राष्ट्रीय परिसंवाद आयोजित किया था. लेकिन ये उपक्रम भी प्रायः आनन-फानन में हुए. अधूरे भी इस मायने में भी इसमें बड़े अखबारों और पत्रिकाओं के संपादक आमंत्रित नहीं थे जो अपने मीडिया के नीति-निर्धारक होते हैं.


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चित्रकला और सिनेमा पर लगभग चार दशकों से नियिमत अपनी विश्लेषक कलम चला रहे कला समीक्षक विनोद भारद्वाज अपना अनुभव साझा करते हुए बताते हैं कि दरअसल कला लेखन हो या विश्व सिनेमा पर विश्लेषणात्मक लेखन, इन सब चीजों के लिए काफी तैयारी चाहिए. लेखक के पास एक बहुत बड़ी निजी लाइब्रेरी होनी चाहिए. समकालीन भारतीय कला पर भी लिखना हो तो दुनिया भर के संग्रहालयों का सीधा अनुभव होना चाहिए. रेनेसां कला के रंग किताबों से बहुत कम समझ में आते हैं. राफेल्लो या तित्सियानो के लाल रंग को समझना हो तो रोम, फ्लोरेंस या बेनिस में महीनों भटकना पड़ेगा. मातीस का लाल रंग देखे-समझे बिना आधुनिक भारतीय कलाकारों के रंगों की दुनिया में भी आप प्रामाणिक रूप से नहीं जा पाएंगे. यानी आपको खूब देखने-पढ़ने-घूमने की सुविधा चाहिए. दिल्ली में अधिकांश नामी कला लेखिकाएं आर्थिक दृष्टि से काफी सुरक्षित जिंदगी जी रही हैं. वे धनी परिवार में ब्याही हुई हैं या ऐसी ही कुछ सुविधाएं उन्हें हासिल हैं इसलिए घूमने-देखने के अवसर उन्हें अधिक मिलते हैं. इसका अर्थ यह नहीं है कि उनका कला प्रेम वास्तविक नहीं है. राय कृष्णदास ने हिंदी में उत्कृष्ट कला लेखन किया पर वे सुविधासंपन्न जीवन न पाते, तो बहुत से काम न कर पाते.


यह सही है कि कोई लेखक सिर्फ सुविधाओं के सहारे ही काम नहीं कर सकता. लेकिन कविता-कहानी लिखने और कला, संगीत, सिनेमा पर गंभीर लेखन में फर्क है. इस तरह के लेखन में कुछ हासिल करना हो तो एक लंबी लड़ाई में हिस्सा लेना पड़ता है. आज कलाकार धनी हो गए हैं पर उन पर लिखने वाले लेखक क्या यही बात अपने बारे में कह सकते हैं. आज अनेक कलाकारों को लेखकों-समीक्षकों की जरूरत भी बहुत कम रह गई है. अंग्रेजी अखबारों के युवा रिपोर्टर पूछ-पूछ कर लिखते हैं. इस तरह का लेखन कलाकारों और कला बाज़ार सभी के लिए सुविधाजनक है.


प्रयाग शुक्ल और विनोद भारद्वाज जैसे कला आलोचक अपने को सौभाग्यशाली बताते हुए ‘दिनमान’ के उन दिनों की याद करते हैं जब उन्हें अज्ञेय और रघुवीर सहाय जैसे मूर्धन्य मनीषियों के संपादन-काल में नौसिखिए उपसंपादक के बतौर काम करने का अवसर मिला. तब आज जैसी सुविधाएं-संसाधन भले ही बहुतायात में न थे लेकिन गंभीर सांस्कृतिक लेखन के अनेक अवसर मिलते थे. संपादक अपनी टीम पर बहुत भरोसा करते थे. इस तरह का विश्वास सुविधाओं की कमी का अवसर नहीं होने देता था. प्रयाग और भारद्वाज या उनकी तरह कुछ और भाग्यवानों की मिसाल छोड़ दें तो आज बहुतायत में कला लेखन को लेकर दरिद्रता के दीदार होते हैं. यह दारुण सच दैनिक अखबारों के कथित कला समीक्षक या सांस्कृतिक रिपोर्टरों के आसपास साफतौर पर परखा जा सकता है. सुपरिचित कवि-कथाकार और कला विषयों के नियमित लेखक उदयन वाजपेयी खेद के साथ सवाल करते हैं कि कलाकृति और पाठक या दर्शक के बीच के इस पुल यानी समीक्षक को हम ठीक से तैयार क्यों नहीं कर पाए? क्यों ऐसा है कि हमारे अधिकांश अखबारी समीक्षक निहायत अज्ञानी और अपरिष्कृत हैं?


उदयन कहते हैं कि यह आश्चर्यजनक और दुःखद तथ्य है कि हमारे देश के अधिकतर अखबारों के कला-साहित्य-नृत्य-संगीत समीक्षक पर्याप्त अशिक्षित और इन तमाम विधाओं की परंपरा से अधिकतर अनभिज्ञ है. उनमें से अधिकांश में इन कलाओं की बारीकियां समझने की सामर्थ्य नहीं है और चूंकि कलाओं और साहित्य में जो कुछ भी नया होता है, वह बारीक स्तर पर ही हुआ करता है इसलिए ये समीक्षक यह कभी पहचान नहीं पाते कि कौन-सा लेखक या कौन-सा कलाकार कुछ सचमुच नया कर रहा है और कौन अपने को बेशर्मी से दोहरा रहा है. इसी का परिणाम है कि इन समीक्षकों को यह कभी समझ में नहीं आ पाया कि अपनी फिल्मों में नई-नई विषय वस्तुओं को प्रस्तुत करने के बाद भी श्याम बेनेगल अत्यंत साधारण फिल्म मेकर हैं और उन्होंने फिल्म निर्माण की कला में ऐसा कुछ नहीं किया है जो पहले से न हो चुका हो. जबकि मणिकौल हमारे देश के एक ऐसे फिल्मकार रहे हैं जिन्होंने फिल्म कला में बहुत सूक्ष्म स्तर पर ऐसी-ऐसी नई बातें लाई हैं, जिनसे फिल्म कला हमेशा के लिए बदल गई है.


नवें दशक में सांस्कृतिक पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हुए अजीत राय समकालीन संवेगों की मीमांसा के साथ नए तर्क छोड़ते हैं. आज की पत्रकारिता छपे हुए शब्दों का एक विशिष्ट कारोबार है जिसमें बड़ी पूंजी लगी हुई है. इसलिए खबरों के लिए ‘स्पेस’ की मारामारी मची रहती है. अब जिन खबरों का बाजार भाव नहीं होगा, वे खबरें मुश्किल से ही छप सकेंगी. ऐसे में यह सांस्कृतिक रिपोर्टर की जिम्मेदारी है कि वह अपनी खबरों को इस तरह प्रस्तुत करे कि उसका कुछ बाजार भाव बन सके. हर आयोजन, साक्षात्कार, घटना, संगोष्ठी सांस्कृतिक आयोजन की रिपोर्टिंग करते समय उसके बाजार भाव पर नजर रखना जरूरी हो गया है.


बाजार भाव अपने आप में एक बड़ा विषय है, पर संक्षेप में इसका अर्थ यह हुआ कि खबरों की मंडी में ‘इस खबर’ का क्या मूल्य है? यह मूल्य कभी-कभी इतना अधिक हो जाता है कि कोई सांस्कृतिक खबर मुखपृष्ठ पर भी छप जाती है हालांकि इसमें अखबार के संपादक का विवेक भी मायने रखता है. किसी खबर का ‘समाचार मूल्य’ उसके बाजार-भाव का एक कारक है. दूसरे कारकों में परिस्थिति, अखबार में स्पेस की उपलब्धता और रिपोर्टर का कौशल शामिल है.



दुर्भाग्यवश हमारे देश में जितने सरकारी और गैर सरकारी सांस्कृतिक संस्थान हैं वे अभी भी मीडिया के साथ कुंभकर्णी मुद्रा में हैं. उन्हें लगता है कि मीडिया खुद उनके पास जाएगा. इसलिए वे अभी भी सांस्कृतिक जनसंपर्क, विज्ञापन, प्रचार और नई मार्केटिंग से विमुख हैं. ऐसा नहीं है कि इन संस्थानों के पास धन की कमी है. यह जरूर है कि अधिकतर संस्थानों में जिस अधिकारी को जनसंपर्क का काम सौंपा गया होता है उसे मीडिया के बारे में बहुत जानकारी नहीं होती.
दूसरी ओर पर्याप्त मेहनत करने और ईमानदार प्रयासों, सामाजिक प्रतिबद्धता के बावजूद सांस्कृतिक पत्रकार दोहरी असुविधा और उपेक्षा के शिकार हैं. एक ओर राजनीतिक, आर्थिक, फिल्म और दूसरे क्षेत्र के संवाददाताओं की तुलना में उन्हें अखबार के भीतर कम महत्व मिलता है, साथ ही उन्हें जूझना पड़ता है कार्यक्षेत्र में अपनी उपेक्षा से. दरअसल, यह समय सांस्कृतिक खबरों के बाजार भाव को पहचानने का है.


आने वाले दिनों में आशा की जा सकती है कि सांस्कृतिक रिपोर्टिंग अपने ऊंचे बाजार भाव के कारण मुख्यधारा की पत्रकारिता में एक स्वतंत्र ‘बीट’ बन पाएगी. इस बीच अजीत जोड़ते हैं कि आधुनिक मीडिया बेशक एक कारोबार है, पर वह देश की सत्ता-संरचना का एक आवश्यक घटक और हिस्सेदार है. संस्कृति अपने आप में एक सत्ता है जो देश की मुख्य सत्ता-संरचना का हिस्सा है. आधुनिक राजनीतिक और अर्थव्यवस्था के बीच सांस्कृतिक सत्ता का महत्वपूर्ण स्थान है. देश में जितने भी लेखक, बुद्धिजीवी, कलाकार आदि हैं उनका व्यक्तित्व और कारोबार इसी बड़ी सत्ता के हिस्सेदार हैं. इसलिए संस्कृति को केवल कलात्मक अभिव्यक्ति, उत्सव, समारोह, मनोरंजन या शिक्षा तक सीमित करके नहीं देखा जा सकता. सही मायने में कोई भी सांस्कृतिक रिपोर्टिंग तब तक महत्वपूर्ण नहीं होती जब तक कि वह सत्ता विमर्श में नहीं बदलती.


इन तमाम चिंताओं के बीच इस बात पर भी गौर करने की जरूरत है कि जिस स्तर पर कला पत्रकारिता की कोशिशें जारी हैं, सत्ता या समाज उनके पोषण या प्रोत्साहन के लिए कितना उदार या सहिष्णु है. देश में गिनती की कला पत्रिकाएं सरकारी या गैर सरकारी उपक्रमों द्वारा शुरू की गई, उनके पोषण या प्रसार को लेकर कोई गंभीर पहल नज़र नहीं आती. नियमित, समर्पित और काबिल कला लेखन करने वाले नुमाइंदों को ज़रूरी संसाधन मुहैया कराना कितना ज़रूरी समझा है हमारी सरकारों और संस्थानों ने. हिन्दी में कला लेखन का उत्कर्ष एक साझा पहल से ही संभव है.


(लेखक वरिष्ठ कला संपादक और मीडियाकर्मी हैं.)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)